स्टैनफोर्ड के हूवर हिस्टरी लैब के डांग वांग ने अपनी किताब ‘Breakneck: China’s Quest to Engineer the Future’ के कारण काफी ध्यान बटोरा. इस किताब में उन्होंने कहा है कि चीन ‘इंजीनियरिंग का देश’ है, जबकि अमेरिका ‘वकालती का देश’ है. वैसे, दोनों देशों के चरित्र के बारे में यह कोई नई बात नहीं कही गई है. ‘द इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का यह बयान उदधृत कर चुका है जो उन्होंने 1998 में अपने चीन दौरे के दौरान दिया था, कि “आपके यहां इंजीनियरों की संख्या काफी है, हमारे यहां वकीलों की…आइए, हम व्यापार करें!”
आप आज अगर चीन का दौरा करें तो इंजीनियरिंग में उसने जो उपलब्धियां हासिल की हैं वे आपको चमत्कृत कर देंगी. इस लेखक के साथ ऐसा ही हुआ था जब एक दशक से पहले ही वह वहां गया था. आपने उस देश के बारे में चाहे जितना ज्यादा क्यों न पढ़ रखा हो, जब आप उसके हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों, चौड़े मार्गों और पुलों, गगनचुंबी इमारतों और बुलेट ट्रेनों को सामने से देखते हैं वे आपको हैरत में डाल देते हैं, खासकर उनका उत्कृष्ट शहरी नियोजन और सार्वजनिक सुविधाओं का उच्चस्तरीय कंस्ट्रक्शन आपको प्रभावित कर देता है. एक अनुशासित समाज ने अभूतपूर्व पैमाने पर यह निर्माण किया है, और भव्य निर्माण किया है.
और यह सब उसके इंजीनियरों ने किया है. 20वीं सदी के मध्य में जो बात सोवियत संघ के बारे में सच थी वह आज चीन के बारे में सच है, कि उसके राजनीतिक नेतृत्व में इंजीनियरों की प्रमुखता रही है. ली चेंग और लिन व्हाइट ने पाया कि उसके 80 फीसदी गवर्नर, मेयर और प्रांतों, बड़े शहरों तथा स्वायत्त क्षेत्रों में पार्टी सेक्रेटरी टेक्नोक्रेट रहे हैं.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का शुरुआती नेतृत्व
हमेशा से ऐसा नहीं था. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रारंभिक नेता स्वाधीनता संघर्ष से उभरे थे. इंजीनियरों का बोलबाला नेताओं की तीसरी पीढ़ी से हुआ, जिनका चयन तंग श्याओपिंग ने किया था. इस दस्ते के नेता थे जियांग शेमिन, जो इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे. उनके अलावा झू रोंग्जी, हू जिनताओ और अब शी जिनपिंग (जो केमिकल इंजीनियरिंग और कानून की भी पढ़ाई कर चुके हैं) उन्होंने नेतृत्व संभाला.
एक मिसाल हैं वान गांग, जो माओ की सांस्कृतिक क्रांति के शिकार बने और किसी तरह जर्मनी जाकर पीएचडी की और ऑडी कंपनी से जुड़े. उनकी मुलाकात इस कंपनी के दौरे पर गए एक चीनी मंत्री से हुई जिन्होंने बाद में उन्हें चीन बुला लिया. वान इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की वकालत करने वाले पहले व्यक्तियों में थे और चीन सरकार के एकमात्र गैर-कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में उन्होंने ईवीसे जुड़े अनुसंधान को आगे बढ़ाया. इसने चीन को इसके व्यवसाय में अपना नेतृत्व कायम करने में मदद की.
इसी तरह, कोलंबिया में ग्रेजुएशन करके पेकिंग यूनिवर्सिटी में लौटे शू गुयांग्स्यान ने बाद में ‘रेयर अर्थ’ में अनुसंधान करने के लिए एक लैब स्थापित किया. आज चीन का इस क्षेत्र में भी वर्चस्व है. शू को चीन के ‘रेयर अर्थ’ उद्योग का जनक माना जाता है.
ऐसा नहीं है कि केवल प्रवासी लौटे. किसी दूसरे देश के मुक़ाबले चीन में उसके उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयों से हर साल जितने ग्रेजुएट निकलते हैं उनमें ‘स्टेम’ (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजिनियरिंग, मैथेमेटिक्स) के स्टूडेंट्स काफी संख्या में होते हैं. ये लोग आगे चलकर चीन में निर्णय प्रक्रिया में शामिल हो जाते हैं, जबकि अमेरिका या भारत में ऐसा नहीं होता, हालांकि ‘स्टेम’ ग्रेजुएटों की संख्या के लिहाज़ से भारत दूसरे नंबर पर है.
जहां तक अमेरिका की बात है, उसकी ‘कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस’ ने 2022 में रिपोर्ट दी थी कि 117वीं कांग्रेस में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या उतनी ही है जितनी रेडियो टॉक शो के मेज़बानों की है. सबसे ज्यादा संख्या वकीलों और व्यवसायियों की है.
भारतीय नेताओं में कितने इंजीनियर
भारत का अनुभव यही है कि अगर ज़िम्मेदारी मिले तो उसके वैज्ञानिक और इंजीनियर भी ‘निर्माण’ कर सकते हैं. पुराने उदाहरणों में सिविल इंजीनियरिंग और बांध निर्माण में एम. विश्वेश्वरैया का; एटॉमिक इनर्जी में होमी भाभा का; कृषि में एम.एस. स्वामीनाथन का; अंतरिक्ष कार्यक्रम में विक्रम साराभाई और सतीश धवन का और मेकेनिकल इंजीनियर वर्गीज़ कुरियन का है जिन्होंने ‘श्वेत क्रांति’ लाई.
कारखाने और संस्थान बनाने वाले दूसरे इंजीनियरों में मंतोष सोंधी (इस्पात), वी. कृष्णमूर्ति (इलेक्ट्रिकल मशीनरी), और डी.वी. कपूर (बिजली उत्पादन) सरीखी हस्तियों का नाम लिया जा सकता है. इसी कड़ी में ‘मेट्रो मैन’ ई. श्रीधरन आते हैं.
इंजीनियरों ने ही भारत के सॉफ्टवेयर सेवा उद्योग का निर्माण किया, जिसकी शुरुआत एफ.सी. कोहली ने की. उन्होंने कनाडा की क्वीन्स यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और इसके बाद एमआईटी से सिस्टम्स इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. मजबूत टेक्नोलॉजी वाली लार्सन एंड टर्बो की स्थापना डेनमार्क के दो इंजीनियरों ने की, जिसे बाद में ए.एम. नायक ने आगे बढ़ाया. दुनिया में सबसे पेचीदा तेलशोधक कारखाना स्थापित करने वाले मुकेश अंबानी एक केमिकल इंजीनियर हैं. इन्फोसिस से उभरे नन्दन निलेकणी ने सार्वजनिक डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के कई तत्वों का निर्माण किया.
ऐसे उदाहरण बहुत नहीं हैं. इसकी वजह शायद यह है कि गांधी, नेहरू, पटेल, आंबेडकर वगैरह भारत के पुराने नेता वकील थे. हालांकि, नेहरू आधुनिक भारत के ‘मंदिरों’ का निर्माण करने के लिए लोगों में वैज्ञानिक सोच जगाने की बहुत वकालत करते थे, लेकिन सरकार की प्रशासनिक संस्कृति का चरित्र विशेषज्ञता वाला नहीं था और न है, ‘जेनरलिस्ट’ वाला है. किसी विषय में विशेषज्ञता को प्रशासनिक योग्यता के मुकाबले गौण माना जाता है.
इसके अलावा, इस विडंबना पर भी कई लोगों ने गौर किया है कि भारत ने दुनिया को सबसे प्रतिभाशाली अर्थशास्त्री तो दिए, लेकिन सबसे बेकार ‘मैक्रो’ आर्थिक नीतियां दी. 1991 में पी.वी. नरसिंह राव के राज में जो आर्थिक सुधार शुरू किए गए उनका नेतृत्व अर्थशास्त्रियों ने ही किया. उनमें से कुछ अर्थशास्त्रियों ने फिजिक्स पढ़ने के बाद अर्थशास्त्र की पढ़ाई की थी.
धीमा बदलाव
अब बदलाव हो रहा है. आईएएस में चुने जाने वाले नए उम्मीदवारों में इंजीनियरों की संख्या तेज़ी से बढ़कर दो दशक पहले 30 फीसदी और अब 60 फीसदी हो गई है, लेकिन केरियर को आगे बढ़ाने का मौका न मिलने पर वे भी ‘पत्रकार’ बन सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टेक्नोलॉजी की ताकत में विश्वास करते हैं, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व में इस तरह का बदलाव आता नहीं दिख रहा है. उनके वरिष्ठ मंत्रियों में राजनाथ सिंह और अमित शाह ने विज्ञान के विषयों (फिजिक्स और बायोकेमिस्ट्री) की पढ़ाई की है, लेकिन सरकार पर हावी आरएसएस का ज़ोर सांस्कृतिक परिवर्तन पर ही रहा है. निर्मला सीतारमण अर्थशास्त्री हैं और पीयूष गोयल अकाउंटेंट रहे हैं. नितिन गडकरी इंजीनियर नहीं हैं, अश्विनी वैष्णव हैं.
2022 में बनाए गए 36 केंद्रीय मंत्रियों में वकीलों, बिजनेस की डिग्री वालों, डॉक्टरों की संख्या ज्यादा है, दो मंत्री आईएएस रहे हैं. कहा गया कि उनमें कई इंजीनियर हैं, लेकिन संख्या नहीं बताई गई. कांग्रेस में एकमात्र जाने-माने इंजीनियर रहे जयराम रमेश, जिन्होंने आईआईटी बॉम्बे और कार्नेगी-मेलों से पढ़ाई की. दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे अरविंद केजरीवाल आईआईटी ग्रेजुएट रहे, लेकिन उनका उदाहरण बताता है कि कोई इंजीनियर कैसा राजनेता न बने.
इस बीच, भारत के व्यवसाय जगत पर पारंपरिक व्यापारी वर्ग या महाजनी जातियों का दबदबा रहा है जो नकदी का हिसाब-किताब संभालती रही हैं. इनमें लेखा की बिरला घराने की पारंपरिक ‘पारथा प्रणाली’ एक उदाहरण है. इसने व्यवसायों को बेशक काफी मजबूती दी है, उन्हें अमेरिकी जुमले के मुताबिक ‘बीन काउंटर’ (नोट गिनने वाला) कहकर एकदम-से खारिज नहीं किया जा सकता. आखिर वे सफल उद्यमी हैं, लेकिन वित्तीय लक्ष्य ऐसे होने चाहिए जो व्यवसाय के व्यापक मकसद को हासिल करने में मददगार हों. भारत में हमेशा ऐसा नहीं होता है.
तुलनात्मक रूप से देखें तो पारसी, ब्राह्मण, लिंगायत, और पंजाबी खात्री समुदायों ने शुरू से इंजीनियरिंग पर ज़ोर दिया है, मसलन टाटा तथा गोदरेज, टीवीएस तथा किर्लोसकर, कल्याणी तथा महिंद्रा, जबकि आंध्र प्रदेश के समृद्ध तटवर्ती इलाके ने कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में अग्रणी नेता दिए. पेशेवर वर्ग में, सबसे श्रेष्ठ इंजिनियर विदेश चले जाते हैं या मैनेजमेंट की डिग्री लेकर कंसल्टेंसी, वित्त सेवा, या मार्केटिंग में कूद जाते हैं क्योंकि उनमें ज्यादा वेतन मिलता है.
हमारे पास दुनिया को मात देने वाले, ‘फर्स्ट जेनरेशन’ के लेई जुन जैसे इंजिनियर-उद्यमी नहीं हैं जिन्होंने श्याओमि की स्थापना करने से पहले कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की, या वांग शूनाफू जैसे जिन्होंने मेटलर्जी (धातु विज्ञान) की पढ़ाई की और ‘बीवाईडी’ की स्थापना की, जो दुनिया में सबसे ज्यादा प्लग-इन ईवी का उत्पादन करती है. ऐसा लगता है कि भारतीय व्यवस्था ऐसे उद्यमियों को समर्थन नहीं देती. सवाल यह है कि ऐसी व्यवस्था की ज़रूरतों को समझने की स्थिति में कौन है?
कहने की ज़रूरत नहीं कि इस भारतीय व्यवस्था के विविध खामियों का कोई चमत्कारी समाधान नहीं है. इंजानियरों के पास भी इसका समाधान नहीं है, लेकिन उन्हें समस्या का तार्किक समाधान करने की ट्रेनिंग मिली होती है और वे व्यवस्थित रूप से सोच सकते हैं जबकि वकीलों का ज़ोर विपक्ष का अदालत में सामना करने पर होता है और, हम इसे समझें कि चीन ने भी वित्त तथा आर्थिक संरचना के मामले में बड़ी गलतियां की है, लेकिन सक्षम इंजीनियरों को ज़िम्मेदारी सौंपने से हम छिछले कामकाज को मंजूर करने और जुगाड़ को महिमामंडित की अपनी आम आदत से मुक्त हो सकते हैं.
भारत जबकि प्रतिस्पर्द्धी मैनुफैक्चरिंग सेक्टर और उम्दा इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने की जद्दोजहद कर रहा है, तब हम इस पर विचार कर सकते हैं कि भारत को किस हद तक एक ‘इंजीनियरिंग राज’ बनाने की ज़रूरत है और इंजीनियर राजनीति तथा प्रशासन के साथ ही व्यवसाय और उद्योग में किस तरह का नेतृत्व दे सकते हैं.
(टीएन नायनन प्रतिष्ठित संपादक और लेखक हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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