नई दिल्ली: मजिस्ट्रेट को जांच के निर्देश देने संबंधी अधिकारों की दोबारा समीक्षा करते हुए दिल्ली की एक सेशन्स कोर्ट ने अप्रैल का वह आदेश रद्द कर दिया है जिसमें दिल्ली पुलिस को 2020 की उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में भाजपा नेता कपिल मिश्रा की कथित भूमिका की जांच करने को कहा गया था.
सोमवार को राऊज़ एवेन्यू कोर्ट के विशेष न्यायाधीश (पीसी एक्ट) दिग विनय सिंह ने एसीजेएम वैभव चौरसिया के आदेश को “मूल रूप से त्रुटिपूर्ण, अवैध और अनुचित” बताते हुए खारिज कर दिया.
कोर्ट ने अपने 36 पेज के फैसले में कहा, “विवादित आदेश में गंभीर अधिकार क्षेत्र संबंधी गलती दिखती है जो आदेश को अवैध और अस्थिर बनाती है. यह अवैध, अनुचित और गलत है, क्योंकि यह अधिकार क्षेत्र से बाहर जाता है और न्यायिक अतिरेक का मामला है.” मिश्रा, जो दिल्ली के कला, संस्कृति और भाषा मंत्री हैं, कानून व न्याय, श्रम, रोजगार, विकास और पर्यटन सहित अतिरिक्त विभाग संभालते हैं.
23 फरवरी 2020 को मिश्रा, जो उस समय दिल्ली के विधायक थे, जाफराबाद प्रदर्शन स्थल के पास दिखाई दिए थे. उन्होंने सार्वजनिक बयान देकर सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को हटाने की मांग की थी. शिकायतकर्ता मोहम्मद इलियास ने आरोप लगाया कि मिश्रा अपने साथियों के साथ कर्दमपुरी में सड़क जाम कर रहे थे और ठेलों को नुकसान पहुंचा रहे थे, जबकि तत्कालीन डीसीपी (नॉर्थईस्ट) वेद प्रकाश सूर्या मौजूद थे और प्रदर्शनकारियों को चेतावनी दे रहे थे कि हटो वरना “अंजाम भुगतोगे”.
मिश्रा ने इन आरोपों को नकारा है. दिल्ली पुलिस ने कहा कि 44 वर्षीय नेता का दंगों से कोई लेना-देना नहीं है और उन्हें “साजिश” के तहत फंसाया जा रहा है.
मजिस्ट्रेट का 1 अप्रैल का आदेश
इलियास ने पहले दंड प्रक्रिया संहिता (पुरानी CrPC) की धारा 156(3) के तहत अर्जी दायर की थी, जिसके तहत मजिस्ट्रेट पुलिस को एफआईआर दर्ज कर जांच का निर्देश दे सकता है. 1 जुलाई 2024 से भारतीय न्याय संहिता (BNSS) लागू होने के बाद उन्होंने इसे धारा 175(3) के तहत दोबारा दाखिल किया.
अप्रैल में मजिस्ट्रेट ने “अतिरिक्त जांच” के आदेश दिए थे और दिल्ली पुलिस की उस बड़ी साजिश थ्योरी की आलोचना की थी जिसमें दंगों के लिए सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को जिम्मेदार बताया गया था.
उन्होंने कहा था कि पुलिस की कहानी “अनुमान और व्याख्या” पर आधारित है. उन्होंने मिश्रा की पूछताछ में विरोधाभास भी बताया था और डीसीपी सूर्या से पूछताछ कराने को कहा था.
मिश्रा और दिल्ली पुलिस, दोनों ने इस आदेश को चुनौती दी और कहा कि मजिस्ट्रेट अधिकार से बाहर चले गए क्योंकि यूएपीए की बड़ी साजिश वाली केस पहले से विशेष अदालत में चल रही है. सेशन्स कोर्ट ने 9 अप्रैल को आदेश पर रोक लगा दी थी और अब इसे पूरी तरह रद्द कर दिया है.
न्यायिक अतिरेक
जज सिंह ने कहा कि जब मौजूदा एफआईआर ट्रायल में थी, तब मजिस्ट्रेट अतिरिक्त जांच के आदेश नहीं दे सकते थे. कोर्ट ने कहा, “एसीजेएम ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि एफआईआर नंबर 59/2020 में अंतिम रिपोर्ट दाखिल होने के बाद मुकदमा ट्रायल में है. BNSS की धारा 193(9) के तहत, संज्ञान लिए जाने के बाद अतिरिक्त जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता.”
कोर्ट ने कहा कि यदि मजिस्ट्रेट को लगा कि मिश्रा से जुड़ी “पहली घटना” एफआईआर में शामिल नहीं थी, तो उन्हें नया एफआईआर दर्ज कराने का निर्देश देना चाहिए था, न कि अतिरिक्त जांच का. “न्यायिक आदेश, खासकर वे जो किसी की स्वतंत्रता को प्रभावित करते हैं, स्पष्ट होने चाहिए. अगर मजिस्ट्रेट को लगता था कि घटना की जांच नहीं हुई, तो उन्हें साफ तौर पर नया एफआईआर दर्ज कराने को कहना चाहिए था.”
कौन-सा अपराध संज्ञेय माना जाता है
सेशन्स कोर्ट ने यह भी जांचा कि क्या शिकायत में कोई संज्ञेय अपराध दिखाई देता है. भारतीय कानून में संज्ञेय अपराध वह है जिसमें पुलिस बिना वारंट के एफआईआर दर्ज कर सकती है और गिरफ्तारी कर सकती है, जैसे हत्या या दंगा. “शरारत” (मिसचीफ) संज्ञेय नहीं होती, जब तक कि यह पांच या अधिक लोगों द्वारा किसी अवैध उद्देश्य से न की गई हो.
यहां शिकायत में न तो मिश्रा के साथियों की संख्या बताई गई थी और न ही किसी हिंसा का उल्लेख था, सिर्फ यह कहा गया कि रेहड़ियों को नुकसान हुआ. मजिस्ट्रेट ने यह मान लिया कि पाँच से अधिक लोग मौजूद थे, वह भी मिश्रा की एक अन्य केस में हुई पूछताछ के आधार पर.
कोर्ट ने कहा, “संज्ञेय अपराध मानने के लिए एसीजेएम ने कपिल मिश्रा के बयान से अनुमान और तुलना का सहारा लिया… शिकायत में कहीं भी स्पष्ट रूप से हिंसा का जिक्र नहीं है.” अदालत ने इस रवैये को कानूनी रूप से “अस्थिर” बताया.
डीसीपी की भूमिका और सरकारी कर्मचारी को सुरक्षा
कोर्ट ने डीसीपी सूर्या से पूछताछ कराने के मजिस्ट्रेट के निर्देश पर भी आपत्ति जताई, यह कहते हुए कि आरोप “सरकारी कर्तव्यों के निर्वहन” से जुड़े थे.
BNSS की धारा 175(4) के अनुसार, जब शिकायत किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ हो और वह कथित काम सरकारी दायित्वों के तहत किया गया हो, तो मजिस्ट्रेट को किसी भी जांच से पहले एक वरिष्ठ अधिकारी की रिपोर्ट लेनी होती है और संबंधित सरकारी कर्मचारी का पक्ष भी सुनना होता है.
जज ने कहा, “किसी भी जांच से पहले वरिष्ठ अधिकारी की रिपोर्ट लेना और सरकारी कर्मचारी को सुनना आवश्यक था. यह नहीं किया गया.”
कोर्ट ने यह भी कहा कि भले ही नया एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया जाता, तब भी इस प्रावधान का पालन न होने के कारण वह कानूनी रूप से टिक नहीं पाता.
मजिस्ट्रेट की टिप्पणियों पर कड़ी आलोचना
सेशन्स कोर्ट ने मजिस्ट्रेट की उन टिप्पणियों पर भी आपत्ति जताई जिन्हें उसने “अनुचित, अनुमान आधारित और पक्षपातपूर्ण” बताया. ये टिप्पणियां उस बड़ी साजिश वाले केस को लेकर थीं जो पहले से ही उच्च अदालत में विचाराधीन है. जज सिंह ने कहा, “पहली घटना में संज्ञेय अपराध है या नहीं, इस पर ध्यान देने के बजाय एसीजेएम ने ट्रायल जैसे अनुमान लगाते हुए विचाराधीन मामले पर टिप्पणी की.”
कोर्ट ने चेतावनी दी कि ऐसी टिप्पणियां किसी चल रहे केस के गुण-दोष पर पहले ही राय बनाने का खतरा पैदा करती हैं.
कोर्ट ने निष्कर्ष दिया कि विवादित आदेश “किसी भी दृष्टिकोण से” टिकाऊ नहीं है. सेशन्स कोर्ट ने कहा, “विवादित आदेश अधिकार क्षेत्र के हिसाब से त्रुटिपूर्ण और कानूनी रूप से अस्थिर है… इसे उस हिस्से में रद्द किया जाता है जिसमें आवेदन के पैरा 2 में बताए गए ‘पहली घटना’ की आगे जांच के निर्देश दिए गए थे.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: लाल किला धमाके वाली जगह पर कोई छर्रे या बैलिस्टिक सामग्री नहीं मिली: शुरुआती जांच
