नई दिल्ली: नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) बिहार में बड़ी जीत की ओर बढ़ रहा है. इसने विपक्षी महागठबंधन को पीछे छोड़ते हुए नीतीश कुमार को लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने का बड़ा दावेदार बना दिया है. पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति उनके नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही है.
भारतीय चुनाव आयोग के शुरुआती नतीजे साफ रुझान दिखाते हैं. जदयू और बीजेपी के मजबूत प्रदर्शन की वजह से एनडीए बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से ज्यादातर पर बढ़त बनाए हुए है.
चुनाव आयोग (ईसीआई) के मुताबिक, दोपहर 1.45 बजे तक जदयू 80 सीटों पर आगे था, जो नीतीश कुमार की सरकार के प्रति मतदाताओं के मजबूत समर्थन को दिखाता है. बीजेपी 91 सीटों पर और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) 22 सीटों पर आगे थी.
रुझानों ने महागठबंधन जिसमें राजद, कांग्रेस, वाम दल और विकासशील इंसान पार्टी शामिल हैं, की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इससे पहले विवादित विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर विपक्ष ने खूब हंगामा किया था और मतदाता सूची में गड़बड़ी का आरोप लगाया था.
आयोग के मुताबिक, नतीजों से साफ हो रहा है कि लालू प्रसाद यादव के शासनकाल के दौरान की कानून-व्यवस्था और कुप्रशासन की छवि आज भी राजद के लिए बड़ी समस्या है. राजद, जो महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है और तेजस्वी यादव को सीएम फेस बनाकर उतरी थी, 1.45 बजे तक सिर्फ 26 सीटों पर आगे थी.
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, जिसे बिहार की राजनीति में तीसरी ताकत माना जा रहा था, भी कोई कमाल नहीं कर पाई. ये पार्टी शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में चर्चा का विषय तो बनी, लेकिन चुनाव बेहद दोतरफा हो गया, जिसमें किसी नए खिलाड़ी के लिए जगह नहीं बची. उम्मीदों के बावजूद जेएसपी एक भी सीट नहीं जीत सकी.
इधर, बिहार की खराब आर्थिक हालत बड़ी संख्या में युवाओं को रोज़गार की तलाश में राज्य से बाहर जाने पर मजबूर करती रहती है.
राजद के लिए अब फिर से रणनीति बनाने का समय है. नतीजे दिखाते हैं कि पार्टी अपने पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैंक से बाहर निकलने की कोशिश में अभी भी सफल नहीं हुई है. तेजस्वी यादव ने विकास का नया, आधुनिक विज़न पेश किया था. उन्होंने गैर-यादव ओबीसी और ईबीसी वोटरों तक पहुंच भी बनाई.
तेजस्वी ने बड़े-बड़े वादे किए, जैसे हर परिवार को सरकारी नौकरी का भरोसा. लेकिन ज़्यादातर वोटरों ने अनुभवी नीतीश कुमार पर ही भरोसा जताया.
नीतीश का चुनाव से ठीक पहले एक करोड़ से ज़्यादा महिलाओं को 10,000 रुपये देना भी शायद उनके पक्ष में गया. आगे और लाभ देने के वादे ने भी असर दिखाया होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने भी नीतीश को फायदा दिया. इससे उनके विकास मॉडल की खामियां और सालों से बने सामाजिक समीकरणों की कमजोरियां ढक गईं और एनडीए की बढ़त कायम रही.
INDIA गठबंधन की कोशिशें भी नाकाम रहीं. छोटी जातियों—जैसे मल्लाह, साहनी, निषाद, तांती को लुभाने की कवायद मतदाताओं को चुनावी चाल जैसी लगी.
बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए की बड़ी बढ़त ने पार्टी की उत्तरी भारत में पकड़ और मजबूत कर दी है.
विपक्ष, जिसकी उम्मीदें थीं कि वो हिंदी बेल्ट में अपनी कम होती मौजूदगी को वापस बढ़ाएगा, कहीं भी उभरता नहीं दिख रहा. अब इस क्षेत्र में कांग्रेस सिर्फ हिमाचल प्रदेश, झारखंड और पंजाब को ही संभाले हुए है, जबकि यही इलाका दक्षिण भारत से ज्यादा लोकसभा सांसद भेजता है.
2024 लोकसभा चुनावों में सीटें लगभग दोगुनी करने के बाद कांग्रेस को लगा था कि उसके बुरे दिन खत्म हो रहे हैं. लेकिन उसके बाद से वह लगातार हार झेल रही है. 1.45 बजे तक कांग्रेस सिर्फ चार सीटों पर आगे थी, ECI के मुताबिक.
बीजेपी इस हार का इस्तेमाल राहुल गांधी के “वोट चोरी” आंदोलन को कमज़ोर करने में कर सकती है, और बिहार जनादेश को जनता की राय का पैमाना बता सकती है.
राहुल ने SIR और “वोट चोरी”—मतदाता सूची में कथित हेराफेरी को विपक्षी कैंपेन का केंद्र बना दिया था. वे खुद बिहार में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकालकर लोगों को जागरूक करने उतरे थे. लेकिन कांग्रेस और राजद के कई नेताओं को यह मुद्दा मतदाताओं को नहीं भाया.
2024 चुनावों के बाद से हुए नौ विधानसभा चुनावों में से कांग्रेस सात हार चुकी है. हरियाणा और महाराष्ट्र में वह बीजेपी से सीधे मुकाबले में हार गई. आंध्र प्रदेश, ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्यों में भी उसका प्रदर्शन कमजोर रहा.
केवल झारखंड और जम्मू-कश्मीर में INDIA गठबंधन को कुछ जीत मिली है—वह भी झामुमो और नेशनल कॉन्फ्रेंस की वजह से, जिनमें कांग्रेस ने बस थोड़ी मदद की.
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