प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को 16 देशों की सदस्यता वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते (आरसीईपी) से भारत ने फिलहाल अलग रखने का फैसला किया है. इस फोरम में शामिल होने के लिए वर्षो से वार्ता चल रही थी. आरसीईपी वार्ता नवम्बर 2012 में कम्बोडिया की राजधानी नोम पेह में शुरू हुई थी. इस वार्ता में वस्तु, सेवाएं, निवेश, आर्थिक और तकनीकी सहयोग, प्रतिस्पर्धा और बौद्धिक संपदा अधिकार पर चर्चा को शामिल किया गया.
आरसीईपी वार्ता में शामिल देश इस बात की अपेक्षा कर रहे थे कि आपसी व्यापार में आयात-निर्यात पर हर तरह के प्रति शुल्कों और गैर-प्रतिशुल्कों को कम कर दिया जाएगा या पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा. पिछले सप्ताह तक यह उम्मीद की जा रही थी कि कई मुद्दों पर सहमति नहीं होने के बावजूद भारत इस समझौते पर हस्ताक्षर कर देगा. पर ऐसा नहीं हुआ. मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया पर पत्रकार और विश्लेषक इस समझौते से मुंह मोड़ने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
इन लोगों का कहना है कि यह ऐतिहासिक व्यापारिक समझौता था और इससे किनारा करके भारत ने अपनी आर्थिक स्थिति को और ज्यादा अनिश्चित बना लिया है. पर विश्लेषकों के इस बिना सोचे-समझे व्यक्त की गई इस तरह की प्रतिक्रियाएं व्यापार समझौतों और व्यापार वार्ताओं की मौलिक प्रकृति को नहीं समझने के कारण हैं. ये नियम इस तरह के मोलभाव नहीं हैं जिन्हें दीर्घकाल की रणनीतिक फायदे के लिए बनाए गए हो. उदाहरण के लिए चीन के साथ संतुलन कायम करने या फिर अमरीका को अपनी क्षेत्रीय स्थिति को किलेबंदी करने के लिए (जैसा कि प्रशांत-पार क्षेत्रीय साझेदारी के सन्दर्भ में है), ये गौण लाभ हैं पर घरेलू राजनीतिक समझौते जो ऐसे घरेलू समूहों के समर्थन पर आधारित होते हैं जिनके अपने हित होते हैं और जो या तो समर्थन करते हैं या फिर ऐसे नए व्यापारिक नियमों को अवरुद्ध कर देते हैं, जो लाभ-हानि पर आधारित होते हैं, मौलिक बातों की अहमियत होती है.
अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौते
विश्लेषकों के शोरगुल में एक महत्वपूर्ण बात जो छिप जाती है वह है, व्यापारिक समझौतों में मोलभाव की स्थिति दो कारकों पर निर्भर करती है. पहली, भारत के व्यापार संतुलन के बारे में अंतरराष्ट्रीय सजगता और उसके विभिन्न उद्योगों का प्रदर्शन है और दूसरी, भारतीय फर्म और अन्य संबंधित समूह जिनका इसमें हित होता है. किस तरह ज्यादा से ज्यादा बाजार तक अपनी पहुंच बनाने के लिए उत्सुक हैं. जब ये दोनों ही कारक काफी मजबूत होते हैं तो भारत इस तरह के व्यापार समझौते को समर्थन देने या इस पर हस्ताक्षर करने के लिए ज्यादा उत्सुक होता है.
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विश्व व्यापार संगठन के लिए जो व्यापार वार्ता हुई थी (उरुग्वे दौर की वार्ता) उस समय यही स्थिति थी. इस समझौते पर 1990 के दशक में हस्ताक्षर हुए थे. भारत के व्यापार वार्ताकार इस बात से पूरी तरह परिचित थे कि भारत के घरेलू व्यापार की स्थिति क्या है क्योंकि उन दिनों व्यापार में सुधार का दौर चल रहा था और हमारे देश के व्यापारिक समूह दुनिया के बाजार में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी के लिए लालायित थे ताकि वे अधिक राजस्व कमा सकें. इस क्षेत्र में सक्रिय़ फर्म और व्यवसाय लॉबियों ने भारतीय वार्ताकारों को ज्यादा व्यावहारिक होने, बाजार तक पहुंच और उचित प्रतिस्पर्धा के लिए जरूरी छूट प्राप्त करने की ओर कदम उठाने को प्रोत्साहित किया. भारतीय वार्ताकारों ने उरुग्वे दौर की वार्ता का उपयोग भारतीय निर्यातों, मुख्यत: कपड़ा, कृषि और सेवाओं के लिए ज्यादा बाजार हासिल करने के लिए किया और बौद्धिक संपदा अधिकार के मुद्दों पर अपनी स्थिति में ढील दी.
भारत क्यों शामिल नहीं हुआ ?
जहां तक आरसीईपी की बात है, हम इनमें भी वही सारी बातें ढूंढ सकते हैं. पर इसमें एक अपवाद है जिसकी वजह से भारत इस व्यापार समझौते से दूर ही रहा. संस्थागत रूप से व्यापार वार्ता में शामिल अधिकारी भारत के व्यापार असंतुलन-प्रतिस्पर्धा की डांवाडोल स्थिति के बारे में पूरी तरह भिज्ञ थे और यह कि बहुत कारणों से आरसीईपी में शामिल कई देशों के साथ उसका व्यापार संतुलन बिगड़ा हुआ है और इनमें कई सारे ऐसे देश हैं जो आसियान के भी सदस्य हैं, जैसे दक्षिण कोरिया, चीन और ऑस्ट्रेलिया. इनके साथ भारत का व्यापार असंतुलन का आंकड़ा 100 अरब डॉलर से भी अधिक का है. डेयरी और निर्माण क्षेत्र के कई उद्योगों में भारत में आतंरिक प्रतिस्पर्धा की जो स्थिति है उसको देखते हुए, भारतीय कंपनियों को एशियाई बाजारों में अपने उत्पाद बेचने में मुश्किल होती. निर्यात की घटती संभावना की वजह बाजार में ज्यादा हिस्सेदारी के दावे को खोखला बना देती है. इन क्षेत्रों में सक्रिय कंपनियां वार्ताकारों को भारतीय बाजारों में ज्यादा हिस्सेदारी प्राप्त करने के मुद्दे पर अडिग रहने को बाध्य करती.
भारतीय बाजारों में विदेशी मालों के भर जाने से जो संभावित घाटा होता उसके अंदेशे ने इस मंच से दूर रहने के फैसले का पलड़ा भारी कर दिया. वर्तमान स्थिति में आरसीईपी भारतीय कंपनियों की स्थिति को मजबूत नहीं करता खासकर कृषि, इलेक्ट्रॉनिक्स और निर्माण क्षेत्र में. आरसीईपी देशों को भारत का निर्यात इस समय 20 प्रतिशत है जबकि इन देशों से उसका निर्यात 35 प्रतिशत है.
भारी प्रतिस्पर्धा के कारण भारत के धातु निर्माताओं को घाटा होगा जो कि पहले ही दक्षिण एशियाई देशों से हुए मुक्त व्यापार समझौते के कारण घाटा उठा रहे हैं. जहां तक कृषि की बात है, डेयरी, कालीमिर्च, नारियल और इलायची का उत्पादन करने वाली फर्मों पर ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों के उत्कृष्ट उत्पादों से प्रतिस्पर्धा का दबाव होगा. इसके अलावा, आसियान के अपने जैसे प्रतिस्पर्धियों से भी प्रतिस्पर्धा उसे झेलनी होगी. इस बारे में हम रबर का उदाहरण ले सकते हैं.
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भारत के लिए ज्यादा चिंता की बात यह भी थी कि आरसीईपी का प्रस्तावक चीन का अमेरिका के साथ व्यापार को लेकर विवाद चल रहा है और वह अन्य देशों की तुलना में भारत को ज्यादा निर्यात कर रहा है. अगर आसियान-चीन मुक्त व्यापार समझौता (एसीएफटीए) इस बात का एक संकेतक है, तो भारत को आरसीईपी को लेकर अभी मौन साध लेना ही बेहतर होगा.
एसीएफटीए के बाद, आसियान में चीन का व्यापार 1995 से 2017 के बीच 5-6 गुना बढ़ गया या दूसरे शब्दों में, आसियान के आयात में चीन की साझेदारी में निर्यात की तुलना में भारी वृद्धि हुई. यह इस बात को स्पष्ट करता है कि चीन की कंपनियों का अन्य देशों की कंपनियों की तुलना में आसियान के बाजारों पर ज्यादा कब्जा रहा. अगर भारत आरसीईपी में जाता तो यह दूसरा आसियान साबित होता.
आरसीईपी में शामिल नहीं होने पर जिस तरह की निराशाजनक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह एक सामान्य सी बात को अनदेखी कर रही हैं- आरसीईपी के सन्दर्भ में भारत का नियम को तोड़ना, एक तर्कसंगत निर्णय था और यह निर्णय भारत के वर्तमान व्यापार संतुलन संबंधी तथ्यों पर नजदीक से गौर करने के बाद लिया गया और यह कि इस समझौते से लाभ होगा या घाटा इस बारे में जो सबूत हैं, वे यह कहते हैं कि भारत को आरसीईपी में शामिल होने से घाटा ज्यादा होता.
(लेखक इंस्टीच्यूट ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज, नेशनल यूनिर्वसिटी ऑफ़ सिंगापुर में फेलो हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)
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