एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है, जिसमें कथित दिल्ली कार बम हमलावर उमर उन नबी आत्मघाती हमले को सही ठहराता दिख रहा है. यह साफ नहीं है कि वह चाहता था कि वीडियो जारी हो या वह किसी भविष्य के वीडियो या भाषण की तैयारी कर रहा था, लेकिन इतना तय है कि वीडियो असली है क्योंकि यह उस फोन से निकाला गया है जिसे उमर इस्तेमाल करता था.
हम थोड़ी देर में आत्मघाती हमलावरों और उनके अपने लिए किए जाने वाले तर्कों पर आएंगे, लेकिन मेरी पहली चिंता उस विवाद को लेकर है, जो सोशल मीडिया पर शुरू हुआ और सरकार तक पहुंच गया है—क्या एक आतंकवादी का अपने कृत्य को सही बताने वाला वीडियो इतनी आसानी से फैलना चाहिए? या लोगों को इसे एक्स, फेसबुक, व्हाट्सऐप पर पोस्ट करने से रोक देना चाहिए?
जो लोग वीडियो के फैलने का विरोध करते हैं, वे कई दलीलों का इस्तेमाल करते हैं. सबसे आम दलील यह है कि उमर की बातें सुनकर कुछ लोग उसके नक्शेकदम पर चल सकते हैं या कम से कम, युवा मुसलमान कट्टर हो सकते हैं. साफ कहूं तो यह दलील टिकती नहीं है, क्योंकि वीडियो में उमर बहुत अजीब लगता है और उसकी बातें बिखरी हुई हैं. वह कोई प्रेरणादायक ‘योद्धा’ नहीं, सिर्फ एक पागल इंसान है जो निर्दोष लोगों को मारने की तैयारी कर रहा था. जो भी व्यक्ति इस वीडियो से कट्टर हो सकता है, वह पहले से ही कट्टर होगा—या फिर थोड़ा पागल होगा और पागल व्यक्ति तो किसी भी चीज़ में मोटिवेशन ढूंढ लेता है. इस वीडियो को बैन कर दो, तो कट्टरता के लिए कोई और बहाना मिल जाएगा.
लेकिन दूसरा तर्क और भी मजबूत है. इस तरह के आतंकवाद की ओर खिंचने वाले ज़्यादातर लोग इस दुनिया और अगली दुनिया—दोनों में ‘प्राइड’ चाहते हैं. अगर उमर अपनी आम ज़िंदगी जीता रहता, तो 99% लोग उसके बारे में कभी नहीं सुनते, लेकिन अब हम सब उसके बारे में बात कर रहे हैं और लिख रहे हैं. उसका वीडियो चलाकर, क्या हम वही ‘फेम’ दे रहे हैं, जिसकी उसे तलाश थी? क्या इससे दूसरों को भी ऐसा ‘प्राइड’ पाने के लिए मौत को चुनने की प्रेरणा मिलेगी?
इसके अलावा, हम सब मानते हैं कि आतंकवाद के मामलों में अभिव्यक्ति की आज़ादी के सामान्य नियमों को सीमित किया जा सकता है. उदाहरण के लिए दुनिया के ज़्यादातर टीवी न्यूज़ चैनल आईएसआईएस जैसे संगठनों द्वारा बनाए गए बंधकों की हत्या के वीडियो नहीं दिखाते.
भारत में भी, मीडिया ऐसे भड़काऊ वीडियो नहीं दिखाती जिनमें कट्टरपंथी हिंसा, मारकाट या अलगाव की अपील करते हों और सरकार उन चैनलों पर प्रतिबंध लगा देती है जो फर्ज़ी खबरों के ज़रिए अल्पसंख्यक समुदाय को भड़काने की कोशिश करते हैं.
क्या उमर का वीडियो इसी श्रेणी में आता है?
आतंकवाद के मामलों में कोई सख्त नियम नहीं
एक दूसरी राय भी है, जो उतनी ही मजबूत है. हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी को सिर्फ बहुत ही दुर्लभ मामलों में सीमित करना चाहिए. एक मरे हुए पागल इंसान की बकवास से सार्वजनिक व्यवस्था को कोई खतरा नहीं होता. उल्टा, अगर हम इस वीडियो को दबा दें, तो लोगों में गलतफहमी फैल सकती है. लोग सोच सकते हैं कि लाल किला धमाका किसी बड़े अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र का हिस्सा था. अल्पसंख्यकों को यह भी बताया जा सकता है कि वीडियो की सामग्री सरकार के लिए इतनी शर्मनाक थी कि उसे बैन करना पड़ा.
मेरी अपनी राय है कि मीडिया और आतंकवाद के मामलों में कोई सख्त नियम नहीं होते, एक को छोड़कर—अगर आपको लगता है कि किसी वीडियो या खबर को हटाने से सार्वजनिक व्यवस्था बचाई जा सकती है, तो आतंकवादियों को वह चीज़ नहीं देनी चाहिए जिसे ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने ‘पब्लिसिटी की ऑक्सीजन’ कहा था, लेकिन अगर हमला पहले ही हो चुका है और हमलावर की पहचान हो चुकी है, तो जानकारी रोकने पर आप पर ‘सच छिपाने’ के आरोप लग सकते हैं.
लेकिन ये फैसले आसान नहीं होते और हर स्थिति को उस हमले की परिस्थिति के अनुसार संभालना पड़ता है. इस मामले में, वीडियो ऑनलाइन रहना चाहिए. नहीं तो यह वैसे ही कट्टरपंथी वेबसाइटों पर सामने आ जाएगा और बेवजह बदनामी फैलाएगा.
इस्लाम में हराम
एक और बात कही जानी चाहिए. मुझे यह देखकर दुख होता है कि हर हमले के बाद भारतीय मुसलमानों से यह उम्मीद की जाती है कि वे सार्वजनिक तौर पर आतंकवाद की निंदा करें. ज़ाहिर है, वे इसकी निंदा करते हैं. क्या ज़्यादातर भारतीय नहीं करते?
मुसलमानों से यह साबित करवाना कि वे हिंदुओं के प्रति वफादार हैं (असल में यही हो रहा है), हम चरमपंथियों को वही दे रहे हैं जो वे चाहते हैं — समुदायों के बीच दीवार खड़ी करना और उन मूल्यों को चोट पहुंचाना जिन पर यह देश बना है.
मेरी सारी चिंताओं के बावजूद, मुझे खुशी है कि भारतीय मुसलमानों ने यह बात साफ कर दी है कि आत्मघाती धमाके इस्लाम का हिस्सा नहीं हैं. आत्मघाती हमला, चाहे वह धर्म के नाम पर हो, धार्मिक काम नहीं होता. वह एक राजनीतिक काम होता है. लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) ने ऐसे हमले बहुत पहले से इस्तेमाल किए थे, जब हमें यह बताया भी नहीं गया था कि आत्मघाती हमला इस्लामी सिद्धांत का हिस्सा है.
हमें लोगों को बार-बार याद दिलाना होगा कि आत्मघाती हमलावर बहादुर योद्धा नहीं होते, वे कायर हत्यारे होते हैं. इसलिए मुझे अच्छा लगा जब AIMIM सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने पोस्ट किया, “इस्लाम में आत्महत्या हराम है और मासूमों की हत्या बड़ा गुनाह है. ऐसे कृत्य देश के कानून के भी खिलाफ हैं. इन्हें किसी तरह ‘गलत समझा गया’ नहीं कहा जा सकता. यह सीधा आतंकवाद है और कुछ नहीं.”
भारत में दूसरे मुसलमानों ने भी यही बात कही है, जैसे दुनिया के कई देशों में कही गई है. आत्महत्या इस्लाम के खिलाफ है, इसलिए आतंकवादी ‘सुसाइड बॉम्बर’ कहलाना पसंद नहीं करते और खुद को ‘शहीद’ बताने की कोशिश करते हैं.
लेकिन वो ‘शहीद’ नहीं है, पागल, भ्रमित अपराधी है और यह ज़रूरी है कि हम उसे वही समझें जो वो है. उमर के वीडियो को देखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ जाएगा कि वह सिर्फ एक और खतरनाक पागल है, जो अपने हिंसक इरादों को धार्मिक जस्टिफिकेशन देने की कोशिश कर रहा है.
अभिव्यक्ति की आज़ादी और पारदर्शिता एक तरफ और राष्ट्रीय सुरक्षा दूसरी तरफ — इस टकराव को संभालना हमेशा मुश्किल होता है, लेकिन अंत में, ज़्यादातर मामलों में पारदर्शिता का पक्ष लेना, दमन या सेंसरशिप का पक्ष लेने से बेहतर होता है.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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