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Monday, 29 September, 2025
होममत-विमतटैरिफ, तेल और ब्रिक्स पर अमेरिकी शर्तें—क्या भारत की 'रेड लाइंस' तय करेंगी रिश्तों की दिशा

टैरिफ, तेल और ब्रिक्स पर अमेरिकी शर्तें—क्या भारत की ‘रेड लाइंस’ तय करेंगी रिश्तों की दिशा

ट्रंप और उनके मंत्रियों की टिप्पणियां अमेरिका की भारत नीति और प्राथमिकताओं को दर्शाती हैं. सवाल यह है कि भारत उनसे किस तरह के संबंध रखे?

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भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता फिर शुरू हुई, तो भारत की रुलिंग क्लास का उत्साह लौटता दिखा है. हाल के महीनों का तजुर्बा यह है कि इस तबके की भावनाओं का उतार-चढ़ाव फिलहाल डॉनल्ड ट्रंप की थ्योरियों से तय होता है. जब ट्रंप और उनके प्रशासन के अधिकारी रोजमर्रा के स्तर पर भारत के लिए अपमानजनक बातें बोल रहे थे, तो भारत सरकार के साथ-साथ यहां का पूरा रुलिंग क्लास सन्न रहकर उसे सुन रहा था. उसके बाद जब ट्रंप की थ्योरियां नरम पड़ीं, तो यहां मीडिया हेडलाइंस से लेकर सामान्य चर्चाओं तक में तनाव घटने और ‘दोस्ती’ में फिर गरमाहट आने की कहानियां बताई जाने लगीं.

ट्रंप की थ्योरियों क्यों नरम पड़ीं, इस बारे में हम सिर्फ कुछ कयास ही लगा सकते हैं. एक बात यह साफ है कि ट्रंप प्रशासन जिस तरह हाथ धोकर भारत के पीछे पड़ा दिखा, उससे अमेरिकी शासन तंत्र के एक हिस्से में असहजता बढ़ रही थी. खास कर डेमोक्रेटिक पार्टी के अनेक नेता, न्यू-कॉन (न्यू कंजर्वेटिव) विश्लेषक और थिंक टैंक अफसोस जता रहे थे कि चीन को घेरने की अपनी रणनीति में पूर्व प्रशासनों ने भारत को शामिल करने की जो कोशिश की, ट्रंप ने एक झटके से उसे ध्वस्त कर दिया है.

यह सोच ट्रंप प्रशासन के भीतर भी थी, क्योंकि चीन का उदय रोकना उसकी भी प्राथमिकता है. यह आम धारणा है कि तीखे सामाजिक- राजनीतिक ध्रुवीकरण से ग्रस्त अमेरिका में आज सिर्फ एक मुद्दा है, जिस पर द्विपक्षीय (रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों के बीच) सहमति है—और वो मुद्दा है चीन को घेरना.

दोनों पक्ष इसमें भारत की एक बड़ी भूमिका देखते हैं. भारत से उनके “लगाव” का असल कारण यही रहा है. इसके बीच ट्रंप क्यों नाराज हुए, यह भी अटकलों का विषय है. एक राय है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर को रुकवाने का श्रेय उन्हें सार्वजनिक रूप देने से गुरेज किया, जिससे ट्रंप के अहंकार को चोट पहुंची. मगर, दूसरी राय के पीछे का तर्क संभवतः अधिक मजबूत है—चूंकि व्यापार वार्ता में भारत अपने बाजार को अमेरिकी कंपनियों के लिए पूरी तरह खोलने पर सहमत नहीं हो रहा था, तो ट्रंप और उनके प्रशासन ने ‘रौद्र’ रूप धारण किया.

अमेरिकी मांगें और भारत की ‘रेड लाइंस’

ट्रंप का रुख फिलहाल भारत के प्रति नरम हुआ है. उससे भारत के सरकारी हलकों में उत्साह लौटा जरूर है, मगर अपने गरम मूड के दिनों में ट्रंप ने दोनों देशों के रिश्ते में जो कड़वाहट घोली, उसका असर इतनी आसानी से नहीं जाने वाला है. इसीलिए अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ब्रेंडन लिंच की नई दिल्ली यात्रा के दौरान भारतीय दल से सात घंटों तक चली उनकी बातचीत के बाद जो कहा गया, उसका क्या अर्थ है, यह समझना कठिन बना हुआ है। यह बातचीत द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) पर सहमति बनाने के लिए हुई.

बातचीत के बाद जारी बयान में बताया गया कि वार्ता ‘पॉजिटिव और फॉरवर्ड लुकिंग (भविष्य पर नजर रखने वाली)’ रही. मतलब यह कि गुजरे महीनों में जो कड़वाहट आई है, उसे भूल कर भविष्य पर नजर रखने का नजरिया दोनों देशों ने अपनाया है. बताया गया कि वार्ता जारी रहेगी, मगर उसके अगले दौर का समय अभी नहीं बताया गया है. सिर्फ यह कहा गया कि दोनों पक्षों ने ‘जल्द से जल्द समझौता संपन्न करने के लिए प्रयास तेज करने का फैसला किया है.’

गहराई से देखा जाए, तो ये तमाम बातें भावात्मक हैं. इनसे कोई ठोस संकेत नहीं मिलते. इसलिए कि असल सवाल अमेरिका की शर्तें और भारत की रेड लाइंस हैं. पिछले दिनों अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक दो टूक अपनी शर्तें बताई थीं. कहा था कि इन्हें मान कर ही भारत व्यापार वार्ता में आगे बढ़ पाएगा. लुटनिक ने तो यहां तक कहा था कि ‘एक- दो महीनों के अंदर भारत माफी मांग कर फिर से बातचीत शुरू करेगा.’

लुटनिक की ये बातें गौरतलब हैं:

  • भारत या तो रूस और चीन के साथ रह सकता है या अमेरिका के साथ.
  • उसे अपना पूरा बाजार अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलना होगा.
  • भारत को रूसी तेल की खरीद रोकनी होगी.
  • और ब्रिक्स का साथ उसे छोड़ना होगा.
  • भारत को डॉलर को समर्थन देना होगा, वरना 50 फीसदी टैरिफ उसे झेलनी पड़ेगी.’

क्या भारत सरकार इन शर्तों को मानेगी? इन शर्तों के बरअक्स भारत की ये लक्ष्मण रेखाएं हैः

  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एलान कर चुके हैं कि वे “किसी के दबाव” में आकर किसानों और पशुपालकों के हितों पर समझौता नहीं करेंगे.
  • रूस से कच्चे तेल की खरीदारी के मुद्दे पर भारत अब तक यही कहता रहा है कि यह उसका संप्रभु निर्णय है—यानी इस बारे में वह किसी दूसरे देश के दबाव में आकर फैसला नहीं करेगा.
  • बेशक ब्रिक्स का सदस्य रहना या ना रहना भी संप्रभु निर्णय के दायरे में ही आता है. यानी इन मुद्दों को समझौता संप्रभुता से समझौता माना जाएगा.

जाहिर है, भारत का व्यापार वार्ता में आगे बढ़ना तब तक नामुमकिन है, जब तक भारत सरकार अपनी आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से के हितों की बलि चढ़ाने और अपनी संप्रभुता पर समझौता करने के लिए राजी ना हो जाए. ट्रंप प्रशासन के सामने ऐसा कोई बुनियादी मुद्दा नहीं है, मगर टैरिफ और ट्रेड वॉर के जरिए वह भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक शक्ति संतुलन को नया रूप देने की कोशिश कर रही है. फिर भी मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन की चिंता में वह अपना रुख कुछ नरम कर ले, तो उस पर कोई हैरत नहीं होगी.

ट्रंप काल में कूटनीति की टूटती मर्यादा

मगर असल नैतिक और व्यावहारिक प्रश्न भारत के सामने हैं. हाल के महीनों में भारत के प्रति अमेरिकी अधिकारियों की भाषा अमर्यादित और अपमानजनक रही है. उस पृष्ठभूमि में अब अगर अमेरिका से संबंध सुधरते भी हैं, तो क्या अभी भी भारत- अमेरिका संबंध को ‘उसूलों पर आधारित रिश्ते’ के रूप पेश किया जा सकेगा? या उसे महाशक्ति और उसके अधीनस्थ देश के रूप में देखा जाएगा? ‘दोनों देशों के बीच व्यापक वैश्विक रणनीतिक सहभागिता है, जो हमारे साझा हितों, लोकतांत्रिक मूल्यों, और जनता के बीच मजबूत रिश्तों पर आधारित है’— अब जब कभी अधिकारी ऐसी बातें कहेंगे, तो क्या लोग उस पर सहज यकीन करेंगे या उसे व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ तिरछी नजर से देखेंगे?

ट्रंप और उनके प्रशासन से सहमति-असहमति चाहे जो हो, उन्हें और उनके अधिकारियों को इस बात का श्रेय देना होगा कि वे कोई लाग-लपेट नहीं रखते. ज्यादातर मामलों में वे जो सोचते हैं, उसे कह भी देते हैं. ट्रंप और उनके साथी जैसे अपने देश में राजनीतिक मर्यादा या भाषा की शालीनता का ख्याल नहीं रखते, वैसे ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कूटनीतिक मर्यादा वगैरह उनकी शैली का हिस्सा नहीं है. वरना, भारत को लेकर गुजरे कुछ महीनों में ट्रंप और उनके अधिकारियों ने जिस अपमानजक भाषा का इस्तेमाल किया, वैसा पहले कभी नहीं सुना गया था.

इस मिसाल पर गौर करें: आम तौर पर समझा जाता है कि राजदूतों का काम, जिस देश में उनकी नियुक्ति हुई हो वहां अपने देश के लिए सद्भावना बढ़ाना होता है. इसलिए बोलते वक्त संबंधित देश की भावनाओं का वे खास ख्याल रखते हैं. मगर ट्रंप काल का हाल इसके विपरीत है. ट्रंप ने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) आंदोलन में अपने सहकर्मी सर्जियो गोर को भारत में अपना राजदूत मनोनीत किया है. अमेरिकी परंपरा के मुताबिक मनोनीत राजदूत की नियुक्ति तब पक्की होती है, जब अमेरिकी सीनेट उस पर अपनी मुहर लगा दे. मंजूरी देने से पहले सीनेटर मनोनीत राजदूत से सवाल-जवाब करते हैं.

सर्जियो गोर ने सीनेट में कहा कि ट्रंप ने भारत से रूसी तेल खरीद बंद करने को कहा है. ब्रिक्स में भारत अक्सर अमेरिका के पक्ष में रहा है और डॉलर से हटने के प्रयासों में रुकावट बना है, क्योंकि वह बाकी देशों से ज्यादा हमारे साथ संबंध चाहता है.

ये दोनों बातें ब्रिक्स+ समूह के भीतर भारत के लिए असहज स्थितियां पैदा करने वाली हैं. इसी साल जुलाई में जब ब्राजील में ब्रिक्स+ का शिखर सम्मेलन हुआ, तो ब्राजील के एक अर्थशास्त्री ने भारत की आलोचना करते हुए उसे ब्रिक्स के भीतर ‘ट्रोजन हॉर्स’ कहा था. ‘ट्रोजन हॉर्स’ का मतलब भितरघात करने वाला होता है. तब इस टिप्पणी को लेकर भारत में नाराजगी पैदा हुई. मगर अब सर्जियो गोर जो कह रहे हैं, क्या उसका भी मतलब वही नहीं है?

उन्होंने कहा कि हमारी प्राथमिकता भारत को चीन से दूर कर अपनी ओर लाना है और व्यापार वार्ता में चाहते हैं कि भारत अपना बाजार हमारे तेल, पेट्रोलियम और एलएनजी के लिए खोले.

मुद्दा यह है कि क्या भारत कोई रीढ़विहीन इधर से उधर झूलने वाला देश है, जिसे कोई मजबूत देश अपनी ओर खींचने के बारे में सोचे? क्या भारत को लालच देकर या धमका कर अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया जा सकता है? किसी देश से संबंध भारत की अपनी प्राथमिकता से तय होता है या उसे कोई अन्य देश अपनी रणनीति के तहत प्रभावित कर सकता है? यही सवाल कच्चे तेल या किसी अन्य वस्तु की खरीदारी से भी जुड़े हुए हैं. भारत चीजों या सेवाओं की खरीदारी अपनी जरूरत से और अपने माफिक सौदों के जरिए करता है, या किसी अन्य देश की प्राथमिकताओं से वह इस बारे में फैसला करता है?

इन सवालों की रोशनी में अमेरिका के मनोनीत राजदूत की टिप्पणियां भारत के लिए घोर अपमानजनक और कूटनीतिक मर्यादा के खिलाफ हैं. गौरतलब यह है कि यह उस व्यक्ति की सार्वजनिक रूप से जाहिर हुई सोच है, जो भारत से अमेरिका के रिश्तों को स्वरूप देने के लिए नई दिल्ली आ रहा है.

भारत-अमेरिका संबंध की हकीकत 

वैसे सर्जियो गोर की नियुक्ति जिस तरह से हुई, वह भी भारत को कम असहज करने वाली बात नहीं है. गोर भारत में अमेरिकी राजदूत होने के साथ-साथ दक्षिण और मध्य एशिया के लिए विशेष अमेरिकी दूत भी होंगे. यानी ट्रंप ने भारत को इन क्षेत्रों से संबंधित देशों के साथ एक समूह में रखा है. मतलब यह कि उनकी निगाह में भारत इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यहां के लिए एक विशिष्ट राजदूत की नियुक्ति की जाए! सर्जियो गोर के कार्यक्षेत्र में जो देश आएंगे, उनमें पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी हैं. ऐसे में इस आशंका का आधार है कि सर्जियो गोर अपने बॉस यानी ट्रंप की तरह भारत और पाकिस्तान को समान पलड़े पर रखने की नीति पर चल सकते हैं.

ट्रंप, उनके वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक, वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट, ट्रेड सलाहकार पीटर नवारो और सर्जियो गोर की अनेक टिप्पणियां वर्तमान अमेरिकी प्रशासन की भारत के प्रति असल सोच और उनकी प्राथमिकताओं का प्रमाण हैं. सवाल है कि जब अमेरिका की ऐसी सोच और प्राथमिकताएं हैं, तो भारत को उससे किस तरह के संबंध और सहभागिता की अपेक्षा रखनी चाहिए?

इसके पहले अमेरिका और भारत की सरकारों के बीच परदे के पीछे क्या और किस लहजे में बात होती थी, इसे जानना आम लोगों के लिए मुश्किल होता था. कभी-कभार छन कर ऐसी बातें जरूर बाहर आती थीं कि अमेरिकी नेता सार्वजनिक रूप से जितने शिष्ट और मर्यादित दिखते हैं, द्विपक्षीय वार्ताओं में उनका वैसा रूप नहीं रहता. वहां वे दबाव डालने और धमकियां देने की हद तक चले जाते हैं. मगर जब वे प्रेस के सामने आते थे, तो उनकी जुबान से लच्छेदार भाषा ही निकलती थी. अब यह मर्यादा टूट चुकी है.

नतीजतन, यह सामने आ गया है कि अमेरिका भारत से अपने संबंधों को किस रूप में देखता है. पहले बताया जाता था कि भारत और अमेरिका का रिश्ता उसूलों पर आधारित है। एक (अमेरिका) सबसे पुराना संवैधानिक लोकतंत्र है, और दूसरा (भारत) दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र. दोनों देश खुलेपन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, और नियम आधारित विश्व व्यवस्था में यकीन करते हैं. इसलिए दोनों नेचुरल पार्टनर हैं.

मगर गुजरे महीनों में ट्रंप प्रशासन ने इन बातों की पोल खोल दी है. उनके प्रशासन के अधिकारियों ने उनकी निगाह में जो सच है, उसे बता दिया है. इसकी प्रतिक्रिया में पूर्व अमेरिकी प्रशासनों के अधिकारियों ने भी खुल कर कहा है कि चीन का मुकाबला करने की अपनी रणनीति के तहत उन्होंने भारत से संबंध मजबूत करने को खास तव्वजो दी. उन्होंने ट्रंप प्रशासन की इसलिए आलोचना की है कि उसने भारत को निशाने पर लेकर उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है.

मतलब यह कि भारत का सारा महत्त्व चीन के खिलाफ अमेरिकी रणनीति में उसकी उपयोगिता के कारण है! ऊपर से भारतीय मध्य वर्ग का बाजार है, जिसके बारे में सर्जियो गोर ने कहा कि यह ‘अमेरिकी आबादी से भी ज्यादा बड़ा है।’ अमेरिका को ये बाजार चाहिए! बाकी सब बातें बेकार हैं!

इस अमेरिकी सोच के बीच भारत के हित कहां हैं, यह भारत सरकार को तय करना है. उसे तय करना है कि क्या अब भी वह अपने सारे दांव अमेरिका पर लगाने का जोखिम उठाए रखेगी, भले इसके लिए अन्य संबंधों की बलि चढ़ानी पड़े?

व्यक्त विचार निजी हैं.


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