सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में तत्काल तीन तलाक को गैरकानूनी घोषित कर दिया था और संसद ने 2019 में कानून बनाकर इस फैसले को पक्का कर दिया, लेकिन जहां तलाक-ए-बिद्दत को मनमाना और क्रूर बताकर खत्म कर दिया गया, वहीं तलाक-ए-हसन पर ध्यान नहीं दिया गया. यह तरीका ज़रूर हल्का है, लेकिन क्या व्यवहार में यह कम असमान है?
इसमें अभी भी पति को यह अधिकार है कि वह हर महीने एक बार “तलाक” कहकर अकेले ही शादी खत्म कर दे. अब भारतीय सुप्रीम कोर्ट आखिरकार यह देखने की ओर ध्यान दे रहा है कि क्या ऐसी एकतरफा प्रक्रिया संवैधानिक लोकतंत्र में जारी रह सकती है, जो बराबरी को महत्व देने का दावा करता है. आखिर तत्काल और धीरे-धीरे होने वाले अन्याय में फर्क सिर्फ प्रक्रिया का लगता है, नैतिकता का नहीं.
कोर्ट की हैरानी साफ झलक रही थी. तलाक-ए-हसन और इसके लैंगिक समानता पर असर को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जजों ने आखिर वह सवाल पूछ दिया जो हम में से कई लोग सालों से पूछते आ रहे हैं: “आधुनिक समाज में यह कैसे अनुमति दी जा सकती है?”
बेहतर, लेकिन न्यायसंगत नहीं
मिली-जुली याचिकाओं में कहानी ऐसी थी जिसने कानूनी भाषा को पीछे छोड़कर इस प्रथा की असली मानवीय कीमत दिखा दी: बेगम बेनज़ीर हिना, एक मुस्लिम महिला—जिनके पति ने तो खुद तलाक कहना भी ज़रूरी नहीं समझा. उनकी तरफ से एक वकील ने तलाक की घोषणा कर दी, और शादी खत्म करने की प्रक्रिया एक साधारण औपचारिकता बन गई और इसकी सज़ा हिना को ही भुगतनी पड़ी.
वे अपने बच्चे को स्कूल में भी दाखिला नहीं दिला सकीं क्योंकि उनके पास अपनी वैवाहिक होने का कोई “मान्य” सबूत नहीं था. वे धार्मिक प्रक्रिया और सरकारी नियमों की दीवार के बीच फंस गईं. जब कोर्ट ने वकीलों द्वारा तलाक बोलने की प्रथा की निंदा की और कहा कि धार्मिक ढांचे के भीतर भी गरिमा बनी रहनी चाहिए, तो यह सिर्फ एक कानूनी कमी को संबोधित करना नहीं था. यह उन महिलाओं की जीती-जागती बेइज्जती को स्वीकार करना था जिन्हें इन प्रणालियों के बीच अकेले ही रास्ता तलाशना पड़ता है.
हां, तलाक-ए-हसन को अक्सर “बेहतर” तरीका कहा जाता है क्योंकि यह प्रक्रिया तीन महीने तक चलती है, लेकिन यह न्यायसंगत नहीं है. भारत में यह अभी भी एकतरफा, अदालत के दायरे से बाहर चलने वाली व्यवस्था है, जहां सिर्फ पति की इच्छा से शादी खत्म हो सकती है और महिला के अधिकार अधर में लटक जाते हैं. फिर भी, समुदाय इसे पहचान खोने के एक काल्पनिक डर से पकड़े बैठा है, जबकि इससे होने वाले असली दर्द को नज़रअंदाज़ करता है.
आज के भारत में महिलाएं, खासकर गरीब और हाशिये पर रहने वालीं, सबसे बड़ा बोझ उठाती हैं: समाज का दबाव, संसाधनों की कमी और कानूनी मदद तक सीमित दायरा. हम ऐसी व्यवस्था का बचाव कैसे कर सकते हैं जो उन्हें कोई सुरक्षा ही नहीं देती? जब पढ़ी-लिखी, सुविधाओं वाली महिलाएं भी शादी से जुड़े मामलों में सालों तक न्याय के लिए संघर्ष करती हैं, तो जिनके पास न पैसा है न परिवार का सहारा, उनके लिए क्या ही उम्मीद बचती है?
जो समाज महिलाओं को पुराने नियमों में बांधकर रखता है, लेकिन उन्हें कोई सुरक्षा नहीं देता, वह परंपरा नहीं बचा रहा बल्कि असल में अपनी ही महिलाओं को छोड़ रहा है.
भारतीय महिलाओं के साथ सौतेली बेटी जैसा व्यवहार
पाकिस्तान जैसा देश, जो महिलाओं के लिए प्रगतिशील सुधारों का कोई बड़ा उदाहरण नहीं माना जाता, वहां भी यूनियन काउंसिल को औपचारिक सूचना देना ज़रूरी है; कागज़ों के बिना दिया गया मौखिक तलाक कानूनी रूप से मान्य नहीं होता. यूएई या सऊदी अरब जैसे मुस्लिम-बहुल देशों में भी परिवार से जुड़े कानून तय किए गए हैं, जो महिलाओं के अधिकारों को पहचानते हैं. उदाहरण के तौर पर यूएई में पत्नी इसमा़ (Isma’) यानी अनुबंध के अधिकार के आधार पर तलाक मांग सकती है, या “नुकसान” साबित करके तलाक ले सकती है और “नुकसान” शब्द को इतना व्यापक रखा गया है कि उसमें न्याय और सुरक्षा के लिए जगह बन सके.
लेकिन भारतीय मुसलमानों के पास ऐसा कोई तय परिवार कानून नहीं है जिस पर वो भरोसा कर सकें. हमें तो अदालत की उस परिभाषा पर निर्भर रहना पड़ता है, जो शरिया की चुनिंदा व्याख्याओं पर आधारित होती है और इस कारण महिलाओं को एक ऐसी व्यवस्था में रास्ता ढूंढ़ना पड़ता है, जो पूरी तरह अनिश्चितता पर टिकी है.
भारत की ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं को यह तक पता नहीं होता कि उनके अधिकार क्या हैं और जो संगठन समुदाय की आवाज़ बनने का दावा करते हैं—जैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) वह भी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते. उनमें महिलाओं के साथ खड़े होने का नैतिक साहस ही नहीं है. यही दर्दनाक सच्चाई है: सुधार का विरोध कभी धर्म के बारे में नहीं रहा; वह हमेशा महिलाओं पर नियंत्रण बनाए रखने के बारे में रहा है.
एक पासमांदा मुस्लिम महिला होने के नाते, मुझे यह दुख ऐसे महसूस होता है जिसे शब्दों में कहना मुश्किल है कि इस देश को हमारी समुदाय की महिलाओं के घावों को देखने में ही 70 साल से अधिक लग गए. मैं अक्सर कहती हूं कि यह ऐसा लगता है जैसे एक ऐसे देश का सौतेली बेटी जैसा व्यवहार हो, जो दावा करता है कि उसका आधार न्याय पर बना है. क्या हम मुस्लिम महिलाएं भी उसी भारत माता की बेटियां नहीं हैं? फिर क्यों हमारी हिंदू बहनों को सही तौर पर एक के बाद एक सुधार देखने को मिले और हम अब तक इंतज़ार में ही रह गईं, अनसुनी, अनदेखी?
पहली बार, हमारे संघर्ष अब मुख्यधारा की चर्चा में आ रहे हैं और यह अपने आप में एक अजीब-सी राहत देता है. सुधार की संभावना आज दशकों की घुटन के बाद ऑक्सीजन जैसी लगती है. इससे उम्मीद बनती है कि हमारी बेटियां और उनकी अगली पीढ़ियां, वही खामोशी विरासत में नहीं लेंगी और इसके लिए हमें बेनज़ीर हिना जैसी महिलाओं का शुक्रिया करना चाहिए जो कीमत चुकाकर भी लड़ती हैं, ताकि वह रास्ता बने जो हमें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था.
आख़िर में, मैं उसी बात पर लौटती हूं जो मेरे धर्म ने मुझे सिखाई है: कुरान का सुधार का आह्वान, यह आदेश कि हर दौर और हर परिस्थिति में हम अपनी दुनिया को और ज्यादा न्यायपूर्ण बनाने की कोशिश करते रहें.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: असम का एंटी-पॉलीगेमी बिल मुस्लिम महिलाओं के लिए एक बड़ा कदम है, यह समुदाय पर हमला नहीं है
