इतिहासकार रीमा हूजा ने अपनी किताब महाराणा प्रताप: दि इंविंसिबल वॉरियर में उनकी 20 साल तक मुग़लों से युद्ध की दास्तान पर लिखा है.
हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद, मेवाड़ में मुग़ल सेना की पकड़ और मज़बूत हो गई थी. वे चित्तौड़, मांडलगढ़ और कई अन्य हिस्सों में पहले ही अपनी मज़बूत पकड़ बना चुके थे. मुग़ल सेना ने मेवाड़ से आने जाने वाली सड़कें ‘बंद’ कर दी थी. पर महाराणा प्रताप मुग़लों की पकड़ से बचते रहे और वे अवज्ञा का प्रतीक बन के उभरे.
मेवाड़ के लड़ाके, लंबी लड़ाइयों और उससे होने वाले धक्कों के आदि हो चुके थे और वे प्रताप की रणनीति का अनुपालन करने को तैयार थे. प्रताप की सामरिक रणनीति आर-पार की लड़ाई के बनिस्पद छद्म युद्ध की रही- कभी किसी किलें पर नियंत्रण करना तो कभी मौका देख उसे छोड़ देना और फिर उन पर कब्ज़ा कर लेना. प्रताप की रणनीति का एक और हिस्सा था मुग़लों के खिलाफ़ एक ढीला गठबंधन तैयार करना, खासतौर पर उन राज्यों के साथ जिनकी सीमाएं मेवाड़ से लगी हुई थी. मेवाड़ जाने के लिए इन राज्यों से गुज़र के जाना पड़ता था और प्रताप ने इन राज्यों के राजाओं और मुखियों से अपने लंबे संबंधों का इस्तेमाल कर मेवाड़ और मुग़लो के बीच सुरक्षित क्षेत्र स्थापित किये.
प्रताप ने इदर के राजा नारायण दास (जोकि उनके ससुर भी थे) से मिलने गए थे और उनसे अकबर के खिलाफ लड़ने के लिए साथ मांगा था. नदोल के क्षेत्र में उन्होंने मारवाड़ के राव चंद्रसेन का मुग़ल सेना से मुकाबला करने में समर्थन किया. साथ ही सिरोही के राव सूर्तन और जालोर के ताज खान को अकबर का मुकाबला करने के लिए प्रोत्साहित किया. राव सूर्तन और ताज खान ने 1576 के शुरुआत में मुगलों से अपनी स्वतंत्रता फिर कायम की थी. पर मुगलों ने प्रताप के उनकी राय से मिलती जुलती राय रखने वाले पड़ोसी राजाओं का समर्थन प्राप्त करने की कोशिशें तेज़ कर दी. सिरोही और जालोर और मारवाड़ के चंद्रसेन के खिलाफ उनकी मुहिम खासतौर पर तेज़ हुई.
अकबर ने प्रताप के पड़ोसी सभी सहयोगियों पर एक साथ हमला किया. उनकों हराने के लिए अकबर ने अपनी शाही फौज भेजी जिसका नेतृत्व तरसूम खान ने किया था. बीकानेर के राजा राय सिंह और सैयद हाशिम बराहा को उनको कुचलने के लिए भेजा. जालोर के राज सिंह को बीकानेर के राय सिंह के सामने हार माननी पड़ी और सिरोही के राजा सूर्तन को तो अकबर के दरबार में पेश होना पड़ा. हालांकि वे बिना इजाज़त के दरबार छोड़ के चले गए थे. (बीकानेर के राजा राय सिंह और अन्य को सिरोही के राजा से निपटने के लिए भेजा गया). इदर के राजा नारायण दास के खिलाफ सेना भेजी और मशक्कत के बाद इदर पर कब्ज़ा किया गया. तो अकबर सिरोही के राव सूर्तन, जालोर के ताज खान और इदर के नारायण दास को हरा सके. 19 अक्टूबर 1576 को मारवाड़ के नादोल पर भी मुग़लों का कब्ज़ा हो गया, हालांकि मारवाड़ के चंद्रसेन अकबर से लोहा लेते रहे.
इस बीच हल्दीघाटी के युद्ध के चार महीने बाद, 11 अक्टूबर 1576 को बादशाह अकबर ने एक बड़ी फौज का नेतृत्व करते हुए अजमेर से गोगुंडा के लिए प्रस्थान किया. शाही फौज के जलवे मेवाड़ के खिलाफ लड़ाई से कही ज़्यादा भव्य थे: शाही पताके, बैनर दूर से दिखाई देते और घुड़सवारों, सैनिकों और हाथियों के पैरों से उठते धूल के बादल में पीछे-पीछे आ रहीं सामान गाड़ियों और पालकियों को बिल्कुल छुपा दिया था. पर इस शाही शानो शौकत के बावजूद अकबर तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे, जैसा कि उनकी आदत हो गई थी. 1573 में, नौ दिन में वे 400 कोस ( लगभग 965 किलोमीटर) चलकर आगरा से गुजरात पहुंचे थे. उनका मकसद बाग़ी मिर्ज़ा मोहम्मद हुसैन और इख्तियार-इल-मुल्क के अहमदाबाद पर कब्ज़े को तोड़ना था. साथ ही अहमदाबाद पहुंचते ही उनका युद्ध पर चले जाना रिवायत का हिस्सा बन चुका है.एक बार अकबर गोगुंडा पहुंचे, तो उन्होंने महाराता प्रताप को घुटने टेकने की मुहिम का खुद नेतृत्व किया और जहां भी प्रताप के होने की अफवाह होती वहां फौज की बड़ी तैनातगी और नियंत्रण करना शुरू किया. आज के नाथद्वारा के पास मोही का खुद निरीक्षण कर के उन्होंने उसकी किलेबंदी के लिए अधिकारी नियुक्त किये. अकबर ने ऐसे ही आदेश चित्तौड़ के पास मदरिया के लिए भी दिये. कई नई मुग़ल चौकियां पिंडवारा, हल्दीघाटी/खामनोर आदि में स्थापित की और उसमें शाही अफसर तैनात किये. साथ ही उन्होंने आम्बेर के राजा भगवंत दास, मान सिंह, कुतुबउद्दीन और अन्य वरिष्ठ सैन्य कमांडरों को महाराणा का पीछा करने और बंदी बनाने का आदेश दिया. मेवाड़ की गद्दी पर 1572 मे शुरू में आसीन होने से 1576 में हल्दीघाटी की लड़ाई तक, प्रताप की अकबर से भिड़ंत लगभग तय थी और वे इसकी तैयारी भी कर रहे थे. उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई, मेवाड़ के पहाड़ी इलाके में अपनी पकड़ मज़बूत की और स्थानीय भील आदिवासियों को अपने खेमे में जोड़ा. अपनी सामरिक नीति के तहत उन्होंने मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में भील आदिवासियों को ज़मीन के पट्टे जागीर के रूप में दिये. अब इन तैयारियों का उनको पूरा लाभ मिल रहा था. मेवाड़ के दुर्गम, पहाड़ी इलाके में प्रताप को ढ़ूढ़ने की शाही सेना की सभी कोशिशे विफल हुई. कुछ समय के लिए महाराणा गोगुंडा पश्चिम में कोलीवारी गांव में रहे ताकि वे स्थिति का जायज़ा ले सकें और आगे की योजना तैयार कर सकें. फिर जैसे कि उनकी आदत थी वे किसी दूसरे छुपने के ठिकाने में पहुंच गए.
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maharana Pratap is a one man army he is a real hero of India
Modi ji ki bhumika kaishi hai