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Friday, 1 November, 2024
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रील टू रियल: ‘रंग दे बसंती’ के सिद्धार्थ सत्ता से टकरा रहे, ‘केसरी’ के अक्षय कुमार कर रहे चापलूसी

पर्दे पर जो सत्ता से टकराया, वो रियल लाइफ में भी वही कर रहा है. वहीं पर्दे पर राष्ट्रवाद के लिए रोल करने वाला एक्टर, रियल लाइफ में भी वही कर रहा है.

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रील टू रियल: ‘रंग दे बसंती’ के सिद्धार्थ सत्ता से टकराते हैं, जबकि ‘केसरी’ के अक्षय कुमार सत्ता की चापलूसी करते हैं. 2006 में आई फिल्म ‘रंग दे बसंती’ ने युवाओं को एक नये तरीके से पेश किया था. फिल्म में साफ संदेश दिया गया था कि डैंड्रफ और घूमा-फिरी जैसी बातों में घिरा युवा देश और राजनीति से भाग नहीं सकता. इस फिल्म में हुए कैंडल मार्च के बाद भारत में कई जगह कुछ गलत होने पर कैंडल मार्च की प्रथा चल पड़ी. पहले भी कैंडल मार्च होते थे, लेकिन इस फिल्म ने विरोध के इस शांतिपूर्ण तरीके को नया आयाम दिया. इस फिल्म का सबसे जटिल किरदार था- डिफेंस डील कराने वाले बड़े व्यापारी राजनाथ सिंघानिया (अनुपम खेर) के बेटे करण (सिद्धार्थ) का.

करण को जब पता चलता है कि मिग-21 जैसे कम क्षमता वाले विमान को खरीदवाने में उसके पिता की भूमिका थी तो वो अपने पिता को ही मार देता है. इस विमान की वजह से करण का पायलट दोस्त मर गया होता है और सरकार उसे ही दोषी ठहरा रही होती है. जबकि डिफेंस मंत्रालय में विमानों की खरीद को लेकर घोटाला हुआ रहता है. इसके मद्देनजर सिद्धार्थ का कैरेक्टर भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा जटिल था.

इस फिल्म में युवाओं को भगत सिंह, राजगुरू, अशफाकउल्ला, बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद से जोड़कर देखा गया था. फिल्म की शुरुआत में ही भगत सिंह बने सिद्धार्थ फांसी पर चढ़ने से पहले लेनिन की किताब पढ़ते नजर आते हैं. आजादी की लड़ाई और 2005 के दो कालखंडों में ये फिल्म चल रही होती है. 2005 के कालखंड में भी ये युवा अपने पायलट दोस्त की भ्रष्टाचार की वजह से हुई मौत पर फिर से आजादी के दीवानों का चोला धारण कर लेते हैं. उस वक्त ये फिल्म युवाओं में लोकप्रिय हुई थी. गौरतलब है कि डिफेंस मिनिस्ट्री में भ्रष्टाचार को दिखाती इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था और इसे ऑस्कर के लिए भी भेजा गया था.


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इस फिल्म ने सीधा-सीधा सरकारी तंत्र पर सवाल उठाया था. अगर ये फिल्म आज रिलीज होती तो शायद नजारा कुछ और होता. बहरहाल, एक रोचक बात हुई है. इस फिल्म में भगत सिंह का किरदार निभाने वाले सिद्धार्थ ट्विटर पर खुलकर अपने विचार सत्ताधारी दल के खिलाफ रख रहे हैं. आज जब ज्यादातर कलाकारों पर सत्ता के करीब जाने के प्रयास करने के आरोप लगे रहे हैं, सिद्धार्थ लोगों को चकित कर रहे हैं. पिछले दिन नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी को लेकर एक अशोभनीय टिप्पणी की. सिद्धार्थ ने इस पर भी असहमति जताते हुए ट्वीट किया है. यही नहीं, वह अक्षय कुमार द्वारा मोदी के लिए गये ‘अराजनीतिक’ इंटरव्यू पर भी कड़ी प्रतिक्रिया जता चुके हैं.

गौरतलब है कि अक्षय ने हाल-फिलहाल में ‘राष्ट्रीय मुद्दों’ से जुड़ी ढेर सारी फिल्में बनाई हैं. वह खुद को एक सच्चे देशभक्त की तरह पेश करते हैं. हालांकि उनकी कैनाडाई नागरिकता को लेकर लोगों ने उनसे खूब सवाल पूछे हैं और आलोचना भी की है. लेकिन अक्षय ने लगातार लाउड राष्ट्रभक्ति वाली फिल्में बनाकर खुद को इन चीजों से बचा लिया है. केसरी, एयरलिफ्ट, पैडमैन, टॉयलेट, गब्बर, होलिडे, बेबी जैसी फिल्में बनाकर और सोशल मीडिया समेत टीवी पर देशभक्ति के बारे में बोलकर अक्षय ने मॉडर्न मनोज कुमार का तमगा हासिल कर लिया है. लेकिन गब्बर को छोड़कर किसी फिल्म में अक्षय का किरदार सत्ता के खिलाफ आवाज नहीं उठाता. ये सारी फिल्में राष्ट्रवाद का एक अलग नजरिया पेश करती हैं. ‘बेबी’ फिल्म में तो मुसलमानों को लेकर आपत्तिजनक बातें कही गई हैं. एक तरीके से ये फिल्में हिंदू और मुसलमानों का अजीब सा रंग पेंट करती हैं. वहीं गब्बर में अक्षय का किरदार खुद किसी रॉबिनहुड की तरह न्याय करने लगता है. पर सत्ता से नहीं लड़ता. सत्ता के अधीन काम करने वालों को ही मार के अपनी समझ से न्याय करता है.

रील और रियल लाइफ को देखें तो सिद्धार्थ और अक्षय की फिल्में और रियल लाइफ की बातें काफी रोचक हो जाती हैं. ‘रंग दे बसंती’ जैसी विरोधपूर्ण फिल्म के नायक सिद्धार्थ रियल लाइफ में भी सत्ता से टकराने में डर नहीं रहे हैं. वो ट्विटर पर सत्तारूढ़ दल के फैसलों के खिलाफ लगातार आवाज उठा रहे हैं. वहीं फिल्मों में परंपरागत सत्ताधारी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हुए अक्षय रियल लाइफ में भी सत्ता के नजदीक ही रहने का काम कर रहे हैं. उनकी नागरिकता को लेकर हुए विरोध में लोग इसी बात से नाराज थे कि जब आप अराजनीतिक हैं तो आप सवाल उठा सकते हैं. चुनावी वक्त में किसी पीआर एजेंट की तरह काम क्यों कर रहे हैं. आप पार्टी के कार्यकर्ता नहीं हैं.

2006 से लेकर अब तक वक्त काफी बदल गया है. भगत सिंह के नाम पर भाजपा के नेता युवाओं को काफी उत्साहित करते हैं. लेकिन भगत सिंह जिस व्यक्ति की किताब को अपनी फांसी से पहले पढ़ रहे थे, उस लेनिन की मूर्ति को भाजपा कार्यकर्ताओं ने त्रिपुरा में सत्ता में आते ही गिरा दिया. लेनिन और मार्क्सवाद को भाजपा विदेशी विचार की तरह पेश करती है. जबकि भगत सिंह का झुकाव वामपंथ की तरफ था.


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आज ही नरेंद्र मोदी ने यूपी के भदोही में वामपंथी की परिभाषा बताते हुए कहा- वो जो विदेशी विचार थोपने की कोशिश करे. नरेंद्र मोदी ने इस बात को बिलकुल इग्नोर कर दिया कि हमारे देश में सरकार चलाने की पद्धति भी विदेश से ही आई है. तो ‘रंग दे बसंती’ के अब रिलीज होने पर शायद भगत सिंह और लेनिन की किताब को लेकर बवाल मच जाता. अक्षय कुमार अपनी फिल्मों में भगत सिंह की तर्ज पर बहादुर और देशभक्त किरदार ही करते नजर आए हैं. लेकिन ये किरदार सत्ता के हिसाब से राष्ट्रवाद पर जाता है. गौरतलब है कि भाजपा समेत तमाम दक्षिणपंथी पार्टियां भगत सिंह के इस बदले रूप को ही स्वीकार करेंगी न कि सिद्धार्थ द्वारा अभिनीत रंग दे बसंती के भगत सिंह को.

‘रंग दे बसंती’ में सिद्धार्थ के अलावा बाकी सारे एक्टर्स आमिर खान, शरमन जोशी, आर माधवन, सोहा अली खान, कुणाल कपूर और अतुल कुलकर्णी का भी पूरा रोल था. आमिर खान जैसे बड़े एक्टर का भी स्क्रीन प्रजेंस बाकी के बराबर ही था. क्योंकि आजादी के लड़ाई के दृश्यों के हिसाब से भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद समेत सारे क्रांतिकारियों का रोल बराबर ही रखा गया था. लेकिन जिंगोइस्टिक फिल्म केसरी में भले ही 21 सैनिकों के हजारों अफगान लड़ाकों से लड़ने की कहानी हो, सेंटर में अक्षय कुमार का ही कैरेक्टर रहता है. ऐसा लगता है कि यहां पर अक्षय कुमार का राष्ट्रवाद लड़ रहा है. इस तरह के राष्ट्रवाद के साथ यही समस्या है. ये सेंटर में खुद को रखना चाहता है, साथ ही इसे अपने से अलग किसी की बढ़ोत्तरी पसंद नहीं है. ये खुद को किसी से नीचे नहीं देख सकता. इसीलिए सिद्धार्थ का कैरेक्टर फिल्म में जितना जटिल है, अक्षय कुमार के देशभक्त कैरेक्टर उतने ही क्लियर और लाउड होते हैं.


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सिद्धार्थ की फिल्म रंग दे बसंती अगर आज रिलीज होती तो उसमें डिफेंस मिनिस्ट्री के भ्रष्टाचार और युवाओं द्वारा डिफेंस मिनिस्टर की हत्या को अप्रूव किया जाता या नहीं, ये सोचने की बात है. क्योंकि वर्तमान देशभक्त कलाकार अक्षय कुमार की फिल्मों ने तो डिफेंस मिनिस्ट्री को एवेंजर्स और स्टार वार्स के हीरोज के बरक्स खड़ा कर दिया है. रील और रियल लाइफ का ये साम्य बड़ा रोचक हो गया है. पर्दे पर जिस व्यक्ति ने सत्ता से टकराने का रोल किया, वो रियल लाइफ में भी वही कर रहा है. वहीं पर्दे पर जो व्यक्ति अंधाधुंध राष्ट्रवाद के लिए रोल कर रहा है, रियल लाइफ में भी वही कर रहा है.

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1 टिप्पणी

  1. बाबासहाब आम्बेडकर व्दारा अच्छुतों को गुलामी से मुक्त करने के ब्रम्हास्त्र को महात्मा गांधी ने निष्क्रिय किया । महात्मा गांधी दलितों के अधिकारों का हत्यारा था । जिसके कारण आज भी दलितों के साथ छुआछूत के आधार पर देश में अत्याचार जारी है ।
    महात्मा गांधी के अनुयायी आज भी. बाबासहाब की छवि को धूमिल करने का मौका नही छोडते ।
    संविधान निर्माता डा बाबासहाब आम्बेडकर को सम्मान दिलाने के आरक्षित वर्ग के लोगों को अपने मताधिकार का उपयोग कांग्रेस को सत्ता से बहार करना पडा ।
    विपक्षी दलो की सत्ता आनेपर विशेषकर प्रधानमंत्री वी पी सिंह के समय संसद के सेन्ट्रल हाल में छाया चित्र लगवाकर , बाबासहाब को भारत रत्न देकर सम्मानित किया गया । भाजपा की सरकार आने पर बाबासहाब के 3 भव्य स्मारकों का निर्माण कर, मुबंई में 3600 करोड़ की जगह चौथे स्मारक के लिए आवंटित की गई । लंदन में बाबासहाब जहां निवास करते थे वह भवन खरीदकर स्मारक के रुपमें स्थापित किया गया । जो दिन बाबासहाब ने देश को संविधान बनाकर सौपा उस दिन 26 नवंबर को संविधान दिवस के रुपमें मनाने का संकल्प लिया गया ।
    जबतक महात्मा गांधी की कांग्रेस अछुतों के प्रति अपनी मानसिकता नही बदलेगी और दलितों मसिहा डा बाबासहाब आम्बेडकर को सम्मान नही करेंगी केन्द्र में सत्ता से बहार रहेंगी । कांग्रेस को सत्ता में आने के लिये गांधी वादी विचारधारा का त्याग कर आम्बेडकर वादी विचारधारा स्विकार किये बगैर कोई रास्ता नही है ।
    महात्मा गांधी ने दलितों के उन्नति के रास्ते को रोककर जो पाप किया है ,वह कभी भुल नही सकते ।

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