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Saturday, 22 November, 2025
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तेजस को श्रद्धांजलि, भारत का देरी वाला कल्चर ही आसमान में असली दुश्मन है

तेजस एक बेहतरीन, कम कीमत वाला और ज़्यादातर देश में बना हुआ लड़ाकू विमान है, जिसका सुरक्षा रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा रहा है. पिछले 24 साल में इसके सिर्फ दो हादसे हुए हैं, लेकिन ताज़ा हादसे के बाद इसका आत्म-विश्लेषण ज़रूरी हो जाता है.

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दुबई एयर शो में तेजस का दुर्भाग्यपूर्ण हादसा और उसमें पायलट की मौत विक्षुब्ध कर देने वाली घटना है. भारतीय वायुसेना (आईएएफ) इतनी मजबूत, गर्वीली तथा पेशेवर तो है ही कि वह इस घटना से हताशा में नहीं डूब जाएगी, लेकिन भारत के नीति निर्धारकों के लिए यह इस बात पर मनन करने का मौका है कि आईएएफ को जिस चीज़ की ज़रूरत है उसके मद्देनज़र नीतिकारों ने उसके प्रति पूरी तरह से उचित व्यवहार किया है या नहीं, या आईएएफ से वे जो मांग करते रहे हैं, उसे जो समझौते और ‘एडजस्टमेंट’ करने के लिए कहते रहे हैं उस सबको कितना उचित माना जा सकता है.

हमें गहरी सांस लेते हुए यह भी याद करना चाहिए कि पायलट खासतौर से मजबूत शख्स होते हैं और उनमें से जो सबसे मजबूत होते हैं उन्हें आईएएफ में पाया जा सकता है, क्योंकि दुनिया भर में वे ही उन कुछ पायलटों में शामिल हैं जो हमेशा ऑपरेशन की मुद्रा में होते हैं.

यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि भारत की थलसेना और नौसेना शांति के काल में लंबी सेवा अवधि का लाभ उठाती हैं. आईएएफ का विशेष उल्लेख तीन कारणों से किया जा सकता है. पहला यह कि जब भी तनाव बढ़ता है या सबक सिखाने वाली परिस्थिति आती है तब सबसे पहले जवाब देने के लिए उसे ही उतरना पड़ता है, खासकर मोदी सरकार के इस सिद्धांत के मद्देनज़र कि आतंक की हर कार्रवाई को हमला माना जाएगा और उसका तुरंत जवाब दिया जाएगा. दूसरे, तीनों सेनाओं में आईएएफ ही वह सेना है जिसमें प्रायः उसके अधिकारी ही युद्ध में उतरते हैं. इन अधिकारियों का एक छोटा-सा, काफी संगठित समुदाय है और तीसरे, तीनों सेनाओं में आईएएफ ही टेक्नोलॉजी पर सबसे ज्यादा निर्भर है.

और, चूंकि हम जानते हैं कि सेनाओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा चलती है इसलिए हमें मानना पड़ेगा कि बाकी दोनों सेनाओं के लिए भी टेक्नोलॉजी महत्व रखती है. वायुसेना के मामले में सिर्फ इतना है कि लड़ाई के सारे साधन, ज़मीन पर उसे निर्देश देने, नियंत्रण में रखने और सुरक्षा देने वाले उपकरण निरंतर बदलते इलेक्ट्रॉनिक्स पर निर्भर होते हैं.

आईएएफ के लिए हम चौथी चुनौती भी जोड़ सकते हैं. थलसेना और नौसेना में यहां-वहां टेक्नोलॉजी संबंधी कमियों को कभी-कभी संख्याबल से पूरा किया जा सकता है, लेकिन वायुसेना को यह छूट नहीं होती. इसके अलावा, चूंकि, हवाई युद्ध के साधनों की पूंजीगत लागत नौसेना के इन साधनों की लागत जितनी ऊंची नहीं होती, इसलिए पाकिस्तान के लिए बराबरी पर आना या कुछ मामलों में आगे बढ़ना मुमकिन हो सकता है, खासकर इसलिए कि छोटी-मोटी झड़पों में हवाई युद्ध करने के लिए उसे तैयार किया गया है. और, चीन तो उसकी मदद के लिए हमेशा तैयार है ही.

अमेरिका ने 1950 वाले दशक के मध्य से पाकिस्तान एअर फोर्स (पीएएफ) को अपने आधुनिकतम लड़ाकू विमान देने शुरू किए थे, तब से आईएएफ प्रायः उसकी बराबरी करने की होड़ में जुटा है. 1965 में इसने पीएएफ का मुकाबला सुपरसोनिक विमान और मिसाइल से लैस एफ-104 स्टारफाइटर्स से किया. 1971 आने तक सोवियत संघ के साथ गहराते रिश्ते ने आईएएफ को पीएएफ की बराबरी पर ला दिया. सत्तर वाले दशक में पाकिस्तान अपनी चोट से उबरने में जुटा था.

1984 तक, एफ-16 की पहली खेप आने के साथ तस्वीर नाटकीय रूप से बदल गई. अमेरिका ने अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के पांच साल बाद एफ-16 विमान दिए थे, लेकिन यह इस उपमहादेश में हवाई जंग में सबसे आगे निकलने की सात दशकों की होड़ का इतिहास नहीं है. यह कहानी है उन अहम दुविधाओं की जिनसे भारत इस मोर्चे पर जूझता रहा है. इनका एक नतीजा है ‘तेजस’, जो काफी अच्छा है. यह शानदार, काफी कम कीमत वाला, अधिकतर घरेलू उत्पादन वाला है और सुरक्षा के मामले में इसका रेकॉर्ड शानदार रहा है. पहली उड़ान भरने के बाद बीते 24 सालों में इसके केवल दो हादसे हुए हैं, लेकिन 2025 तक क्या यही हमारा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होना चाहिए था? यह अभी भी प्रतियोगिता में टिके रहने की कोशिश कर रहा है. क्या हमें यह सब बहुत पहले नहीं पूरा कर लेना चाहिए था? याद कीजिए, 2015 में रक्षा मंत्री रहे मनोहर पर्रिकर ने अनिच्छुक आइएएफ को तेजस मार्क 1ए को अपनाने पर मजबूर किया था, जिसकी डेलीवरी 2022 से देने का वादा किया गया था. अब 2027 के शुरू में भी इसका पहला स्क्वाड्रन पूरी तरह ऑपरेशन में आ जाए तो हम खुद को खुशकिस्मत मानेंगे. पांच साल की देरी की सामरिक तथा रणनीतिक कीमत हमें चुकानी पड़ेगी.

इस बीच पाकिस्तान जेएफ-17 की कई आवृत्तियां उत्पादित कर चुका है और ऐसा कोई दावा नहीं किया जा रहा है कि यह 57 फीसदी से ज्यादा ‘देसी’ है. यह पाकिस्तान एरोनॉटिकल कॉम्प्लेक्स (पीएसी) और चेंगडु एयरक्राफ्ट कॉर्पोरेशन का संयुक्त उपक्रम है. अगले कुछ महीनों में तेजस एमके 1ए को आईएएफ में शामिल कर लिया जाएगा तब कुछ कमियां पूरी हो जाएंगी, लेकिन हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स नये, स्वदेशी इलेक्ट्रोनिक वारफेयर (ईडब्लू) सूट में ‘एल्बिट’ (इज़रायली) रडार और मिसाइल तथा कुछ दूसरी टेक्नोलॉजी को समाहित करने की जद्दोजहद कर रहा है जिसके चलते देरी हो रही है लेकिन इस बीच प्रतिद्वंद्वी निष्क्रिय नहीं बैठे रहेंगे. चूंकि ये सब सॉफ्टवेयर से जुड़े मसले हैं, इन्होंने हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स से जीई इंजिन प्राप्त करने में देरी का बहाना बनाने का मौका भी छीन लिया है.

अपना लड़ाकू विमान हो, यह तो बहुत अच्छी बात है लेकिन हम हमेशा होड़ में फंसे रहकर अपना ही नुकसान करते हैं. हवाई शक्ति को लेकर हम जिन दुविधाओं की बात करते हैं उनमें यह केंद्रीय दुविधा है.

1950 वाले दशक में, जब पाकिस्तान को पहले सेबरजेट विमान हासिल हो रहे थे तब जवाहरलाल नेहरू की सरकार विकल्पों की तलाश कर रही थी. तब तक सोवियत संघ से रिश्ता नहीं जुड़ा था, गुटनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता अपने चरम पर थी, लेकिन इसने सेना और खासकर वायुसेना के लिए आत्म-निषेध की स्थिति भी बना दी थी. आईएएफ को ब्रिटेन से वैम्पायर और फ्रांस से दसाल ऑरागां (तूफानी) जैसे प्रारंभिक जेट विमान मिले, जो यहां आते तक पुराने पड़ चुके थे. उन्हें 1953 में आइएएफ में शामिल किया गया. फटाफट जोड़तोड़ करने के लिए आइएएफ ने ब्रिटिश हंटर विमान और रॉयल एअर फोर्स द्वारा खारिज किए गए नैट विमान हासिल किए, लेकिन मिसाइल से लैस सेबर विमानों और रात में भी युद्ध करने वाले स्टारफाइटर विमानों से अंतर बना रहा.

इसका पूर्वानुमान करते हुए नेहरू ने 1950 के दशक के मध्य में फैसला किया कि हम अपने घर में ही सुपरसोनिक जेट फाइटर विमान बनाएंगे. उन्होंने जर्मन डिजाइनर कुर्त टैंक को ढूंढ निकाला, जिन्होंने सबसे कामयाब लुफ्तवाफ्फे फाइटर एफडब्लू-190 (एफडब्लू का मतलब फोक्क वुल्फ) विमान डिजाइन किया था. इस विमान की नकल में बने 20,000 विमानों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़ाई लड़ी थी. चूंकि, टैंक नाजी नहीं थे, इसलिए दुनिया भर में उनकी मांग हो रही थी. शुरू में अर्जेंटीना ने उन्हें नौकरी पर रखा, लेकिन उसके शासक जुआन पेरोन की सत्ता छिन गई तो उनकी भी नौकरी गई. नेहरू ने उन्हें मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी का निदेशक बना दिया. टैंक ने जल्दी ही भारतीय इंजीनियरों की एक टीम बना दी, जिसमें ए.पी.जे. अब्दुल कलाम नाम का एक युवक भी शामिल था.

एचएफ-24 मारुत नाम के विमान का डिजाइन शानदार था, लेकिन कोई इंजन नहीं था. कुछ समय बाद टैंक लौट गए और भारत डटा रहा.

ध्वनि की गति सीमा, साउंड बेरियर को तोड़ने की हसरत नहीं पूरी हुई. यह दो ऑर्फ़ियस इंजिन के बूते अधिकतम ‘माच.93’ की गति ही हासिल कर पाया. भारत यह इंजिन छोटे तथा एक इंजिन वाले नैट विमानों के लिए बना रहा था. मिस्र के सहयोग से इंजिन बनाने की एक परियोजना विफल रही, लेकिन जुझारू राष्ट्रवाद इतना प्रबल था कि भारत ने फिर भी 147 विमान बनाए जिनमें से 28 हादसे के शिकार हो गए. 1985 में इसे पूर्ण संन्यास दे दिया गया और आईएएफ में किसी को कोई अफसोस नहीं हुआ.

तेजस भी इसी तरह की अनिश्चितता का शिकार हुआ. सरकार ने 1983 में इसे हल्के लड़ाकू विमान (एलएसी) के रूप में मंजूरी दी. उस समय डीआरडीओ के प्रमुख थे श्रेष्ठ धातु विज्ञानी वी.एस. अरुणाचलम (उस समय 40 की उम्र के इर्दगिर्द के). अपना मज़ाक बनाते हुए वे कभी-कभी कहा करते थे कि इसे “अरुणाचलम के लिए आखिरी मौका” ही मानिए. उनके साथ वैमानिकी के शानदार वैज्ञानिकों की एक महान टीम बन गई थी और जल्दी ही हमें एक डिजाइन उपलब्ध हो गया था.

लेकिन इस विमान को, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने तेजस नाम दिया था, पहली उड़ान भरने में 18 साल लग गए, इसे ऑपरेशन में शामिल करने की शुरुआती मंजूरी (आइओसी) मिलने में 12 साल और लग गए और ऑपरेशन में शामिल करने की पूर्ण मंजूरी (एफओसी) मिलने में छह साल और लग गए. यह कहानी जारी है.

यह संक्षिप्त तथा दुखद कहानी है भारत की हवाई शक्ति की, जो सात दशकों से टेक्नोलॉजी की दौड़ में फंसी रही है. इधर, आईएएफ की ओर से ग्राहक वाली जो अधीरता है या नए विदेशी फाइटर विमानों की जो मांग है उसकी सोशल मीडिया पर घोर आलोचना हुई है. कहा जा रहा है कि आईएएफ जब तक आदर्श मॉडल से ’10-15 परसेंट’ नीचे वाली चीज को कबूल नहीं करता तब तक हमारी घरेलू टेक्नोलॉजी प्रगति नहीं कर सकती. अंतर को जल्दी दूर करने की मांग करने वाले ‘इम्पोर्ट बहादुर’ नाम देकर खारिज कर दिया जाता है. चुप रहने की ट्रेनिंग पाई सेना दुर्भाग्य से अपनी पैरवी करने में कमज़ोर साबित होती है. या आपसे यह कहा जा सकता है कि लड़ाई में जब आप बराबरी करने की कोशिश कर रहे हों तब कोई भी आपको असुविधा में नहीं डालता.

दुबई में जो दुखद हानि हुई है और अविश्वसनीय रूप से एक कुशल युवा को खोना पड़ा है वह हमें अपनी खुद की बुलाई सीमाओं और हवाई शक्ति में कमियों पर चिंतन-मनन करने का अहम मौका उपलब्ध कराता है. यहां यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि इस विमान में या तेजस मार्क 1 विमान कोई नुक्स नहीं है, लेकिन यह कुरबानी अगर हमें हमारी टालमटोल वाली प्रवृत्ति की याद दिलाता है और हममें बदलाव लाता है तो वह भी भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण होगा.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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