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Tuesday, 25 November, 2025
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PM मोदी की रीब्रांडिंग अब सबसे ज़रूरी, भूमि अधिग्रहण और कृषि कानूनों से करें शुरुआत

पीएम मोदी लाल किले के भाषण में किए गए सुधारों पर आगे बढ़ने के लिए गंभीर दिख रहे हैं, लेकिन किसानों से जुड़े मुद्दों पर अभी भी झिझकते नज़र आते हैं.

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अब तक के सबसे ज़्यादा मुखर बोलने वाले प्रधानमंत्रियों में से एक माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के भाषण पिछले 11 साल में लगभग एक जैसे से लगने लगे हैं. वे बोलना शुरू करें उससे पहले ही हमें पता होता है कि वे क्या कहेंगे — अपने बारे में, अपनी सरकार के बारे में, अमृत काल के बारे में और विपक्ष के बारे में. आप पीएमओ के ‘जोशी-दोशी’ जोड़ी से पूछ सकते हैं — ओएसडी (रिसर्च & स्ट्रैटेजी) प्रतीक दोशी और ओएसडी (कम्युनिकेशंस & इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) हिरेन जोशी. दोनों मिलकर यह तय करने में भूमिका निभाते हैं कि पीएम क्या कहते हैं और क्या छपता है और टीवी पर क्या दिखाया जाता है और क्या नहीं.

वैसे सत्ता के गलियारों में यह चर्चा है कि दोशी — जो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के दामाद हैं, अब ज्यादा अहम भूमिका निभा रहे हैं, क्योंकि पीएम भाषणों के इनपुट के लिए उन पर काफी निर्भर रहते हैं. अफसरों के बारे में फीडबैक तक उनसे लिया जाता है. जोशी और दोशी, दोनों ही गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री रहने के समय से उनके करीबी रहे हैं. इतने सालों तक रोज-रोज नए नैरेटिव गढ़ना आसान नहीं होता.

इन दिनों दोशी-जोशी की जोड़ी काफी उत्साहित होगी. अब उनके पास काम करने के लिए कुछ बिल्कुल नया है. शुरुआत है, लेकिन लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी अब एक नए अवतार में सामने आना चाहते हैं — एक साहसी आर्थिक सुधारक की तरह, न कि छोटे-छोटे बदलाव करने वाले नेता की तरह. कुछ उसी तरह जैसे नरसिंह राव, जिन्होंने अल्पमत सरकार चलाते हुए भी बड़े आर्थिक सुधार किए थे. यह अलग बात है कि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने 2024 लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल किया था. बस फर्क इतना है कि बीजेपी अकेले बहुमत से पीछे रह गई — उसे 240 सीटें मिलीं (जबकि 1991 के चुनाव में कांग्रेस को 232 सीटें मिली थीं).

और ज्यादा साहसी होते मोदी

पिछले शुक्रवार को चारों लेबर कोड्स को लागू करने का अचानक किया गया ऐलान — जो पिछले पांच साल से ठंडे बस्ते में थे, कई लोगों के लिए चौंकाने वाला था. लोगों ने इसे बिहार चुनाव नतीजों से पीएम मोदी के और मजबूत होने का संकेत माना. यह वजह हो सकती है, लेकिन विवादित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की उनकी इच्छा और हिम्मत शायद फरवरी के दिल्ली चुनाव नतीजे से आई हो — या शायद उससे भी पहले.

पिछले साल के विधानसभा चुनावों ने बीजेपी को ज़रूर बढ़त दी, लेकिन ये नतीजे पीएम मोदी के लिए उतने आश्वस्त करने वाले नहीं थे. झारखंड में वे पार्टी का चेहरा थे, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में मोदी के साथ नायब सिंह सैनी और देवेंद्र फडणवीस को आगे किया था. दिल्ली चुनाव में ‘मोदी की गारंटी’ फिर बीजेपी का नारा बना और वहां के नतीजे ने 2024 लोकसभा चुनाव के बाद उनके मन में उठी किसी भी चिंता को दूर कर दिया.

इस साल स्वतंत्रता दिवस के भाषण में पीएम मोदी ने ‘सुधार’ (रिफॉर्म) शब्द 25 बार बोला. उन्होंने कहा, “हमने सुधारों की यात्रा को तेज़ करने का संकल्प लिया है और हम तेज़ी से आगे बढ़ना चाहते हैं…चाहे वह संरचनात्मक सुधार हों, नियमों में सुधार, नीतिगत सुधार, प्रक्रियाओं में सुधार, या संवैधानिक सुधारों की ज़रूरत, हमने हर तरह के सुधार को अपना मिशन बना लिया है.”

उन्होंने अगली पीढ़ी के सुधारों पर काम करने के लिए टास्क फोर्स बनाने का भी एलान किया. सितंबर में, सरकार ने गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) में बड़ा संरचनात्मक सुधार भी किया.

ये साफ था कि यह सिर्फ भावनात्मक बातें करने वाला भाषण नहीं था. लेबर कोड्स को लागू करना सिर्फ उन कई चीज़ों में से एक है, जिन पर अब उनका पूरा ध्यान लगा हुआ लगता है. आने वाले संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार के विधायी एजेंडा की सूची देखें: निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए अणु ऊर्जा अधिनियम और परमाणु दुर्घटना से नागरिक नुकसान कानून में संशोधन; हाईवे के लिए ज़मीन जल्दी अधिग्रहित करने के लिए नेशनल हाईवेज़ (अमेंडमेंट) बिल; और कॉरपोरेट लॉज (अमेंडमेंट) बिल, शामिल हैं.

चार वजहें क्यों

पीएम मोदी अपने लाल किले वाले सुधारों के भाषण को आगे बढ़ाने के लिए काफी तैयार नज़र आ रहे हैं, लेकिन जब बात किसानों की आती है तो वे अब भी हिचकते दिख रहे हैं. फिर सिर्फ नेशनल हाइवे के लिए ज़मीन अधिग्रहण तेज़ करने की बात क्यों? पूरी तरह क्यों नहीं आगे बढ़ते और ज़मीन अधिग्रहण वाला कानून वापस क्यों नहीं लाते, जिसे सरकार ने 2015 में विपक्ष के दबाव में तीन बार अध्यादेश लाने के बाद छोड़ दिया था? और तीन रद्द किए गए कृषि कानूनों को फिर से क्यों नहीं लाते? इन सुधारों को दोबारा आगे बढ़ाना सरकार की नीयत और दृढ़ता का सबसे मजबूत संदेश होगा और वैश्विक अनिश्चितताओं के बीच निजी निवेश को बढ़ाने में बहुत मदद करेगा. पीएम मोदी को ज़मीन अधिग्रहण और कृषि कानूनों पर फिर से विचार करने की चार वजहें हैं.

पहली वजह, अपने कार्यकाल के 12वें साल में, पीएम मोदी को खुद को एक नए रूप में पेश करने की ज़रूरत है, ताकि भारत की बदलती आकांक्षाओं से जुड़े रह सकें. अब तक जिन चीज़ों के लिए वे जाने जाते रहे — योजनाओं की डिलीवरी, वेलफेयर स्कीम्स, मजबूत और निर्णायक नेतृत्व, हिंदुत्व, विश्वगुरु — ये सब अब अपनी चरम सीमा पर पहुंच रहे हैं. चुनाव जीतने की रणनीति अब सामाजिक समीकरणों को गठजोड़ से साधने और चुनावों के दौरान वोटरों को नकद सहायता देने पर टिक रही है और पीएम मोदी को “गारंटी” देने वाले नेता के रूप में पेश किया जाता है, लेकिन अगर वे अपने को एक साहसी, निडर सुधारक के रूप में पेश करें, जो भारत की आर्थिक उछाल के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है, तो यह उनके नए रीब्रांडिंग के लिए गेम-चेंजर साबित होगा.

दूसरी वजह, भूमि और कृषि कानूनों को फिर से आगे बढ़ाने का सही समय इसलिए भी है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष या तो गायब है या कमज़ोर. बिहार चुनाव नतीजों के बाद, हो सकता है राहुल गांधी बॉन जोवी को सुन रहे हों कि वोटर उनसे क्यों दूर चले गए: “Should have seen it coming when roses died…ain’t it funny how I never ever learn to fall…”

वैसे, अगर बॉन जोवी होते तो राहुल गांधी को कहते :— “Politics Ain’t a Love Song.” पर राहुल गांधी शायद यह संदेश सुन नहीं रहे. बिहार में कांग्रेस की ‘वोट चोरी’ वाली चुनावी लाइन को लोगों ने साफ नकार दिया, लेकिन फिर भी पार्टी 14 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ रैली करने जा रही है.

विपक्ष के लगातार आरोप कि संस्थाएं कमज़ोर हो रही हैं, लोकतंत्र खतरे में है, इन सबका एक ही मकसद लगता है: राहुल गांधी की चुनावी हारों को यह कहकर सही ठहराना कि गलती उनकी नहीं, बल्कि देश की संस्थाएं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में है जिसके कारण वह सफल नहीं हो रहे.

अब दूसरे राष्ट्रीय दल को देखिए — सीपीआई(एम). पार्टी की पोलित ब्यूरो ने लेबर कोड्स पर तीखी प्रतिक्रिया दी: “इनका मकसद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी को लुभाना है…हड़ताल के अधिकार को छीनना और मजदूरों की सामूहिक कार्रवाई को अपराध बनाना है.”

लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि केरल की पिनराई विजयन सरकार उन राज्यों में से थी, जिसने इन कोड्स के ड्राफ्ट नियम सबसे पहले अधिसूचित किए थे.

तीसरी वजह, पीएम मोदी ने राहुल गांधी के ‘सूट-बूट-की-सर्कार’ वाले तंज और दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक किसानों के जमावड़े को देखकर खुद को ज़रूरत से ज्यादा भयभीत कर लिया था, लेकिन बाद के चुनाव नतीजों, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश, ने दिखाया कि ये डर काफी बढ़ा-चढ़ाकर आंका गया था. ज़्यादातर लोग आंदोलनकारियों के साथ नहीं थे. 2022 के यूपी चुनाव में, बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में लगभग अपनी पकड़ बरकरार रखी, जबकि वहीं आंदोलन हुए थे.

उसी साल पंजाब चुनाव में, खुद को किसानों का नेता बताने वाले सभी उम्मीदवार हार गए, ज्यादातर तो अपनी जमानत भी गंवा बैठे. 2024 के हरियाणा चुनाव में भी इन आंदोलनों का कोई असर नहीं दिखा.

चौथी वजह, चुनावी प्रभाव. जिन राज्यों ने विधानसभा में कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास किए थे: पंजाब, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, बंगाल और केरल — उनमें क्या हुआ?

पहले चारों राज्यों की सरकारें अगले चुनाव में गिर गईं. यह नहीं कहा जा रहा कि वे इसलिए गिरीं क्योंकि उन्होंने प्रस्ताव पास किए थे, बल्कि यह कि किसानों ने उन्हें इस वजह से कोई सहानुभूति नहीं दी. सिर्फ केरल की एलडीएफ सरकार दोबारा सत्ता में लौटी, लेकिन वहां कांग्रेस-नेतृत्व वाला विपक्ष जमीन कानूनों के खिलाफ और भी ज्यादा मुखर था.

संक्षेप में, बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों ने जमीन और कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध ज़रूर संगठित किया, लेकिन यह कभी जन-आंदोलन नहीं बना. पीएम मोदी अपने राजनीतिक विरोधियों से मिली हारें आसानी से नहीं भूलते. ज़मीन अधिग्रहण और कृषि कानूनों पर उन्हें कई झटके लगे थे.

अब यह लड़ाई फिर से लड़ने का अच्छा समय है — चाहे अपनी प्रतिष्ठा के लिए, और फिर राष्ट्रीय हित में.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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