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Wednesday, 12 November, 2025
होममत-विमतक्यों भारतीय और अमेरिकी हिंदुओं को एक प्रचार करने वाली दुनिया में खुद को बदलना होगा

क्यों भारतीय और अमेरिकी हिंदुओं को एक प्रचार करने वाली दुनिया में खुद को बदलना होगा

भारत के विभिन्न संप्रदायों को अपनी परंपराओं और ज्ञान को संस्थागत रूप देना होगा और उसे इस तरह सरल बनाना होगा कि वह आसानी से आगे सिखाया जा सके और लोगों तक फैलाया जा सके, अगर उन्हें बड़े अब्राहमिक धर्मों के साथ प्रतिस्पर्धा करना है.

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हाल में घटी तीन घटनाओं ने विदेश में बसे हिंदू समुदाय और भारत में सोशल मीडिया पर मुखर इंटरनेट हिंदुओं के बीच भारी और प्रायः तीखी बहस को भड़का दिया है.

पहली घटना कुछ दिनों पहले घटी. अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने यह उम्मीद जाहिर करके अमेरिका के ही नहीं, भारत के हिंदुओं को भी सदमा पहुंचा दिया कि उनकी हिंदू पत्नी उषा आखिरकार ईसाई धर्म को अपना लेंगी. कुछ लोगों ने वेंस पर आरोप लगाया कि वे अपनी पत्नी के धार्मिक अधिकारों को कुचलने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों ने अमेरिकी संविधान में किए गए प्रथम संशोधन का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह सत्तातंत्र को धर्म के दायरे में दखल देने से रोकता है.

दूसरी घटना 31 अक्टूबर को हुई. अपनी शानदार बैटिंग से भारतीय महिला क्रिकेट टीम को फाइनल में पहुंचाने वाली जेमिमा रॉड्रिग्स ने अपने इस उत्कृष्ट प्रदर्शन का श्रेय खुद अपने खेल को न देकर ईसा मसीह को दिया. सोशल मीडिया पर कुछ हिंदुओं ने उनके खेल की तारीफ करने के बावजूद मुंबई के खार जिमखाना में हुई एक घटना के नाम पर उस क्लब की उनकी सदस्यता रद्द करवा दी. उन लोगों ने जेमिमा के पिता पर आरोप लगाया कि उन्होंने इस क्लब का उपयोग धर्म प्रचार करने के लिए किया.

तीसरी घटना भी लगभग इसी समय घटी. कुछ तमिल हिंदुओं ने अमेरिका के कैरोलिना में मुरुगन देवता की 155 फुट ऊंची प्रतिमा बनवाने की पहल की तो श्वेत ईसाइयों ने सोशल मीडिया पर इसका कट्टरपंथी स्वर में विरोध किया. कुछ लोगों ने मां काली की तस्वीरें पोस्ट करके उन्हें शैतान का रूप बताया. एक समूह ने हनुमान की मूर्ति की आलोचना करते हुए दावा किया कि इस तरह के प्रयासों का ईसाई अमेरिका में स्वागत नहीं किया जाएगा. अमेरिकी नेताओं की ओर से हिंदू समुदाय को दिवाली के मौके पर भेजे गए सामान्य राजनीतिक शुभकामना संदेशों की भी आलोचना की गई.

इस बीच, कुछ हिंदू अमेरिकी यह सवाल उठाते रहे हैं कि उनकी सरजमीं पर जो हिंदू हैं उन्हें क्या भारत के हिंदुओं द्वारा तय किए गए मानदंडों का पालन करना ज़रूरी है, या वे अमेरिकी हकीकत को अपनाते हुए अपने धर्म को ‘अमेरिकन वे’ (अमेरिकी तरीके) से ढालें ? ‘अमेरिकन वे’ का नारा अमेरिका में स्थानीय जनजातियों को परास्त करके सबसे पहले वहां बसने वाले प्रोटेस्टेंट गुटों ने दिया था. उन्होंने धार्मिक आस्था और संस्थाओं के इर्दगिर्द नागरिक मूल्यों का निर्माण किया. सत्तातंत्र जब एक बड़ी हकीकत बन गया उससे बहुत पहले ही आस्था पर आधारित इन समुदायों ने स्वशासन वाले समुदायों की स्थापना की.

विशाल गणेशन एक ऐसे हिंदू अमेरिकी हैं, जो यह मानते हैं कि अमेरिकी हिंदू धर्म वैसा नहीं हो सकता जैसा भारत के हिंदू उसे बनाना चाहते हैं. उनके विचार आप यहां सुन सकते हैं. अमेरिका में प्रोटेस्टेंट समुदाय के इतिहास के साथ गणेशन के विस्तृत विचारों को यहां अनंग मित्तल प्रस्तुत कर रहे हैं.

मैं अमेरिकी प्रोटेस्टेंटवाद या अमेरिकी इतिहास का कोई अधिकृत जानकार नहीं हूं, लेकिन मैं यह स्पष्ट तौर पर जानता हूं कि धार्मिक स्वतंत्रता के बारे में अमेरिकी विचार वही नहीं हैं, जो भारतीय विचार हैं. माना जाता है कि भारत में सत्तातंत्र ने सभी धर्मों से समान दूरी बनाकर रखी है, लेकिन सत्तातंत्र और धार्मिक संस्थाओं के वास्तविक संबंध को लेकर उसमें कभी स्पष्टता नहीं रही है.

अमेरिकी संविधान के प्रथम संशोधन में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी तो दी ही गई है, इसके अलावा यह भी कहा गया है:

‘अमेरिकी कांग्रेस किसी धार्मिक प्रतिष्ठान के मामले में या उसकी स्वतंत्रता पर रोक लगाने; या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या प्रेस की आजादी पर; या लोगों को शांतिपूर्वक सभा करने, और अपनी शिकायतों के समाधान के लिए सरकार को अर्जी देने के अधिकार पर रोक लगाने का कोई कानून नहीं बनाएगी.’

भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक पाखंड है

यूरोप की धर्मनिरपेक्षता आध्यात्मिक को सांसारिक को अलग-अलग रखती है (मसलन चर्च और सत्तातंत्र अपने-अपने अलग-अलग दायरे में संप्रभुतासंपन्न हैं), अमेरिकी धर्मनिरपेक्षता की सबसे अच्छी व्याख्या हर एक पक्ष को सरकारी दखलंदाजी से मुक्त होकर अपने-अपने लक्ष्य के लिए काम करने और खासकर धर्म प्रचार करने की आजादी के रूप में की जाती है. इसलिए, अमेरिकी ईसाई जब यह यह कहते हैं कि वे भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर चिंतित हैं, तब उनका आशय यह होता है कि उन्हें भारतीय लोगों को ईसाई धर्म स्वीकार करने से रोका जा रहा है. इसका ताल्लुक इस बात से नहीं है कि ईसाई लोग अपने धर्म का पालन कर सकते हैं या नहीं. इसका ताल्लुक उनकी मिशनरी गतिविधियों पर अंकुश लगाने से है. वे अपने तर्कों में ईसाइयों की प्रताड़ना की आम कहानियों का तड़का लगाते हैं.

भारतीय धर्मनिरपेक्षता न इधर की है और न उधर की. यह न तो धर्म प्रचार करने की आजादी की गारंटी देती है (सुप्रीम कोर्ट : स्टेनिसलॉस बनाम मध्य प्रदेश सरकार मुकदमा), और न धार्मिक गतिविधियों में हस्तक्षेप न करने की गारंटी देती है. वास्तव में, सत्तातंत्र समुदायों के बीच शांति बनाए रखने के लिए निरंतर हस्तक्षेप करने के लिए खुद को मजबूर महसूस करता है; और ज्यादा बुरी बात यह है कि वह पांच दक्षिणी राज्यों में करीब एक लाख मंदिरों का संचालन कर रहा है.

धार्मिक संस्थाएं चलाने की आजादी केवल ईसाइयों और मुसलमानों को हासिल है, जिसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक पाखंड ही है. यहां तक कि इस मामले को लेकर अदालतें भी दिग्भ्रम की शिकार हैं, क्योंकि कुछ अदालतें यह मानती हैं कि वे जाति के आधार पर मंदिरों या पुरोहितगीरी से बहिष्कृत हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकती हैं, या धार्मिक संस्थाओं के ‘धर्मनिरपेक्ष’ पहलू के पालन में गड़बड़ी को दुरुस्त कर सकती हैं. दूसरे शब्दों में, अदालतें यह कह सकती हैं कि किसी धार्मिक संस्था का कौन-सा पहलू धर्मनिरपेक्ष है और कौन-सा नहीं है, भले ही दोनों पहलू आपस में जुड़े क्यों न हों.

हिंदू भी आस्था परिवर्तन के लिए प्रेरित करने से बाज नहीं आ रहे

समस्या हिंदुओं के अंदर की है, क्योंकि उन्होंने घोषणा कर रखी है कि उनकी आस्था धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करने वाली आस्था नहीं है. यह सच नहीं हो सकता, क्योंकि अतीत में उन्हें बौद्ध तथा जैन धर्मों समेत दूसरी मान्यताओं से कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. बौद्ध तथा जैन धर्मों ने भारत में प्रभावशाली बने रहने के लिए खुद को ढाला, उधार लिये, और विकास किया. इसलिए, हम यह दिखावा क्यों करें कि हम धर्म परिवर्तन की प्रेरणा देने वाले धर्म नहीं हैं, और आगे कभी ऐसा नहीं बनेंगे? यह किसी तरह संभव नहीं है कि भारत में हिंदू धर्म के कम-से-कम कुछ संप्रदाय विस्तारवादी न बनें, और फिर भी हिंदू धर्म भारत में अपना अस्तित्व बचाए रख सके.

उल्लेखनीय है कि ब्रह्मो समाज और आर्य समाज, दोनों ने हिंदू धर्म को सुधारने और उसके विस्तार तथा परिवर्तन के लिए उसमें ज्यादा खुलापन लाने का बीड़ा उठाया था लेकिन ऐसा हुआ कि बीच रास्ते में कहीं वे खुद सिकुड़ गए और आज़ाद भारत में लगभग अप्रासंगिक बनकर रह गए.

अमेरिका के हिंदुओं को लेकर उनकी चिंता के बारे में यही कहूंगा कि मेरा मानना है कि जहां कहीं भी हिंदू धर्म को फलना-फूलना है वहां के भूगोल के अनुरूप उसे बदलना होगा. हिंदुओं को विस्तार करने के लिए इतना खुलापन लाना होगा कि वे धर्मांतरण की दीर्घकालिक ऐसी रणनीति बना सकें कि यह तय करना आसान हो कि कौन हिंदू है, कौन नहीं. हिंदू धर्म पर लिखी अपनी कई किताबों में राजीव महरोत्रा ने लिखा है कि हिंदू धर्म और उसके कई पंथ वह ‘खुला स्थापत्य’ प्रस्तुत करते हैं जिसके आधार पर नये हिंदू विचारों और समुदायों का विकास किया जा सकता है. हिंदू धर्म कोई अवरुद्ध विचार नहीं है.

एक अमेरिकी हिंदू जेफ्री आर्मस्ट्रॉन्ग उर्फ कवीन्द्र ऋषि अक्सर कहते रहे हैं कि हिंदू लोग ‘किसी एक ग्रंथ से बंधे’ लोग नहीं हैं. उनके कई पवित्र ग्रंथ हैं और उन्हें ‘एक लाइब्रेरी के लोग’ कहा जा सकता है.

दूसरी ओर, ईशा फाउंडेशन और श्री श्री आर्ट ऑफ लिविंग, इस्कॉन या ‘BAPS’ स्वामीनारायण संस्था जैसे भारत के सफल निर्यात मूलतः ऐसे हिंदू संगठनों के उदाहरण हैं, जिन्होंने धार्मिक संस्थाओं से अमेरिकी प्रोटेस्टेंटों की अपेक्षाओं को पूरा किया है. उन्हें भले ही पसंद या प्यार नहीं किया जाता हो, लेकिन उन्हें कबूल कर लिया गया है. आप अमेरिका में हनुमान की विशाल प्रतिमा स्थापित कर सकते हैं, लेकिन हिंदूद्वेषी ईसाई चाहे जितना भी विरोध करें या शोर मचाएं, आप भक्तों का समुदाय बनाकर और उनके विकास का परिवेश बना सकते हैं. हनुमान भक्तों का जो समुदाय अमेरिकी भक्तों को आकर्षित नहीं करेगा वह उस देश में अपने आप में सिमटा हुआ किराना दुकान बनकर रह जाएगा. वह अपना विकास करने और अपनी छाप छोड़ने में विफल रहेगा.

‘बीएपीएस’ ने अपने ब्रांड के हिंदू धर्म को संस्थागत रूप दे दिया है और इस्कॉन ने हिंदू धर्म को एक भगवान (श्री कृष्ण) और एक ग्रंथ गीता पर आधारित अब्राहमवादी पंथ का एक रूप दे दिया है. यहां तक कि अपने प्रारंभिक दौर में कहीं ज्यादा विविधतावादी सिख पंथ ने भी तब अब्राहमवादी रुख अपना लिया जब इसके दसवें गुरु ने खुद को अंतिम गुरु घोषित कर दिया और गुरु ग्रंथ साहिब को इस पंथ के लिए ईश्वर द्वारा कहे गए अंतिम सत्य के रूप में स्थापित कर दिया. अपने विकास वाले चरण में आर्य समाज ने अपने संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के नेतृत्व में यह घोषित कर दिया था कि वेदों को छोड़ बाकी सभी हिंदू ग्रंथ बाद में थोपे गए इसलिए उन्हें महत्व देने की ज़रूरत नहीं है.

हर हिंदू पंथ की अपनी प्रथाएं

यहां मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहूंगा कि अपना विस्तार और धर्मांतरण करवाने के लिए आपको अपनी बुनियादी बातों को तात्विक बनाना पड़ेगा ताकि आम लोग उसे समझ सकें. आप एक लाइब्रेरी जितने ज्ञान-समृद्ध हो सकते हैं, लेकिन धर्म प्रचार करने के लिए तात्विक विचारों का सार महत्वपूर्ण होता है. धर्म प्रचार करने वाले लोग ऐसे होते हैं जो ग्रंथों की जटिलताओं को ऐसी सरल धारणाओं के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं जो सामान्य भक्त के भी समझ में आ जाए. यह बात पवित्र हिंदू साहित्य और पंथ-दर-पंथ अलग-अलग धार्मिक व्यवहारों पर भी लागू हो सकती है.

धर्मांतरण करवाने वाला कोई समूह जब धर्मग्रंथ की व्याख्या करने के लिए उसका सामान्यीकरण करता है तब उसकी बौद्धिक सूक्ष्मता को थोड़ी हानि पहुंच सकती है, लेकिन बौद्धिक सूक्ष्मता तो बुद्धिजीवियों के लिए है, उन लोगों के लिए नहीं जो अपनी आस्थाओं को व्यवहार में लाना चाहते हैं.

मैं अपने विचार यहां प्रस्तुत करूंगा और अगले कुछ महीनों में उनकी विस्तार से व्याख्या करने की कोशिश करूंगा.

पहली बात यह है कि अमेरिकी हिंदू धर्म भारत के हिंदू संप्रदायों के साथ भाईचारा बनाए रखते हुए अपनी राह पर चल सकता है.

दूसरी बात: भारतीय संप्रदायों को भी अगर प्रमुख अब्राहमवादी पंथों से प्रतिस्पर्द्धा करनी है तो उन्हें अपने ज्ञान को संस्थागत स्वरूप देना होगा और उसके प्रसार तथा धर्मांतरण करवाने के लिए उन्हें बुनियादी बिंदुओं के रूप में प्रस्तुत करना होगा.

तीसरी बात: ज़रूरी नहीं है कि पूरे भारत के लिए एक ही तरह का हिंदू धर्म हो. सावरकर के लिए भी हिंदुत्व अर्थ हिंदू धर्म नहीं बल्कि हिंदुता थी. उनके लिए धर्म हिंदुत्व का उप-तत्व था. तमिल हिंदू धर्म हिंदी क्षेत्र के हिंदू धर्म से भिन्न हो सकता है और दोनों धर्म एक-दूसरे की ज़मीन पर एक-दूसरे से सीखते हुए, एक-दूसरे के तत्वों को अपनाते हुए अपना विकास कर सकते हैं. मुझे उत्तर भारत में दक्षिण के ज्यादा मंदिर और दक्षिण में उत्तर भारतीय मंदिर देखकर खुशी होगी.

चौथी बात: हिंदुओं को अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए नए सांगठनिक ढांचे अपनाने से डरना नहीं चाहिए. लक्ष्य यह हो कि जो नए भक्त इसके दायरे में आ सकते हैं उनके लिए विकल्पों का विस्तार किया जाए. उदाहरण के लिए महिलाएं हिंदू धर्म के बारे में अपने विचारों के आधार पर अपनी अलग धार्मिक तथा मंदिर संबंधी व्यवस्थाएं क्यों नहीं बना सकतीं? मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है. कुंवारी या विवाहित महिलाएं ज्यादा संख्या में हिंदू पुरोहित क्यों नहीं बन सकतीं? इसके साथ मैं यह भी कहूंगा कि कुछ पारंपरिक जातियां मंदिरों का संचालन करें तो मैं उसके खिलाफ नहीं हूं, बशर्ते वे बिना कोई घोटाला या कुशासन किए उनका पेशेवर ढंग से संचालन करें.

पांचवीं बात: मेरा मानना है कि जब तक अदालततें या कोई संकट सत्तातंत्र को मजबूर नहीं करता तब तक वह मंदिरों को अपना नियंत्रण नहीं छोड़ने वाला. इसकी वजह यह है कि बड़े मंदिरों से करोड़ों की नकदी आय होती है और किसी भी नेता के लिए सबसे मज़े की बात और क्या होगी कि वह लोगों की आस्था पर भी नियंत्रण रखे और भक्तों से मिलने वाली नकदी भी उसकी पकड़ में हो.

सत्तातंत्र को इस नियंत्रण से वंचित करने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि उनके नियंत्रण वाले मंदिरों की प्रतिस्पर्द्धा में निजी क्षेत्र के मंदिर बनाए जाएं, और जब ये मंदिर सरकारी मंदिरों के मुकाबले बेहतर व्यवस्था और भक्तों के लिए सुविधाजनक होने के कारण प्रसिद्ध हो जाएंगे तब कुछ सरकारें सरकारी मंदिरों, खासकर घाटा दे रहे मंदिरों का निजीकरण करने की ज़रूरत महसूस करने लगेंगी. एयर इंडिया का तब तक निजीकरण नहीं होता जब तक कि प्रतियोगिता के कारण वह घाटा न देने लगती और उसे विफल न घोषित कर दिया गया होता. इसलिए, भारत के हिंदुओं को मेरी सलाह है कि वे मंदिरों को मुक्त कराने के लिए न केवल अदालतों का दरवाजा खटखटाएं बल्कि उन्हें तगड़ी प्रतियोगिता से सामना कराएं ताकि सत्तातंत्र उन्हें कामधेनु गायों की तरह न दुहे. ऐसे कुछ विचारों की चर्चा मैंने ‘स्वराज्य’ में प्रकाशित लेखों में की है. आप उन्हें यहां पढ़ सकते हैं.

भारत के सबसे धनी मंदिर तिरुमला-तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) से लेकर तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, और तेलंगाना के तमाम सरकार नियंत्रित मंदिरों को भक्तों के हृदय तथा बटुए पर दावेदारी के लिए प्रतियोगिता की आंच झेलनी चाहिए.

अमेरिकी मंदिरों की तरह भारत के मंदिरों को भी नये विचारों और प्रयोगों के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि जो सबसे सफल है वह आगे बढ़े, फले-फूले.

(आर.जगन्नाथन स्वराज्य पत्रिका के एडिटोरियल डायरेक्टर रह चुके हैं. वह @TheJaggi पर ट्वीट करते हैं. विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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