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Friday, 7 November, 2025
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सुप्रीम कोर्ट का गिरफ़्तारी का आधार बताने वाला आदेश व्यक्तिगत आज़ादी की रक्षा कैसे करता है

सुप्रीम कोर्ट की दो-जजों वाली पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार जरूर बताए जाने चाहिए, बेहतर होगा कि लिखित रूप में हों और ऐसी भाषा में हों जिसे आरोपी समझ सके.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण को बड़े स्तर पर बढ़ाते हुए कहा कि किसी भी अपराध में गिरफ्तारी के समय आरोपी को गिरफ्तारी के आधार बताना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है. ये अपराध चोरी से लेकर बलात्कार और हत्या तक हो सकते हैं.

52 पन्नों के फैसले में दो-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार बताना संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत अनिवार्य है और इसे ऐसे तरीके से बताया जाना चाहिए कि “संवैधानिक सुरक्षा” का उद्देश्य पूरा हो सके.

अनुच्छेद 22(1) कहता है कि जिसे भी गिरफ्तार किया गया है, उसे “यथाशीघ्र” गिरफ्तारी के आधार बताए बिना हिरासत में नहीं रखा जाएगा.

“…अगर किसी व्यक्ति को यथाशीघ्र उसकी गिरफ्तारी के आधार नहीं बताए जाते, तो यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा, जिससे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर आंच आएगी और गिरफ्तारी अवैध मानी जाएगी,” फैसले में कहा गया.

अनुच्छेद 22(1) के अलावा, चीफ जस्टिस और जस्टिस ऑगस्टिन मसीह की बेंच ने अपने फैसले में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 50 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 47 का भी उल्लेख किया. ये धाराएं गिरफ्तारी के आधार जल्द बताने की आवश्यकता को मजबूत करती हैं.

पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 50A, अब BNSS की धारा 48, इसलिए जोड़ी गई थी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि गिरफ्तारी के आधार मित्र, रिश्तेदार या किसी अन्य व्यक्ति को भी बताए जाएं.

अधिमानतः लिखित, और ऐसी भाषा में जिसे आरोपी समझ सके

पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में दिए जाने चाहिए, लेकिन अगर परिस्थितियां लिखित रूप से बताने की इजाजत न दें, तो शुरुआत में उन्हें मौखिक रूप से भी बताया जा सकता है.

उदाहरण के तौर पर, अगर कोई पुलिसकर्मी किसी हत्या को अपनी आंखों से देख रहा है, तो गिरफ्तारी से पहले लिखित आधार देना संभव नहीं होगा. ऐसे मामलों में लिखित आधार पर “कड़ाई से जोर देना” पुलिस के काम में बाधा डाल सकता है, पीठ ने कहा.

लेकिन अदालत ने एक समयसीमा भी तय की.

अगर गिरफ्तारी के आधार शुरू में मौखिक बताए जाते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें “उचित समय” के भीतर और किसी भी हाल में आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से कम से कम दो घंटे पहले लिखित रूप में देना अनिवार्य है. अनुच्छेद 22(2) के अनुसार, गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है.

पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार बताने का उद्देश्य आरोपी को अपनी रक्षा की तैयारी करने का मौका देना है. “इससे कम समय इस तैयारी को अर्थहीन बना सकता है,” अदालत ने कहा.

2023 के पंकज बंसल (PMLA) और 2024 के प्रभीर पुरकायस्थ (UAPA) मामलों में दिए फैसलों का हवाला देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में और ऐसी भाषा में देने होंगे जिसे आरोपी समझ सके.

निर्धारित तरीके से गिरफ्तारी के आधार न देने पर गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड अवैध मानी जाएगी और आरोपी को रिहा करने का हक मिलेगा.

लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि अगर आधार दे दिए जाते हैं, तो अभियोजन मजिस्ट्रेट के सामने रिमांड के लिए आवेदन देकर हिरासत की आवश्यकता बता सकता है.

यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया जो राजनेता के बेटे मिहिर राजेश शाह ने दायर की थी. उन पर आरोप है कि उन्होंने पिछले साल मुंबई में अपनी BMW से एक महिला को कुचल दिया था. बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा नवंबर 2024 में उनकी जमानत याचिका खारिज किए जाने के बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.

शाह की याचिका में कहा गया था कि उन्हें कभी गिरफ्तारी के आधार नहीं बताए गए. सुप्रीम कोर्ट ने याचिका तो खारिज कर दी, लेकिन अनुच्छेद 22(1) से जुड़े व्यापक सवाल को स्पष्ट करने के लिए इस मामले को लिया.

“अगर अनुच्छेद 22(1) के प्रावधानों को संकीर्ण रूप में पढ़ा जाए, तो इसका उद्देश्य—व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा—पूरा नहीं होगा बल्कि सीमित हो जाएगा,” फैसले में कहा गया.

‘अहम रीसेट’

एडवोकेट निखिल जैन, जिन्होंने शाह की ओर से पैरवी की, ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भारत में गिरफ्तारी प्रक्रिया के लिए एक “महत्वपूर्ण रीसेट” बताया.

“गिरफ्तारी के आधार लिखित रूप में और आरोपी द्वारा समझी जाने वाली भाषा में प्राप्त करने का अधिकार सीधे अनुच्छेद 22(1) से आता है. यह सिर्फ तकनीकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह हर गिरफ्तारी पर लागू होता है, चाहे वह BNS के तहत हो या किसी विशेष कानून के तहत. लिखित आधार न देना अब अनुच्छेद 22(1) का स्पष्ट संवैधानिक उल्लंघन है,” जैन ने दिप्रिंट से कहा.

उन्होंने समझाया कि व्यवहार में यह आवश्यकता मुख्य रूप से PMLA या अन्य विशेष कानूनों के तहत होने वाली गिरफ्तारियों तक ही सीमित थी.

“आर्थिक अपराधों में, अभियोजन का आधार दस्तावेजी साक्ष्य होते हैं. ED अब केवल मौखिक खुलासे पर भरोसा नहीं कर सकती और गिरफ्तारी के समय ही लिखित आधार मौजूद होना आवश्यक है,” जैन ने कहा.

एडवोकेट ने यह भी कहा कि अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी असंवैधानिक पाए जाने के कारण रिहा कर दिया जाता है, तो “अभियोजन स्थायी रूप से पंगु नहीं हो जाता”.

“(अधिकारियां) उचित लिखित आधार प्रदान करके और आवश्यकता दिखाकर दोबारा हिरासत ले सकती हैं. इससे जांच की निरंतरता बनी रहती है और आगे अदालतों की जिम्मेदारी बढ़ती है कि इस प्रावधान का इस्तेमाल रणनीतिक तरीके से बच निकलने के रूप में न हो,” उन्होंने कहा.

जैन के अनुसार, यह फैसला “गिरफ्तारियों की नैतिक संरचना को रीसेट करता है” और दिखाता है कि “गिरफ्तारी संवैधानिक अनुपालन से पहले नहीं हो सकती”. उन्होंने जोड़ा, “यह केवल आपराधिक प्रक्रिया सुधार नहीं है, बल्कि राज्य की शक्ति पर सीमाएं दोबारा स्थापित करने जैसा है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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