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Saturday, 30 November, 2024
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बाबा नागार्जुन: इंदिरा से लोहा लेने वाले कवि की मौत के 20 साल बाद लगा यौन शोषण का आरोप

लोग कहते हैं कि बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वाले लोग बीमार होते हैं. क्या देश के इतने बड़े कवि नागार्जुन भी बीमार थे? 

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नई दिल्ली: हिंदी साहित्य की दुनिया में कवि नागार्जुन पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की वजह से एक पीड़ा की लहर दौड़ गई है. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रही गुनगुन थानवी ने अपना अनुभव फेसबुक पर लिखा है, ‘…नागार्जुन का नाम सुनकर मैं फिर से डर गई थी जहां बैठी थी वहीं बैठी रह गई. जब भी मैं ये नाम सुनती हूं तो मेरी सारी इंद्रियां जैसे सुप्त अवस्था में चली जाती हैं. मैं 35 साल की हो गई हूं वो जब हमारे घर आए तब शायद 7 साल की थी. मुझे उन क्षणों का भय बहुत अच्छे से याद है कि किस सौम्य भाव से बाबा अपना काम कर रहे थे, चेहरे पर एक तटस्थ भाव लिए हुए.’

लोग कहते हैं कि बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वाले लोग बीमार होते हैं. क्या देश के इतने बड़े कवि नागार्जुन भी बीमार थे? बाबा को मेरे पापा घर ले आए थे…उस व्यक्ति ने हमारे घर में कर्फ्यू लगा दिया था. रेप करने वाले लोग तो शायद बहुत मामूली होते हैं लेकिन देखिए कि ‘बड़े लोग’ आप के घर में घुसकर आपकी ही बेटियों को खा जाते हैं.’

9 जनवरी को लिखी इस पोस्ट ने इमरजेंसी के वक्त इंदिरा गांधी से लोहा लेने वाले मैथिली कवि व लेखक नागार्जुन के विशालकाय साहित्यिक जीवन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है. उनका असली नाम तो वैद्यनाथ मिश्र था लेकिन वो हिंदी में नागार्जुन और मैथिली में यात्री के नाम से लिखते थे. लोगों के जेहन में ये सवाल उठ रहा है कि जो साहित्यकार 20 साल पहले ही गुज़र गया हो उसका पक्ष कहां से जानने को मिलेगा? हिंदी जगत में हुए इस अप्रत्याशित मीटू ने एक बहस छेड़ी है कि क्या आर्ट को आर्टिस्ट से परे करके देखा जा सकता है?

दिप्रिंट से बात करते हुए गुनगुन बताती हैं, ‘कई दिन पहले ड्राफ्ट में लिखी ये पोस्ट मैंने उस दिन शेयर की जिस दिन मजबूती महसूस हुई. जो बात बहुत बार मुझे डिस्फंकशनल महसूस कराती थी उसे लिखकर मुक्त महसूस किया जाना चाहिए. मैंने अपने पिता को ये बात कभी नहीं बताई क्योंकि मैं उन्हें ग्लानि महसूस नहीं करानी चाहती थी कि वो नागार्जुन को घर लेकर आए.’

करीब 3 साल पहले गुनगुन अपनी बहन ज्योति थानवी को ये बात बता चुकी थीं. ज्योति थानवी दिप्रिंट को बताती हैं, ‘एक दिन मैंने नागार्जुन की कोई कविता शेयर की थी. उस दिन गुनगुन ने मुझे बताया और ज़ोर ज़ोर से रो पड़ी.’ गुनगुन ने अपने पति, काउंसलर्स और कुछ बेहद करीबी लोगों को भी बताया था.

इस पूरे घटनाक्रम के समानांतर ही जागरूक कहे वाले फ्रेंच समाज के सामने भी ऐसी ही एक दुविधा आ खड़ी हुई है. वहां की एक महिला लेखक ने अपनी किताब ‘कन्सेंट’ में प्रख्यात पेडोफाइल लेखक गैबरियल मैटज़निफ पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं. गौरतलब है कि लेखक मैटज़निफ ने कभी छुपाया नहीं कि वो छोटी उम्र के लड़कों और लड़कियों के साथ यौन क्रिया में लिप्त रहे हैं. उनका साहित्य पीडोफिलिया से भरा हुआ है.


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‘अंडर 16 इयर ओल्ड’ नामक किताब में तो उन्होंने यहां तक लिखा है कि एक बच्चे के साथ हुई यौन क्रिया एक पवित्र अनुभव की तरह है. 2005 में जब ये किताब छपी थी तब फ्रांस में कोई विवाद नहीं हुआ. ना ही 2013 में इस किताब का दूसरा संस्करण आने पर कोई चर्चा हुई. मैटज़निफ को बच्चों के साथ यौन संबंध बनाने को लेकर ना ही कोई जेल हुई और ना ही सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा. उल्टा उन्हें बड़ी मैगजीन्स में जगह दी गई और टीवी की स्क्रीनों पर सेलिब्रेट किया गया. उन्हें फ्रेंच के डार्लिंग लेखकों की श्रेणी में रखा गया. मैटज़निफ से पीड़ित वेनेसा स्प्रिनगोरा ने बताया है कि जब वो 4 साल की थीं तब 50 वर्षीय मैटज़निफ की उन पर नज़र पड़ी थी. इसके बाद वहां की साहित्यिक दुनिया में एक अजीब तरह की एंग्जायटी फैल गई है.

कुछ ऐसी ही एंग्जायटी ही हिंदी साहित्य जगत में भी फैल रही है जिसने वर्तमान साहित्यकारों की महिलाओं के लिए कुंठित मानसकिता को उजागर किया है. गुनगुन ने अपने आरोप में ये भी कहा है कि कैसे बचपन में हुए यौन शोषण ने उनके पुरुष मित्रों की दोस्ती खराब की. इस लाइन को उठाकर महिला सशक्तीकरण का झंडा उठाने वाले पुरुष साहित्यकारों ने दोयम दर्जे की भाषा का इस्तेमाल किया. कुछ लेखकों ने उनके पुरुष मित्रों के साथ वाली तस्वीरें निकाल कर चरित्र हनन करना भी शुरू किया. नागार्जुन के समकालीन लेखक व लेखिकाएं कह रहे हैं कि इस तरह का कोई आरोप उनके कानों में अभी तक नहीं पड़ा है. दिप्रिंट ने कई लेखकों से संपर्क किया, जिन्होंने इस आरोप को लेकर ऑनलाइन टिप्पणियां की थीं लेकिन ज्यादातर का कहना है कि ये टिप्पणियां अति उत्साह में की गई थीं.

लंबे समय से हिंदी साहित्य की पाठक व फ्रीलांस लिखने वाली 48 वर्षीया ऋतुपूर्णा 1988 का ज़िक्र करती हैं जब नागार्जुन उनके बगल के एक घर में आया करते थे, ‘उस घर की एक बेटी जो उस वक्त बमुश्किल 13 साल की रही होगी. उसने एक दिन बताया कि मेरी मां नागार्जुन के पास बैठने के लिए बोल देती हैं. मैंने बहाना बनाया कि उनसे बदबू आती है लेकिन वो अच्छे आदमी नहीं हैं. दो दशक पहले के इस किस्से की याद गुनगुन की एक पोस्ट ने ताज़ा कर दी है.’

ऋतु आगे जोड़ती हैं, ‘मेरे बेटे ने एक दिन मुझे कहा कि मैं फलां जगह जा रहा हूं. मैंने उसे कहा कि वहां पाब्लो नेरूदा का घर भी है. मेरे बेटे ने नेरूदा की अपनी नौकरानी के बलात्कार की स्वीकारोक्ति की बात उठाते हुए कहा कि वो ऐसे किसी लेखक के घर नहीं जाना चाहता. मैं खुद भी मानती हूं कि अब नागार्जुन को पढ़ते वक्त ये आरोप जेहन में ज़रूर आएगा.’

गौरतलब है कि 40 साल पहले छपे पाब्लो नेरूदा के एक संस्मरण ‘आई कन्फेस दैट आई हैव लिव्ड’ में उन्होंने अपनी नौकरानी के साथ किए बलात्कार का जिक्र किया है. इसमें दी गई बलात्कार की डिटेल्स विचलित करने वाली है. 2016 में छपी द गार्जियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जब चिली के एक अतिव्यस्त एयरपोर्ट का नाम नेरूदा के नाम पर रखा जा रहा था तो वहां के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने कहा था कि जिसने खुद बलात्कार की बात स्वीकारी हो उसके नाम पर एयरपोर्ट का नाम नहीं रखा जाना चाहिए. इस आर्टिकल को गार्जियन ने ‘कवि, हीरो और बलात्कारी’ के नाम से छापा था.

बॉलीवुड फिल्ममेकर व लेखक अविनाश दास भी नागार्जुन के करीबी रहे हैं. अविनाश दास की पिछली फिल्म अनारकली ऑफ आरा  थी जो एक महिला पात्र पर ही केंद्रित थी. इस मामले को लेकर उन्होंने कहा है, ‘जब उनके साथ मेरा रोज़ का साथ था, मेरी एक दोस्त ने उनके ख़िलाफ़ कविता लिखी थी. उसका ऑब्ज़र्वेशन था कि जब वह उनके साथ होती है, तब उसे गुड फील नहीं होता. मैंने तब उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया था. आज मैं कड़ियों को जोड़ पा रहा हूं.’ दिप्रिंट से हुई बातचीत में वो हिंदी लेखकों की संवेदहीनता पर कहते हैं, ‘हिंदी साहित्य के लोग हमेशा गॉसिप में लीन रहते हैं. गुनगुन के आरोप को पब्लिसिटी स्टंट कहना अनुचित व संवेदनहीन है.’

नागार्जुन से जुड़ी एक सीरीज में अविनाश दास ने लिखा है, ‘जब मैं अपनी प्रेमिका को बाबा से मिलवाने ले गया तो उन्होंने साइकिल चलाने वाली लड़कियों के हाथ से बजने वाली साइकिल की घंटी से निकलने वाले संगीत के कई आयाम बताए और बताया कि जब सारी लड़कियां साइकिल चलाना सीख जाएंगी, सुराज आ जाएगा.’

2018 में छपा एक लेख नागार्जुन के जीवन के एक मज़ेदार पहलू को दिखाने का दावा करता है. इस लेख को लिखने वाले सुमंत खुद को नागार्जुन के कवि मित्र कन्हैया के पुत्र बताते हैं. लिखा गया है, ‘बाबा के जीवन में रोमांटिसिज़्म कम नहीं था. महिलाएं और लड़कियां उनके लिए एक विचित्र खिंचाव का सबब थीं. उनके प्रति उनका व्यवहार संतई और थोड़ी-थोड़ी लफंगई दोनों तरह का ही था.’

एक खास किस्से का जिक्र भी किया गया है कि बाबा का मन जेएनयू में ही क्यों लगता है. जवाब भी बाबा के हवाले से ही दिया गया है जो उन्होंने खुद कुछ लड़कों को बताई थी. बताया गया है, ‘एक दंपत्ति की एक सुंदर बेटी है जिसके गालों को चूमकर उनके बुढ़ापे की हड्डी में थोड़ी जान आ जाती है.’ ये उस वक्त लेख महिलाओं में नागार्जुन की रुचि को केंद्र में रखकर लिखा गया था लेकिन इन आरोपों के बाद कई अलग अर्थ निकलकर भी आते हैं.

साहित्य अकादमी से सम्मानित लेखिका मृदुला गर्ग दिप्रिंट से हुई बातचीत में कहती हैं, ‘किसी के मरने के 20 साल बाद किसी आरोप का कोई औचित्य नहीं. मैंने अपने जीवन में कभी नागार्जुन को लेकर ऐसी कोई बात नहीं सुनी. हो सकता है कि ये पब्लिसिटी पाने का कोई तरीका हो.’ हालांकि मृदुला, नागार्जुन को गलती करने देने की गुंजाइश ज़रूर देती हैं, ‘हो सकता है कि महिलाओं के साथ ना किया हो और बच्चों के साथ किया हो लेकिन हम उनके साहित्य को किसी आरोप से जोड़कर नहीं देख सकते.’


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हिंदी साहित्य के आलोचक व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर संजीव कुमार इस पर अलग मत रखते हैं, ‘गुनगुन के अनुभव को खारिज करना असंवेदनशील है लेकिन साथ ही नागार्जुन की रचनाओं (रतिनाथी की चाची या वरुण के बेटे) से मिले सशक्त महिला किरदारों को खारिज करना भी सही नहीं है. साहित्य का मूल्यांकन निजी जीवन के परे करना होगा.’

लेखन को लेखक से अलग रहने वाली ‘सेपरेट द आर्ट फ्रॉम द आर्टिस्ट’ थ्योरी का समर्थन करने वाले संजीव वर्तमान साहित्यकारों पर टिप्पणी करते हैं, ‘मैं लेखकों के विचार संगोष्ठियों में सुनता हूं. तमाम महिला मुद्दों पर बात करने के बाद वो अपनी सामंती मानसिकता छुपा नहीं पाते.’ वो इस बात पर ज़ोर देकर कहते हैं कि लेखकों की दोहरी मानसिकता आप उनके काम में आसानी से खोज सकते हैं. उनके लेखन में प्रोग्रेसिव महिला के किरदार भी सामंती चश्मे से ही लिखे गए मिलते हैं.’ निदा फाज़ली ने सही ही लिखा है कि, ‘हर आदमी में होते हैं कई आदमी, जिसको भी देखना दस-बीस बार देखना.’

भले ही गुनगुन के आरोप को कुछ लोग गॉसिप मानकर आगे बढ़ जाना चाह रहे हों लेकिन कई लोगों के लिए ये जोर से लगे धप्पे की तरह है. मानों किसी ने मुंह पर तमाचा जड़ दिया हो. कई प्रोफेसरों व लेखकों ने कमेंट करके खेद जताया कि कैसे वो अपने बच्चों को लेकर अतिरिक्त सावधानी नहीं बरत सके. इसके इतर कई लोगों ने पीडोफीलिया पर खुलकर बात करनी भी शुरू की. पीडोफीलिया, वयस्कों का ऐसा मनोविकार जिसके चलते किशोरों व छोटी बच्चियों को यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकॉर्ड्स के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और ये हमारे लिए अच्छा संकेत नहीं है. कई रिसर्च बताती हैं कि ज्यादातर केसों में कोई करीबी ही दोषी होता है. जैसे स्कूल टीचर, ट्यूशन टीचर, कोई रिश्तेदार. 2018 में पॉक्सो के 39,827 तो साल 2017 में 32,608 मामले दर्ज हुए थे. 2018 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर दिन 109 बच्चों का यौन शोषण किया गया है.

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