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Tuesday, 18 November, 2025
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पंजाब यूनिवर्सिटी विवाद के पीछे क्या है? 143 साल पुरानी संस्था, जिसे आकार दिया बंटवारे और राजनीति ने

सेंटर ने यूनिवर्सिटी की दो बड़ी फैसले लेने वाली बॉडीज़ को चुनी हुई से नामित बॉडी बनाने की कोशिश की, जिससे कैंपस में पहले कभी न देखे गए छात्र प्रदर्शन शुरू हो गए.

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चंडीगढ़: यह भारत की सबसे पुरानी यूनिवर्सिटियों में से एक है, जिसकी बड़ी ऐतिहासिक विरासत है. ऐसे में जब सेंटर ने इसे “सेंट्रलाइज़” करने की कोशिश की, तो पंजाब चुप नहीं बैठने वाला था. पिछले हफ्ते सैकड़ों छात्र और आम लोग सड़क पर उतर आए. उनका संदेश साफ था—यह यूनिवर्सिटी पंजाब की ऐतिहासिक धरोहर है; इस रिश्ते को हिलाने की कोई भी कोशिश नामंजूर है.

नारे सिर्फ यूनिवर्सिटी को बचाने के लिए नहीं थे, बल्कि पंजाब की पहचान के लिए भी थे.

प्रदर्शनकारियों ने कहा: “मीट्ठी धुन रबाब दी; पंजाब यूनिवर्सिटी पंजाब दी, सूहा फूल गुलाब दा; चंडीगढ़ पंजाब दा.”

प्रदर्शन की जड़ें सेंटर के 28 अक्टूबर के उस फैसले में हैं, जिसमें यूनिवर्सिटी की दो फैसले लेने वाली बॉडी—सिंडिकेट और सीनेट—की संरचना को चुनी हुई से नामित प्रणाली में बदलने का प्रस्ताव रखा गया. कई प्रदर्शनकारियों का कहना था कि यह सेंटर की “छुपी हुई” कोशिश है, जो एक ऐसी संस्था को “केसरिया” रंग देने की कोशिश है, जिसे पंजाब के 18वीं सदी के रईसों के दान से बनाया गया था और बाद में जब यह लाहौर से चंडीगढ़ आई तो पंजाब के गांवों की ज़मीन पर बनाई गई.

छात्र परिषद के नए चुने गए उपाध्यक्ष अशमीत मान ने 10 नवंबर के प्रदर्शन से पहले छात्रों से कहा, “यह यूनिवर्सिटी पंजाब के 28 गांवों को उजाड़कर बनाई गई थी और हमें अपनी ज़मीन वापस लेने से कोई नहीं रोक सकता…सेंटर हमारी यूनिवर्सिटियां, हमारे पानी, हमारी खेती की ज़मीन छीनना चाहता है. हम ऐसा नहीं होने देंगे.”

आनंदपुर साहिब के आम आदमी पार्टी (आप) सांसद मलविंदर सिंह कांग, जिन्होंने अपनी राजनीति की शुरुआत पंजाब यूनिवर्सिटी छात्र परिषद के अध्यक्ष के रूप में की थी, सोमवार को प्रदर्शनकारियों में शामिल हुए. उन्होंने कहा, “बीजेपी-नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पंजाब सरकार से सलाह किए बिना यूनिवर्सिटी की लोकतांत्रिक संरचना कैसे बदल सकती है, जबकि मौजूदा सीनेट ढांचा पंजाब विधानसभा ने पंजाब यूनिवर्सिटी एक्ट, 1947 के तहत मंज़ूर किया था? यह सुधार नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर हमला है. पंजाब यूनिवर्सिटी पंजाब की बौद्धिक और भावनात्मक विरासत है, कोई राजनीतिक खेल का मैदान नहीं. इस कदम से पता चलता है कि बीजेपी का छिपा मकसद पंजाब की संस्थाएं और अधिकार छीनना है.”

पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस में धरना प्रदर्शन | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/chdlife
पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस में धरना प्रदर्शन | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/chdlife

143 साल पुरानी इस यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रों में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल हैं. यह यूनिवर्सिटी समय के साथ काफी बढ़ी है—1883 में केवल 464 छात्रों से आज दो लाख से ज़्यादा तक, जिनमें से 20,000 छात्र चंडीगढ़ कैंपस में पढ़ते हैं. पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के छात्रों की पसंदीदा यूनिवर्सिटी होने के साथ, इसके 200 से ज्यादा संबद्ध कॉलेज हैं. शुरुआत में यह यूनिवर्सिटी सिर्फ अरबी, संस्कृत, फारसी और पंजाबी भाषाओं के साथ इंडियन मेडिकल और एक बेसिक सिविल इंजीनियरिंग कोर्स पढ़ाती थी.

आज इसके संबद्ध कॉलेज और कैंपस के 75 विभाग भाषाओं, कला, विज्ञान, मेडिकल, डेंटिस्ट्री, मैनेजमेंट, कम्युनिकेशन, म्यूज़िक, इंजीनियरिंग, आर्किटेक्चर, फार्मेसी और लॉ जैसे शीर्ष कोर्स ऑफर करते हैं.

पंजाब यूनिवर्सिटी की स्थापना 1882 में अविभाजित भारत के लाहौर में हुई थी. यह ब्रिटिश भारत की चौथी यूनिवर्सिटी थी—कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास (1857) के बाद, लेकिन इसकी शुरुआत की कहानी बिल्कुल अलग थी.

A History of the Panjab University Chandigarh 1947-1967 लिखने वाले प्रो. आर.आर. सेठी और जे.एल. मेहता ने लिखा: “पंजाब यूनिवर्सिटी बाकी यूनिवर्सिटियों से अलग थी…जहां बाकी तीनों को सरकार ने स्थापित किया था, पंजाब यूनिवर्सिटी पंजाब के लोगों की पहल और मेहनत का नतीजा थी और इस नज़रिए से यह आधुनिक शिक्षा के इतिहास में एक राष्ट्रीय घटना कही जा सकती है.”

भारत के बंटवारे के बाद विभाजित होने वाली पंजाब यूनिवर्सिटी एकमात्र भारतीय यूनिवर्सिटी थी. चूंकि इसका मुख्य कैंपस पाकिस्तान में रह गया था, इसे भारत में पहले शिमला, फिर सोलन, फिर रोहतक और बाद में होशियारपुर से चलाया गया और 1958 में चंडीगढ़ में इसके मौजूदा कैंपस में शिफ्ट किया गया.

आज 550 एकड़ में फैला इसका कैंपस—जिसे स्विस वास्तुकार पियरे जेनेरेट ने स्विस-फ्रेंच वास्तुकार ली कॉर्बूज़िए की गाइडेंस में डिजाइन किया था—अपने लाल सैंडस्टोन के मॉडर्निज़्म स्टाइल के लिए जाना जाता है.

क्यों हुए प्रदर्शन

पूर्व चुने गए सीनेटर प्रभजीत सिंह, जो सोमवार को प्रदर्शन में शामिल हुए, ने कहा, “विभाजन के बाद यूनिवर्सिटी को ईंट-ईंट जोड़कर फिर से बनाया गया, क्योंकि जस्टिस तेजा सिंह जैसे लोगों ने हार नहीं मानी. जब कुछ नहीं था, तब यूनिवर्सिटी ने चलने के लिए पंजाबियों से चंदा मांगा. दान देने वालों के नाम पर मेडल और अवॉर्ड बनाए गए.”

प्रदर्शनकारी अपने प्लेकार्ड के साथ | इंस्टाग्राम/chdlife
प्रदर्शनकारी अपने प्लेकार्ड के साथ | इंस्टाग्राम/chdlife

प्रभजीत सिंह 91 सदस्यीय सीनेट के 47 लोकतांत्रिक रूप से चुने गए “फेलोज़” में शामिल थे. ये फेलोज़ “मतदाताओं” के ज़रिए चुने जाते हैं, जिनमें पंजाब यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट, टीचिंग स्टाफ, और पंजाब व चंडीगढ़ के संबद्ध कॉलेजों के प्रिंसिपल, प्रोफेसर और लेक्चरर शामिल होते हैं.

इनमें से 15 सदस्य यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट्स द्वारा चुने जाते हैं, जो सीनेट के वोटर के रूप में रजिस्टर्ड होते हैं. यह मतदाता सूची लाखों में होती है, क्योंकि हर साल नए ग्रेजुएट जुड़ते हैं और हर चार साल बाद सूची अपडेट होती है.

क्योंकि सबसे ज़्यादा ग्रेजुएट पंजाब में हैं और सभी संबद्ध कॉलेज पंजाब में हैं, इसलिए सीनेट के ज्यादातर चुने हुए सदस्य भी पंजाब से ही होते हैं.

15 सदस्यीय सिंडिकेट, जो छोटी बॉडी होती है, इन्हीं सीनेट सदस्यों में से चुनी जाती है.

2015 से सीनेट की संरचना “प्रशासनिक सुधारों” के नाम पर समीक्षा के तहत थी, जिसे यूनिवर्सिटी प्रशासन का एक हिस्सा आगे बढ़ा रहा था.

आखिरकार, 28 अक्टूबर को भारत सरकार ने संशोधित सीनेट और सिंडिकेट की अधिसूचना जारी कर दी—पूरी ग्रेजुएट मतदाता श्रेणी को खत्म करते हुए, चुने गए सदस्यों की संख्या कम कर दी और नए नामित सदस्य जोड़ दिए.

चूंकि, यह बदलाव पंजाब के हिस्सेदारी को कमज़ोर करता दिखा, इसलिए इसका विरोध शुरू हुआ और आखिरकार सेंटर को अपना फैसला वापस लेना पड़ा.

सीनियर एडवोकेट अनुपम गुप्ता, जो यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र भी हैं, ने दिप्रिंट को बताया, “भारत सरकार द्वारा सीनेट और सिंडिकेट का नया गठन और पंजाब को बाहर रखने की कोशिश के खिलाफ उठा अभूतपूर्व विरोध इस बात की याद दिलाता है कि यह यूनिवर्सिटी मूल रूप से पंजाब का संस्थान है.”

मुश्किलों से बनी यूनिवर्सिटी

पंजाब यूनिवर्सिटी हमेशा अपने से बड़े असर डालने वाली ताकतों से बनती रही है—ब्रिटिश शासन की नीतियां, आज़ादी की राजनीति, बंटवारा, राज्यों का पुनर्गठन, और क्षेत्रीय सामाजिक आंदोलन.

पंजाब यूनिवर्सिटी की शुरुआत ब्रिटिश भारत में आधुनिक, पाश्चात्य शैली की उच्च शिक्षा के विस्तार से जुड़ी है. यह विस्तार ब्रिटिश अधिकारी सर चार्ल्स वुड के 1854 के डिस्पैच से शुरू हुआ था, जिन्हें भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का ‘मैग्ना कार्टा’ भी कहा जाता है. इसके बाद भी कई औपनिवेशिक शैक्षिक सुधार हुए.

अपने मशहूर काम History of the University of the Panjab में, जे.एफ. ब्रुस जो कभी पंजाब यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रमुख रहे—1840 के दशक से 1932 तक की परिस्थितियों को स्टडी करते हैं. वे बताते हैं कि शुरुआत में लक्ष्य एक ऐसी यूनिवर्सिटी बनाना था जो लंदन यूनिवर्सिटी की तर्ज पर परीक्षा ले. यानी मैट्रिक से लेकर डिग्री तक की परीक्षाएं और पंजाब के कई कस्बों व जिलों में फैले कॉलेजों का एक नेटवर्क.

पंजाब यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रमुख, डॉ. जसबीर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि यूनिवर्सिटी बनने की नींव कई शिक्षाविदों और सुधारकों ने रखी थी इसके औपचारिक गठन से पहले ही.

इनमें सबसे प्रमुख थे गॉटलिब विल्हेम लाइटनर, जो हंगरी में जन्मे एक विद्वान और कई भाषाओं के जानकार थे. उन्हें 1863 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर का पहला प्रिंसिपल बनाया गया था. यह कॉलेज छात्रों को एफए और बीए परीक्षाओं के लिए तैयार करता था, जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी आयोजित करती थी—उसी से पंजाब और दिल्ली के कॉलेज जुड़े थे.

लेकिन ब्रुस के अनुसार, लाइटनर सरकारी कॉलेज चलाने से ज्यादा अपने पर्सनल प्रोजेक्ट्स में रुचि रखते थे. उन्होंने 1865 में अंजुमन-ए-पंजाब नाम की एक सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्था बनाई, जिसका उद्देश्य था आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देना, लेकिन स्थानीय भाषाओं और परंपराओं का सम्मान करते हुए.

लाइटनर के ओरिएंटल (पूर्वी) शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयासों को “स्थानीय रईसों” से समर्थन मिला. ब्रुस बताते हैं कि इन रईसों ने एक यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए लगभग दो लाख रुपये का योगदान दिया.

ब्रिटिश सरकार ने दिसंबर 1869 में सिर्फ एक “यूनिवर्सिटी कॉलेज” बनाने की मंजूरी दी—जो प्रमाणपत्र तो दे सकता था, पर डिग्री नहीं. यह वादा किया गया कि आगे जाकर इसे यूनिवर्सिटी बनाया जाएगा.

इस कॉलेज की संचालन निकाय सीनेट थी और लाइटनर इसके पहले मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने. 1870 में सीनेट की पहली बैठक में इसके कार्यकारी दल—सिंडिकेट—का गठन हुआ.

ब्रिटिश सरकार की तरफ से मुश्किल से ही कोई ग्रांट मिलता था, इसलिए यह यूनिवर्सिटी कॉलेज और बाद में 1882 में पंजाब यूनिवर्सिटी बनने के बाद भी—मुख्य रूप से “स्थानीय रईसों” की देन से चलती रह. इनमें जम्मू–कश्मीर, कपूरथला और पटियाला के महाराजा, साथ ही जिंद, नाभा, मलेरकोटला, बहावलपुर, मंडी और फरीदकोट के राजघराने शामिल थे.

पहले कदम

रंग-बिरंगे नारे, जो प्रदर्शनकारियों ने लगाए | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/@chdlife
रंग-बिरंगे नारे, जो प्रदर्शनकारियों ने लगाए | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/@chdlife

“यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब”, जैसा इसे शुरुआत में कहा जाता था, 1882 के एक एक्ट के तहत बनाई गई थी. इसके पहले मानद वाइस चांसलर ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी सर जेम्स ब्रॉडवुड लायल थे और लाइटनर पहले रजिस्ट्रार थे.

नई बनी यूनिवर्सिटी का परीक्षा और संबद्धता क्षेत्र बहुत बड़ा था—आज के पाकिस्तान, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली तक फैला हुआ. दिल्ली का सेंट स्टीफन्स कॉलेज, जो 1882 में बना था, पंजाब यूनिवर्सिटी से संबद्ध था और 1922 में इसका एफिलिएशन दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिफ्ट हुआ.

1933 तक यूनिवर्सिटी से जुड़े कॉलेजों में शामिल थे—खालसा कॉलेज अमृतसर; रंधीर कॉलेज कपूरथला; हिन्दू कॉलेज दिल्ली; लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज दिल्ली; श्री प्रताप कॉलेज श्रीनगर; बिशप कॉलेज स्कूल और इंटरमीडियट कॉलेज शिमला; लॉरेंस रॉयल मिलिट्री स्कूल और इंटरमीडियट कॉलेज सनावर. पंजाब और हरियाणा के कई सरकारी कॉलेज भी पंजाब यूनिवर्सिटी से संबद्ध थे.

ब्रिटिश सिविल सेवक बैडन पॉवेल और सर चार्ल्स आर्थर रो इसके वीसी रहे. भारतीय विद्वान सर पी.सी. चटर्जी पहले भारतीय वी-सी बने. यूनिवर्सिटी ने लॉर्ड रिपन (भारत के गवर्नर जनरल), समाज सुधारक रामकृष्ण भांडारकर, समाजसेवी सुंदर लाल मजीठिया और पूर्व-विभाजन पंजाब के पहले मुख्यमंत्री सर सिकंदर हयात खान को डॉक्टर ऑफ ओरिएंटल लर्निंग की उपाधि दी.

1912 में लाहौर में खगोलीय वेधशाला बनाई गई, जिससे यूनिवर्सिटी में विज्ञान पढ़ाई और रिसर्च को बड़ा बढ़ावा मिला.

विभाजित यूनिवर्सिटी

सेठी और मेहता लिखते हैं कि जैसे ही भारत के बंटवारे की योजना घोषित हुई, पंजाब यूनिवर्सिटी की सिंडिकेट ने जून 1947 में अपनी पार्टिशन कमेटी बनाई. इसमें तब के वाइस-चांसलर सी.एच. राइस और जाने-माने शिक्षा विशेषज्ञ—जी.सी. चटर्जी, देव आनंद कुमार, जस्टिस मेहर चंद महाजन, प्रो. डी.सी. शर्मा, और जस्टिस तेजा सिंह आदि शामिल थे.

पार्टिशन के बाद, ईस्ट पंजाब सरकार ने ईस्ट पंजाब यूनिवर्सिटी बनाने के लिए एक ऑर्डिनेंस जारी किया, जो बाद में पंजाब यूनिवर्सिटी बनी. यह ऑर्डिनेंस आगे चलकर 1947 का ईस्ट पंजाब यूनिवर्सिटी एक्ट बन गया.

यूनिवर्सिटी का अस्थायी दफ्तर पहले शिमला में आर्मी के जनरल हेडक्वॉर्टर्स की प्रेस बिल्डिंग में लगा. अगले साल, कई दफ्तर सोलन कैंटोनमेंट के बैरकों में शिफ्ट कर दिए गए. यूनिवर्सिटी के विभागों को पंजाब, दिल्ली और हरियाणा के मौजूदा कॉलेजों से अस्थायी रूप से चलाने को कहा गया.

इस दौरान, स्कूलों और कॉलेजों के पूरे टीचिंग स्टाफ को पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के पुनर्वास में लगाया गया, इसलिए यूनिवर्सिटी और कॉलेज मार्च 1948 तक बंद रहे.

सरदार वल्लभभाई पटेल ने मार्च 1949 में अंबाला में यूनिवर्सिटी के पहले दीक्षांत समारोह को संबोधित किया.

1953 में, सेठी और मेहता लिखते हैं, यूनिवर्सिटी की सिंडिकेट ने पंजाब सरकार के इस सुझाव को स्वीकार किया कि यूनिवर्सिटी को जल्द से जल्द चंडीगढ़ शिफ्ट कर देना चाहिए.

1954 में यूनिवर्सिटी को सेक्टर 14 में 306 एकड़ जमीन मिली, जिसकी कीमत 3.06 लाख रुपये थी. 1955 में निर्माण शुरू हुआ और 1958-1960 के बीच यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ कैंपस में शिफ्ट हुई. आज का कैंपस सेक्टर 14 और 25 में 550 एकड़ में फैला है.

सेठी और मेहता ने लिखा कि पंजाब यूनिवर्सिटी ने दिल्ली में एक कैंप कॉलेज शुरू किया था, ताकि पाकिस्तान से आए हुए परिवारों और पार्टिशन के कारण जिनकी पढ़ाई रुक गई थी, उन्हें शिक्षा मिल सके.

बाद में यह कॉलेज दयानंद सिंह कॉलेज ट्रस्ट को सौंप दिया गया. ऐसे ही शाम के कॉलेज चंडीगढ़, जालंधर, रोहतक और शिमला में भी शुरू हुए.

सेठी और मेहता लिखते हैं कि यह कैंप कॉलेज सही मायनों में “पंजाब यूनिवर्सिटी के ईवनिंग कॉलेजों का मशाल-वाहक” और भारत में ऐसी संस्थाओं का “आदर्श और अग्रदूत” कहा जा सकता है.

पुनर्गठन की चुनौती

प्रदर्शनकारियों की मांगों को दिखाते हुए होर्डिंग्स | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/chdlife
प्रदर्शनकारियों की मांगों को दिखाते हुए होर्डिंग्स | क्रेडिट: इंस्टाग्राम/chdlife

यूनिवर्सिटी के स्वभाव के लिए अगली बड़ी चुनौती 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के समय आई, जब संयुक्त पंजाब का दो राज्यों—पंजाब और हरियाणा में बंटवारा हुआ. एक स्टेट यूनिवर्सिटी से यह संसद द्वारा पास किए गए पंजाब रीऑर्गनाइजेशन एक्ट, 1966 के तहत एक “इंटर-स्टेट बॉडी कॉर्पोरेट” बन गई, लेकिन यह पूरी तरह सेंट्रल यूनिवर्सिटी नहीं है.

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में भारत के राष्ट्रपति ex officio “Visitor” होते हैं, जबकि पंजाब यूनिवर्सिटी में भारत के उपराष्ट्रपति, जो राज्यसभा के चेयरमैन होते हैं, ex officio चांसलर हैं.

1966 के बाद कई सालों तक हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कॉलेज यूनिवर्सिटी से संबद्ध रहे, लेकिन वक्त के साथ इसका दायरा केवल पंजाब तक सीमित हो गया.

हरियाणा ने 1975-76 में एकतरफा फैसला लेकर अपने कॉलेजों को पंजाब यूनिवर्सिटी से हटा लिया और वित्तीय सहायता भी बंद कर दी. माना जाता है कि उस वक्त के हरियाणा सीएम बंसी लाल नाराज़ हो गए थे क्योंकि एक कार्यक्रम में उन्हें दर्शकों के बीच बैठने को कहा गया, जबकि पंजाब के सीएम मंच पर थे.

2018 में, हरियाणा ने फिर से दावा जताया. उस वक्त के सीएम मनोहर लाल खट्टर ने केंद्रीय गृह मंत्री को पत्र लिखकर पंजाब यूनिवर्सिटी को ग्रांट देने की पेशकश की. बदले में, हरियाणा के कुछ जिलों के कॉलेजों को फिर से पीयू से जोड़ने की मांग की.

इस कदम का विरोध उस समय के पंजाब सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किया और कहा कि हरियाणा को पंजाब यूनिवर्सिटी में “हस्तक्षेप” नहीं करने दिया जाएगा.

अगस्त 2022 में, हरियाणा विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास कर सरकार से पंजाब यूनिवर्सिटी में हिस्सा मांगने को कहा. जून 2023 में हरियाणा ने फिर दावा किया.

हिमाचल और हरियाणा के पीछे हटने के बाद, यूनिवर्सिटी के रख-रखाव का खर्च 60:40 के अनुपात में केंद्र और राज्य को बांटना था, लेकिन समय के साथ पंजाब की अपनी आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण पंजाब का हिस्सा घटकर लगभग 20% रह गया.

राज्य बीजेपी के उपाध्यक्ष डॉ. सुभाष शर्मा ने दिप्रिंट से कहा कि अगर यूनिवर्सिटी पंजाब के लिए इतनी प्रिय है, तो पंजाब को इसकी फंडिंग का भी ध्यान रखना चाहिए.

उन्होंने कहा, “2014 से अब तक केंद्र ने 3,229 करोड़ रुपये की ग्रांट दी है, जबकि पंजाब सरकार ने सिर्फ 538 करोड़ रुपये दिए हैं. केंद्र अभी भी अपनी पूरी 60% हिस्सेदारी दे रहा है, लेकिन पंजाब सरकार 40% की जगह सिर्फ 20% दे रही है.”

शर्मा ने कहा कि फिलहाल पंजाब सरकार के 250 करोड़ रुपये बकाया हैं, जिनमें पेंशन, हॉस्टल खर्च और छात्रवृत्ति ग्रांट शामिल हैं.

भविष्य की उम्मीद

जसबीर सिंह ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद के दशकों में यूनिवर्सिटी ने कई विभागों, पेशेवर स्कूलों और क्षेत्रीय केंद्रों का विस्तार करते हुए काफी विकास किया.

उन्होंने कहा, “इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज आगे बढ़े; कला, मानविकी और सामाजिक विज्ञान के विभाग बढ़े और संबद्ध कॉलेजों का नेटवर्क बढ़ाकर उच्च शिक्षा तक पहुंच को मजबूत किया गया.”

उन्होंने कहा कि यूनिवर्सिटी ने पोस्टग्रेजुएट रिसर्च डिग्रियों को और व्यवस्थित किया और लाइब्रेरी, लैब और आर्काइव संग्रहों में निवेश किया.

समय के साथ, पीयू ने क्षेत्रीय केंद्र और ऑफ-कैंपस केंद्र बनाए, ताकि ग्रामीण और अर्ध-शहरी छात्रों तक पहुंच बनाई जा सके—इस तरह यह एक पब्लिक यूनिवर्सिटी होने की भूमिका और मजबूत करती है.

यूनिवर्सिटी के पास इस समय 202 संबद्ध और 6 कॉन्स्टिट्यूएंट कॉलेज हैं, पंजाब और चंडीगढ़ में. इसके अलावा मुक्तसर, लुधियाना, होशियारपुर और कौनी में चार क्षेत्रीय केंद्र हैं. होशियारपुर में संस्कृत और इंडोलॉजिकल स्टडीज का इंस्टीट्यूट भी है.

यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रों में कई महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं—जैसे पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, एयरो-स्पेस इंजीनियर कल्पना चावला, और नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोविंद खुराना.

इसके अलावा, यूनिवर्सिटी ने कई प्रमुख वैज्ञानिक, लेखक, न्यायाधीश, नौकरशाह, खिलाड़ी, अर्थशास्त्री, शिक्षक, पत्रकार, अभिनेता और गायक भी दिए हैं.

यूनिवर्सिटी के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर विनीत पुणिया ने दिप्रिंट को बताया कि टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2025 में यूनिवर्सिटी 601–800 रैंक में पहुंच गई है, जो 2023 की 801–1,000 रैंकिंग से ऊपर है. वहीं, QS 2025 में यह 1001–1200 रेंज से बढ़कर QS 2026 में 901–950 बैंड में आ गई है.

सीनियर एडवोकेट अनुपम गुप्ता ने कहा, “पिछले हफ्ते के प्रदर्शन छात्र राजनीति के बौद्धिक माहौल में एक सकारात्मक बदलाव है. पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र अब सिर्फ अपने मुद्दों तक सीमित नहीं हैं. पहली बार, पंजाब का सिविल सोसायटी और कैंपस के छात्र एक साझा संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी का वर्तमान और भविष्य इसी संबंध के बने रहने पर निर्भर करता है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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