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Friday, 22 November, 2024
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सऊदी अरब कश्मीर मसले के हल में मददगार नहीं हो सकता क्योंकि मुस्लिम जगत में उसकी वैधता नहीं रह गई है

सऊदी युवराज मोहम्मद बिन सलमान भले ही इमरान ख़ान की अनदेखी करें और नरेंद्र मोदी से मेलजोल बढ़ाएं, पर वह पाकिस्तानी सेना के साथ अपने सैन्य संबंधों को दरकिनार नहीं कर सकते.

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भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर से सऊदी अरब गए- चार वर्षों में दूसरी बार. बहुतों को इसमें कश्मीर मुद्दे के समाधान की संभावना दिखती है. रियाद और नई दिल्ली के बीच तालमेल पाकिस्तान के लिए एक संकेत है कि मुस्लिम उम्मा का प्रतिनिधित्व करने वाले देश अब उसके बजाय भारत के साथ खड़े हैं.

हालांकि, समस्या यह है कि नया सऊदी अरब पहले के मुकाबले बहुत अलग है, यहां तक कि 2010 की तुलना में भी अलग. देश का आधुनिकीकरण और सांस्कृतिक रूप से पश्चिमीकरण करने की चाहत रखने वाले एक महत्वाकांक्षी, युवा और आधुनिक विचारों वाले नेता की अगुआई में सऊदी अरब की अब मुस्लिम जगत में पहले जैसी वैधता नहीं रह गई है. राजनीति वैधता पूरी तरह खत्म नहीं हो, इसके लिए सऊदी युवराज मोहम्मद बिन सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद प्रमुख इस्लामी विद्वानों और धार्मिक दक्षिणपंथियों को चुप कराने के साथ ही कुछ परंपराओं का पालन करते हुए संतुलन साधने की भरसक कोशिश कर रहे हैं.

तभी, इज़राइली विमानों की रियाद में आवाजाही तथा युवराज के करीबी मित्र एवं अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दामाद जेरेड कुशनर- जो ट्रम्प की मध्य पूर्व शांति योजना के मुख्य निर्माता हैं– के प्रयासों के बावजूद, विशेष कर मक्का और मदीना में, आधिकारिक तौर पर प्रसारित प्रार्थनाओं में फलस्तीन का उल्लेख किया जाना जारी है. इसी तरह, जैसा कि मैंने खुद देखा, कट्टर पर व्यावहारिक पूर्व मुख्य मुफ्ती शेख अब्दुल अजीज इब्न अब्दुल्ला इब्न बाज का लेखन अब भी दोनों पवित्र शहरों में उपलब्ध हैं.


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आधुनिकता की सऊदी शासकों की आकांक्षा कोई नई बात नहीं है. इसका इतिहास प्रथम सऊदी शासक मुहम्मद इब्न सऊद तक जाता है, जिन्होंने 1932 में अरब प्रायद्वीप में सऊदी राष्ट्र की स्थापना की थी. उनके पुत्रों, जिनमें 1975 में अपने ही भतीजे के हाथों मारे गए शाह फैसल भी शामिल थे, को सऊदी अरब में आधुनिक तकनीक लाने के अपने कथित पाप के लिए इस्लामी इमामों का विरोध झेलना पड़ा. फैसल की पत्नी इफ़ात अल-थुनयन ने महिलाओं के लिए स्कूल खुलवाए थे. वर्तमान में, वास्तविक शासक की हैसियत वाले मौजूदा युवराज मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) विकास को कई पायदान ऊपर ले जाना चाहते हैं. सत्ता के मामले में उन्हें क्रूर माना जाता है.

एक अच्छा व्यापारिक साझेदार मात्र

एमबीएस की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उनके देश के लिए भारत को एक आकर्षक गंतव्य बनाती हैं. पाकिस्तान को सऊदी अरब से आर्थिक मदद तो चाहिए पर देश की सुरक्षा पर पड़ने वाले विपरीत असर की आशंका से वह उसे पूरी तरह अंगीकार नहीं करता है. इसके विपरीत नई दिल्ली के साथ संबंध रियाद के लिए वास्तव में फायदेमंद साबित हो सकता है.

पाकिस्तानी मुसलमानों के विपरीत भारतीय मुसलमान सऊदी अरब के लिए विचारधारा के स्तर पर बोझ नहीं हैं. रियाद कभी भी भारत में कट्टरपंथी इस्लाम फैलाने के आरोप नहीं सुनना चाहेगा, जैसा कि पाकिस्तान आरोप लगाता रहता है. इसके अलावा, मोदी के भारत को मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों से घिरे सऊदी अरब के साथ मिलकर काम करने में कोई परेशानी भी नहीं है. इस दृष्टि से भारत की स्थिति पाकिस्तान के समतुल्य, पर अनेक पश्चिमी देशों से अलग है.

आश्चर्य नहीं कि सऊदी अरामको कंपनी ने रिलायंस इंडस्ट्रीज में कथित तौर पर 15 अरब डॉलर के निवेश पर सहमति व्यक्त की है. व्यापारिक दृष्टि से, ये एक अहम सौदा है क्योंकि ये अंबानी साम्राज्य के लिए खतरा पैदा किए बिना भारत में विदेशी निवेश की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना को लेकर आया है. इसलिए भारत का ईरान की चाबहार परियोजना को अस्थायी रूप से छोड़कर सऊदी अरब पर पूरा भरोसा जताना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

नई दिल्ली और रियाद के रिश्तों में इस गर्मी की निरंतरता भारतीय जेबों में पैसे पर निर्भर करती है. लेकिन ये बात नहीं भूलना चाहिए कि एमबीएस की अन्य प्राथमिकताएं भी हैं. भले वह अपने ‘रेगिस्तान में दावोस’ के आयोजन में नहीं बुलाकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को अपमानित और नजरअंदाज करें और नरेंद्र मोदी को आमंत्रित करें, लेकिन वह पाकिस्तानी सेना के साथ अपने सैन्य संबंधों को दरकिनार नहीं करने जा रहे, ना सिर्फ एक सेवानिवृत्त पाकिस्तानी जनरल उनकी सेवा में है, बल्कि एमबीएस के पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा के साथ भी अच्छे संबंध हैं. ये नहीं भूलें कि एमबीएस ने इस साल जुलाई में डोनाल्ड ट्रम्प के साथ इमरान खान की मुलाकात कराने में अहम भूमिका निभाई थी, जो कि वास्तव में ट्रम्प और बाजवा के बीच बैठक थी. अपने प्रधानमंत्री को महत्व नहीं दिए जाने पर जनरल को खुशी ही होती होगी.

साथ ही, चूंकि पाकिस्तान की सेना दशकों से सऊदी शासकों की सुरक्षा व्यवस्था में शामिल रही है, शायद ये भी एक कारण हो कि यमन में लड़ने से इनकार करने के और ईरान के खिलाफ खुलकर नहीं आने के बावजूद रियाद ने इस्लामाबाद का साथ नहीं छोड़ा है.

प्रेरणास्रोत नहीं रहा सऊदी अरब

क्या सऊदी अरब कश्मीर मुद्दे को सुलझाने में मदद कर सकता है? मुस्लिम वैचारिक परिकल्पना के केंद्र में होने के बावजूद एमबीएस के नेतृत्व वाले सऊदी अरब की व्यापक इस्लामी जगत में वैधता नहीं है.

आज आम दक्षिण एशियाई मुसलमान तुर्की के रेसेप तैयप एर्दोगान और मलेशिया के महाथिर मोहम्मद से एमबीएस के मुकाबले कहीं अधिक प्रभावित होंगे. कश्मीर की स्थिति की निंदा करने और पाम ऑयल का आयात रद्द करने के भारत के दबाव में नहीं आने से महाथिर की अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता पहले ही बढ़ चुकी है. हालांकि कुछ लोग इमरान ख़ान को भी इस सूची में डालना चाहेंगे. ऐसा नहीं है कि ये नेता दूध के धुले हैं, पर कहने का मतलब ये है कि सऊदी अरब आम मुसलमानों की सोच को प्रभावित करने या इस्लामी जगत में धार्मिक-राजनीतिक विमर्श की दिशा तय करने की स्थिति में नहीं रह गया है.


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हालांकि सऊदी अरब के अपनी मूल वहाबी विचारधारा से दूरी बनाने का प्रयास मुस्लिम देशों और मुस्लिम जनता को इस्लामिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित कर सकता है, पर वैश्विक मुस्लिम समुदाय या उम्मा का विचार पूरी तरह से नहीं मरा है. संभवतः इसके लिए एक बुद्धिमान और व्यवस्थित विमर्श की आवश्यकता है जो अभी तक हुआ नहीं है. इस्लामिक जगत में दुनिया के मुसलमानों के मुद्दों पर विचार करने की वैध अधिकार रखने वाली किसी मजबूत संस्था या मंच की अनुपस्थिति के कारण आतंकवादी संगठनों के लिए मौके बढ़ने या फिर मुसलमानों की निराशा बढ़ते जाने की आशंका है.

दूसरी ओर, पहले से अधिक भयाक्रांत, चुनाव में अपनी भूमिका से वंचित और अपना प्रतिनिधित्व कम होते जाने के असहसास से भरा एक भारतीय या कश्मीरी मुसलमान एक दमनकारी युवराज से कोई प्रेरणा नहीं लेगा. यह एक सच्चाई है कि भारतीय संसद में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या देश की आबादी में उनके हिस्से के अनुपात की तुलना में कुछ भी नहीं है. भारतीय सेना में भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम हो गया है. भारत में मुसलमानों पर किसी विचारधारा से अधिक उनके हालात का प्रभाव पड़ता है.

इसके अलावा, जहां तक सऊदी अरब की बात है तो एक साझा भाषा के कारण भारतीय मुसलमान वहां खुद को दुनिया के अन्य हिस्सों के मुसलमानों के मुकाबले पाकिस्तानी मुसलमानों के कही अधिक करीब पाता है. मैं खुद इसका अनुभव कर चुकी हूं. मदीना में पैगंबर की मस्जिद में हमलोग, जिसमें पाकिस्तान और भारत के विभिन्न हिस्सों (केरल से भी) की महिलाएं थीं, एक साथ थे और हमें परस्पर जोड़ने का काम कर रही थी एक भाषा- उर्दू.

ऐसा नहीं है कि सऊदी अरब और खाड़ी देशों से संबंध बढ़ाने की नीति सार्थक नहीं है, पर भारत को अपनी समस्याओं में राजनीतिक और वैचारिक हस्तक्षेप के बजाय पूंजीगत फायदों के लिए सऊदी अरब को महत्व देना चाहिए. अपनी मुस्लिम समस्या का हल भारत को अपने भीतर ही ढूंढना होगा.

(लेखिका लंदन विश्वविद्यालय के एसओएएस केंद्र में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने मिलिट्री इंक: इनसाइड पाकिस्तांस मिलिट्री इकोनॉमी नामक पुस्तक लिखी है. उनका ट्विटर हैंडल @iamthedrifter है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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