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Monday, 22 September, 2025
होमविदेश‘कार्की की अंतरिम सरकार न संवैधानिक है न कानूनी, लेकिन वैध है’—नेपाल के पूर्व कानून मंत्री गोविंद बंदी

‘कार्की की अंतरिम सरकार न संवैधानिक है न कानूनी, लेकिन वैध है’—नेपाल के पूर्व कानून मंत्री गोविंद बंदी

बंदी ने दिप्रिंट से नेपाल में युवाओं के विरोध, कार्की को पीएम नियुक्त करने के पीछे ‘समझदारी, आवश्यकता और सड़कों की लहर’ और ‘प्रतिशोध नहीं, जवाबदेही की ज़रूरत’ पर बात की.

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काठमांडू: नेपाल के सबसे अशांत सार्वजनिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बाद, पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की अब देश का नेतृत्व कर रही हैं, न कि संविधानिक प्रक्रिया के जरिए, बल्कि जिसे कई लोग “सड़कों की इच्छा” कह रहे हैं.

जहां उन्हें अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में नियुक्त करने ने नेपाल में कानूनी, वैधता और लोकतंत्र पर राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है, क्योंकि यह औपचारिक संवैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करता है, वहीं नेपाल के पूर्व कानून, न्याय और संसदीय मामलों के मंत्री गोविंद बंदी का मानना है कि यह आगे बढ़ने का एकमात्र व्यावहारिक रास्ता हो सकता था.

बंदी ने बुधवार को दिप्रिंट को दिए एक खास इंटरव्यू में कहा, “यह सरकार संविधानिक या कानूनी नहीं है, लेकिन यह वैध है.”

नेपाल का संविधान, जिसे लगभग एक दशक की राजनीतिक गतिरोध के बाद 2015 में लागू किया गया, सरकार बनाने के लिए स्पष्ट प्रावधान बताता है. संविधान का अनुच्छेद 76 कहता है कि प्रधानमंत्री संसद का वर्तमान सदस्य होना चाहिए और उसे किसी एक पार्टी या पार्टियों के गठबंधन से बहुमत समर्थन के जरिए नियुक्त किया जाना चाहिए.

बंदी ने कहा, लेकिन पिछले कुछ महीनों में, नेपाल की संसद पूरी तरह काम करना बंद कर चुकी थी.

राजनीतिक वर्ग में जनता का विश्वास भ्रष्टाचार के मामलों, युवाओं के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शन पर हिंसक कार्रवाई और प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को बंद करने के असामान्य फैसले के बाद पूरी तरह ध्वस्त हो गया.

बंदी ने कहा, “संसद में कोई उम्मीद नहीं थी क्योंकि दो बड़ी ताकतें (राजनीतिक पार्टियां) सरकार में शामिल हो गई थीं ताकि सभी गलत कामों और भ्रष्टाचार को ढक सकें. अगर मजबूत विपक्ष होता, लोग विपक्षी पार्टी के पास जाते और उनसे कहते कि इसे संसद में उठाएं, लेकिन संसद में कोई जगह नहीं थी.”

नेपाल के संविधान का अनुच्छेद 61 राष्ट्रपति को दो कर्तव्य देता है: संविधान की रक्षा करना और उसका पालन करना. इस समय, बंदी ने कहा, ये दोनों जिम्मेदारियां टकरा गईं.

उन्होंने कहा, “राष्ट्रपति को संविधान या संसद में से किसी एक को चुनना था. उन्होंने संविधान चुना, संसद को भंग किया और कार्की को अंतरिम सरकार का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया.”

बंदी ने जोर दिया कि यह नियुक्ति एकतरफा नहीं थी. बल्कि, इसे सड़कों की लहर ने आकार दिया, जहां एक विकेंद्रीकृत, युवा-नेतृत्व वाले आंदोलन ने Discord जैसे प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर नेता का चयन किया.

बंदी ने समझाया, “जब आप ढांचे के बाहर काम कर रहे होते हैं, तो कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं होती. ऐसे समय में जो चीज़ आपको मार्गदर्शन देती है, वह है समझदारी और ज़रूरत.”

बंदी के अनुसार, GenZ विरोधियों के समन्वय समिति द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक मतदान में कार्की को पूर्व सांसदों, नागरिक समाज के नेताओं और कानूनी विद्वानों सहित विभिन्न व्यक्तियों के बीच से चुना गया. उन्होंने कहा, “यह संवैधानिक रूप से परिभाषित नहीं था, लेकिन यह जनता का जनादेश था.”

उन्होंने बताया कि GenZ समूह एक अनौपचारिक लेकिन व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त प्रतिनिधि निकाय बन गया, जो विरोध प्रदर्शन से उभरा और राष्ट्रपति को बिखरी हुई राजनीतिक पार्टियों को दरकिनार करते हुए अपनी सिफारिश पहुंचाई.

लंबे समय से अधूरी मांगें

नेपाल लंबे समय से शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, न्याय और गरीबी तथा भेदभाव दूर करने जैसे मुख्य एजेंडों को लागू करने में संघर्ष कर रहा है. देश की हर बड़ी राजनीतिक आंदोलन—1950 और 1990 के जनता आंदोलम से लेकर 1996 की माओवादी विद्रोह तक—इन ही मांगों पर आधारित थी.

1990 के जन आंदोलन के बाद नेपाल में पूर्ण राजतंत्र का अंत हुआ, लोकतंत्र लौट आया और राजनीतिक पार्टियां मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो गईं, लेकिन, बंदी के अनुसार, “जो एजेंडा वे उठा रहे थे, वह अधूरा रह गया.” भ्रष्टाचार संस्थागत हो गया और इसके जवाब में माओवादी ने एक दशक लंबी विद्रोह शुरू की, जो फिर से वही अधूरी मांगों पर आधारित थी.

2006 में एक शांति समझौते ने माओवादी को मुख्यधारा की राजनीति में शामिल किया, लेकिन “उन्होंने फिर से एजेंडा छोड़ दिया.” फिर, जब 2015 के संविधान ने अधिकार और न्याय का वादा किया. बंदी ने कहा, “डिलीवरी सिस्टम पूरी तरह फेल हो गया.” भ्रष्टाचार गहराया और नेताओं ने संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी की.

इससे राजनीतिक और आम जनता के बीच बड़ा फासला बन गया. इससे “नेपो बेबी” आंदोलन उभरा, जो राजनीतिक नेतृत्व के बच्चों के विशेषाधिकारों का ज़िक्र करता है, जबकि अधिकांश युवाओं के पास बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा नहीं थी.

बंदी ने दिप्रिंट से कहा, “सोशल मीडिया GenZ के लिए अपने गुस्से को व्यक्त करने की जगह बन गया, जब तक कि सरकार ने इसे बंद नहीं कर दिया. बिना संसदीय विपक्ष और बोलने की कोई जगह नहीं होने पर, सारे छात्र अपनी स्कूल ड्रेस में और GenZ समूह…सड़कों पर आए और अपनी आवाज़ उठाई.”

प्रदर्शन काठमांडू में सबसे पहले 8 सितंबर को शुरू हुए, फिर पूरे देश में फैल गए.

राज्य ने घातक बल का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा, “उसी दिन पुलिस फायरिंग में लगभग 50 लोग मारे गए.” अगले दिन, बड़े पैमाने पर प्रदर्शन बढ़ गए. सरकारी दफ्तर, वाहन और रिकॉर्ड जलाए गए. उन्होंने आगे कहा, “मंत्रियों या सरकारी कर्मचारियों के बैठकर काम करने की कोई जगह नहीं थी.”

बंदी ने कहा, “अब हम एक मोड़ पर हैं. नई सरकार बनी है लेकिन यह ‘वर्तमान संविधान के दायरे से बाहर’ है, जो वैधता और जवाबदेही को लेकर और गहरी चिंता पैदा कर रही है.”

अशांति और दमन का ढांचा

नेपाल पहले हिंसा और बड़े पैमाने पर प्रदर्शनों से चिह्नित था. सोशल मीडिया बंद करना, जिसे असहमति को दबाने की रणनीति माना गया, बड़े असंतोष का ज्वालामुखी बन गया—सदियों से चली आ रही प्रणालीगत भ्रष्टाचार, असफल शासन और बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण.

बंदी ने कहा, “सोशल मीडिया पर प्रतिबंध मुख्य मुद्दा नहीं था. असल कारण कहीं गहरे थे, इतिहासिक अन्याय, संस्थागत भ्रष्टाचार और टूटे वादों में जड़ें थे.”

जब छात्र, कई स्कूल की यूनिफॉर्म में, सड़कों पर उतरे, तो राज्य ने लाइव गोलियों से जवाब दिया. बंदी ने इसे एक महत्वपूर्ण मोड़ बताया.

उन्होंने कहा, “सरकार ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग की. कम से कम 50 लोग एक ही दिन में मारे गए. अगले दिन सरकारी इमारतों में आग लगा दी गई. मंत्रियों और सरकारी कर्मचारियों के पास काम करने की कोई जगह नहीं बची.”

इस अराजकता के बीच, राष्ट्रपति का एक अंतरिम सरकार नियुक्त करना. हालांकि, संवैधानिक रूप से बाहर था, कई लोगों के लिए सैन्य बढ़ोतरी को रोकने के लिए आवश्यक कदम था.

बंदी ने कहा,“हमने इसे क्षेत्रीय रूप से देखा है. बांग्लादेश, पाकिस्तान, यहां तक कि श्रीलंका में, जब राजनीतिक प्रणाली बिखरती है, तो अगला कदम अक्सर सैन्य शासन होता है. वह खतरा असली था.”

हालांकि, इस उथल-पुथल के बावजूद, बंदी राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगाने की मांगों को खारिज करते हैं, भले ही उनके कई नेता व्यापक जनता के गुस्से और कुछ मामलों में आपराधिक जांच का सामना कर रहे हों.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हां, लोग गुस्से में हैं. कुछ नेताओं पर हमला हुआ, घर लूटे गए, नकदी झोले में निकाली गई, लेकिन राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध लगाना तानाशाही होगा. हमें प्रतिशोध नहीं, जवाबदेही चाहिए.”

बंदी ने नेपाल की जड़ें जमा चुकी राजनीतिक नेतृत्व की कड़ी आलोचना की. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “के.पी. ओली, शेर बहादुर देउबा और प्रचंड जैसे नेता अब भी सब कुछ नियंत्रित करते रहे और उनकी पार्टियों की युवा पीढ़ी? उन्हें चुनौती देने से डर लगता है. यह राजनीतिक दासता है.”

‘भारत रहेगा अहम’

नई अंतरिम सरकार ने चुनाव कराने का वादा किया है, लेकिन बंदी छह महीने की समयसीमा को लेकर संशय में हैं.

उन्होंने कहा, “यह पूरी तरह नई सरकार है, जिसके पास कोई अनुभव नहीं है. कुछ वकील हैं, कुछ सरकारी कर्मचारी, लेकिन बहुत कम ने कभी देश चलाया है. छह महीने बहुत ही महत्वाकांक्षी हैं.”

उन्होंने अंतरिम पीएम कार्की के उस फैसले पर भी सवाल उठाया जिसमें उन्होंने अपने कैबिनेट से राजनीतिक दलों के सदस्यों को बाहर रखा, भले ही उनका रिकॉर्ड साफ हो. उन्होंने कहा, “यह एक गलती थी. राजनीतिक पार्टियों के बिना लोकतंत्र काम नहीं कर सकता. आपको उनकी संगठनात्मक ताकत, उनका अनुभव चाहिए, भले ही वह पूर्ण न हो.”

चुनौतियों में और बाधाएं हैं—लॉजिस्टिक और वित्तीय. बंदा ने गंभीरता से कहा, “काठमांडू अब राख और खून में डूबा हुआ है. आमतौर पर भी हमें सैलरी देने में दिक्कत होती थी. अब हमें राष्ट्रीय चुनाव के लिए फंड जुटाना है. यह बिना अंतरराष्ट्रीय समर्थन के संभव नहीं है.”

भारत इस मामले में अहम रहेगा. उन्होंने कहा, “भारत के साथ हमारा रिश्ता सांस्कृतिक और स्थायी है. उनका समर्थन सिर्फ वित्तीय नहीं, बल्कि स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण होगा.”

‘जनता को फैसला करने दो’

चुनाव से आगे देखते हुए बंदी कुछ और बुनियादी बात की वकालत करते हैं—तीन अनसुलझे मुद्दों पर राष्ट्रीय जनमत संग्रह: राजशाही बनाम गणतंत्र, संघीय ढांचा बनाम एकात्मक शासन, और धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदू राष्ट्र.

उन्होंने कहा, “ये फैसले जनता के आदेश से नहीं, बल्कि ऊपरी स्तर पर बनी सहमति से लिए गए थे. जनता को तय करने दीजिए. इससे ये बहसें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी.”

वह प्रस्ताव रखते हैं कि यह जनमत संग्रह चुनाव के बाद एक एकजुटता वाली सरकार के तहत होना चाहिए, जिसमें राजतंत्र समर्थकों से लेकर संघीय ढांचे के आलोचकों तक, सभी गुट शामिल हों. भले ही काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह जैसे नेता नई राजनीतिक पार्टियां बनाने की तैयारी में हों, बंदी ने केवल नए चेहरों से ज्यादा उम्मीदें लगाने के खिलाफ चेताया.

उन्होंने कहा, “नेपाल सिर्फ काठमांडू नहीं है. हां, शहरों में नई पार्टियां जीत सकती हैं, लेकिन पहाड़ों में, दूर-दराज़ गांवों में जहां सड़कें भी नहीं हैं, वहां पुरानी पार्टियों का दबदबा अब भी है.”

और सबसे अहम बात, बंदी के अनुसार, यह पार्टियों का सवाल नहीं बल्कि संस्कृति का है. “हमारी पार्टियां निजी कंपनियों जैसी व्यवहार करती हैं. एक ही व्यक्ति सारे फैसले लेता है. यह लोकतंत्र नहीं है. यह सामंती व्यवस्था है.”

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, जब तक यह संस्कृति पार्टियों के भीतर और समाज में नहीं बदलेगी, नेपाल उम्मीद और मायूसी के एक ही चक्र में फंसा रहेगा.

फिर भी, अनिश्चितता के बावजूद बांडी नहीं मानते कि नेपाल पतन की ओर बढ़ रहा है. बंदी ने कहा, “हमारी न्यायपालिका पहले भी आगे आई है. अगर चुनाव नहीं होंगे, तो सुप्रीम कोर्ट दखल देगा. वही हमारी सुरक्षा की गारंटी है.”

सैन्य बल भी काफी हद तक संयमित रहा है. हालांकि, विरोध प्रदर्शनों के चरम समय में उनकी मौजूदगी ने सवाल ज़रूर खड़े किए. विरोध के बाद काठमांडू की सड़कों पर सेना की गश्त देखी गई थी.

बंदी ने ज़ोर दिया, “यह तख्तापलट नहीं था. यह स्थिरता का संकेत था. गोलियां पुलिस ने चलाईं. सेना पीछे रही. शायद इसी ने नरसंहार होने से रोका.”

जैसे ही अंतरिम सरकार अपना काम शुरू करेगी, नेपाल सिर्फ राजनीतिक संक्रमण ही नहीं बल्कि लोकतंत्र की एक परीक्षा का सामना करेगा. बंदी ने कहा, “जनता लोकतंत्र चाहती है, लेकिन ऐसा लोकतंत्र जो काम करे.”

अगर नेपाल को फिर से उथल-पुथल से बचना है, तो बंदी के अनुसार, असली समाधान चुनाव, जनमत संग्रह या संवैधानिक धाराओं से भी गहरा होना चाहिए. यह सांस्कृतिक, संस्थागत और सबसे बढ़कर ईमानदार होना चाहिए.

बंदी ने कहा, “जनता को फैसला करने दो. वही भावना जो काठमांडू की सड़कों पर लगातार सुनाई दे रही है, वरना हम गोल-गोल ही दौड़ते रहेंगे: नए चेहरे, वही नाकामियां.”

(इस बातचीत को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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