क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में राममनोहर लोहिया इतने महत्वपूर्ण हैं कि हर मंचों से उनका नाम लिया जाए? हाल ही में आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी (सपा) अपने रैली में लोहिया के सपनों को साकार करने का दावा पेश कर रही थी. वहीं यूपी विधानसभा में सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सपा पर यह आरोप लगाते है कि वे केवल लोहिया का नाम लेती है, लेकिन उनके आदर्शों का ख्याल नहीं रखती है.
इन आरोपों-प्रत्यारोप में यह जानना दिलचस्प होगा कि वर्तमान में ये महारथी जो अपने आप में ही विचारधारा का रूप ग्रहण कर चुके है वे कितने प्रासंगिक हैं? इस पूरे प्रसंग को शुरू से शुरू करने के लिए 1963 के उस उपचुनाव से शुरुआत करना दिलचस्प होगा जहां लोहिया खुद एक ऐसे चौराहे पर खड़े थे.
सत्ता के वर्चस्व को तोड़ने की पहली राह
इसका एक रास्ता गैर-कांग्रेसवाद की विचारधारा को स्थापित करने और एक पार्टी के वर्चस्व को खत्म करने की ओर जाता है. जहां लोहिया खुद फर्रुखाबाद से चुनाव लड़ रहे थे. यही वह रास्ता था जहां लोहिया अपने सैद्धांतिक आधारों को व्यवहारिक राजनीति का हिस्सा बनाना चाहते थे.
वहीं दूसरा रास्ता, उस संविदात्मक राजनीति (राजनीति में पार्टियों या नेताओं के बीच समझौते और सौदे करके सत्ता पाना या बनाए रखना) की ओर जाता है जहां वह चाहते थे कि सरकारें अलाभकारी खेती पर टैक्स माफ़ करें, अंग्रेजी के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करें, फौज़दारी कानून के प्रतिक्रियावादी अनुच्छेदों को मुल्तवी करें.
लोहिया ने सरकार और सत्ता के केंद्रीकरण का विरोध किया और ‘चौखंभा राज’ व ‘सप्त क्रांति’ का सिद्धांत दिया. उनका सपना था कि धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, रंग, नस्ल और लिंग जैसी हर तरह की असमानता को खत्म किया जाए. लोहिया के इस नए समाजवादी आंदोलन और नए सपने ने भारतीय राजनीतिक पटल पर कई नेताओं को एक साथ ला दिया. जिसमें आचार्य नरेंद्र देव, राजनारायण, मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नान्डिस, ब्रजभूषण तिवारी, मधु लिमये और रामसेवक यादव और आगे चल कर मुलायम सिंह यादव मुख्य रूप से शामिल थे.
‘ज़िंदा कौमें पांच साल इंतिज़ार नहीं करतीं’ लोहिया का यह नारा उत्तर प्रदेश में तब रंग लाया जब 1967 में कांग्रेस का प्रभुत्व अपनी अंतिम सांसे ले रहा था. प्रदेश की राजनीति एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन की उड़ान भर रही थी. जिसे लोहिया ने पंख दिया. पिछड़ों और किसानों की राजनीति और मुखर होकर सामने आई. जिसकी वजह से कांग्रेस के पारंपरिक ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया-मुस्लिम समीकरण को चुनौती मिली. लेकिन इन परिवर्तनों के इतर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता की भी शुरुआत हुई. इसी दौर में आया राम गया राम की राजनीतिक कहावत मशहूर हुई.
तीसरा रास्ता, प्रदेश की राजनीतिक संरचना को परिवर्तित करने का था. जिसमें सामाजिक पहलुओं का लक्ष्य सामने रखा गया. क्योंकि गोवा आंदोलन की समीक्षा करते हुए डॉ लोहिया यह जान चुके थे कि अगड़ी जाति के नेता आंदोलन कि देखरेख के नाम पर जेल जाने से बचते रहे और पिछड़ी जातियों से आए कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया. साथ ही आंदोलन और समाजवाद कि धारा में नेतृत्व कर रहे 90 प्रतिशत ब्रह्माण है और कार्यकर्ता पिछड़ी जातियों के है. लेकिन वह यही पल था जब डॉ लोहिया के दिमाग में पिछड़े वर्गों को दिए जाने वाले विशेष अवसर के सिद्धांत ने करवट ली.
डॉ लोहिया ने तय किया कि पिछड़ों और दलितों में नेतृत्व की क्षमता पैदा करने के लिए पार्टी के अंदर पदों के आरक्षण का सिद्धांत लागु करेंगे. भले ही उससे पार्टी का कुछ नुकसान ही क्यों न हो. इसके बाद अक्सर ऐसा होने लगा कि कुछ गैर- पिछड़ों और कुछ गैर-दलित नेताओं से इस्तीफा दिलवाकर पिछड़ों और दलित नेताओं को कार्यकर्ता होने के साथ साथ पद भी मिलने लगे.
दरअसल, यह पिछड़ों में राजनीतिक नेतृत्व के प्रतिक्षण की शुरुआत थी. साथ ही यह आरक्षण की राजनीति की पहली प्रसव पीड़ा भी थी. जिसका लाभ आगे चल कर सूबे में सिर्फ पिछड़ी जाति के नेताओं को पद ही नहीं मिले बल्कि मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह तथा मायावती जैसे मुख्यमंत्री भी मिले. यह लोहिया के उस सपने कों धरातल पर उतार दिया जहां उन्होंने कहा था कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में एक दलित मुख्यमंत्री होना चाहिए. लगभग प्रदेश की कायापलट की राजनीति में आए इस परिवर्तन से यह अंदाजा लगाया जा चुका था कि सूबे की बागड़ोर पिछड़ी और दलितों संतानों के हाथों में ही रहेगी. जिससे सामाजिक न्याय की राजनीति अपने परवान पर चढ़ेगी और लोहिया के सपनों को साकार किया जाएगा.
लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने एक भाषण में लोहिया ने कहा था ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ उनका तर्क था कि भारत की राजनीति और सत्ता में पिछड़ों की 60 प्रतिशत के करीब हिस्सेदारी होनी चाहिए. यही नारा आगे चल कर मंडल राजनीति का आधार बना. जिससे प्रदेश की राजनीति में लोहिया के सपनों को व्यवाहरिकता का आधार मिला.
चौथा रास्ता: हिंदुत्व को जनाधार में बदलने की खोज
लेकिन सत्ता के खेल ने लोहिया के सपनों को वे राजनीतिक दल भी दरकिनार करने लगे जो अधिकारिक रूप से उनके विचारधारा का वाहक कहे जाते हैं. मसलन, समाजवादी पार्टी 2027 के विधानसभा चुनाव कि तैयारी में जिस लोहिया के सपने को साकार करने का दमभर रही है वह पीडीए के फार्मूले से चलता है.
इसलिए उनके हर रैली में बजने वाला गाना “लोहिया मुलायम सिंह वाला उद्देश्य का, स्वागत करिए पीडीए के नेता अखिलेश का.” यह उद्देश्य पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक गोलबंद से जुड़ा हुआ था. जिसका लाभ एसपी पिछले विधानसभा चुनाव में ले चुकी है. लेकिन अब पीडीए की परिभाषा में “पी” के मायने बदल रहे हैं. मसलन, उत्तर प्रदेश में विपक्ष के नेता के रूप में माता प्रसाद पाण्डेय को चुनना ‘पी फॉर पंडित’ के मयाने से जुड़ गया है. जबकि पांडे की तरफ़ से इस पद की कोई दावेदारी नहीं थी.
विधानसभा के विपक्ष के नेता के लिए पार्टी के वरिष्ट नेता इंद्रजीत सरोज और शिवपाल यादव के बीच चुनाव होना था लेकिन सपा के आलाकमान ने माता प्रसाद पांडे को विपक्ष का नेता बना कर पार्टी के भीतर ही एक राजनीतिक विरोधभास बना दिया है. समाजवादी पार्टी का यह कारनामा कोई नया नहीं है. इसकी शुरुआत 1997 में रायबरेली के एक सम्मेलन से शुरू हुई थी. जहां पचास हज़ार ब्राह्मणों ने हिस्सा लिया. इस सम्मलेन को होशियारी से ‘बुद्धिजीवी महासम्मलेन’ का नाम दिया गया.
मुलायम सिंह ने सम्मेलन में दावा किया कि वे सवर्ण विरोधी कतई नहीं है. उनकी सरकार में सबसे ज्यादा ब्राह्मणों को मंत्री बनाया गया. रही बात मायावती की प्रतिक्रिया कि जहां उन्होंने सपा के द्वारा ब्राह्मण चहरे को नेता विपक्ष चुने जाने पर वह आरोप लगाती है कि पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोट लेने के बाद उन्हें नज़रअंदाज किया गया. यह आरोप बसपा तब लगा रही है जब वह खुद ब्राह्मण वोट को साधने में लगी हुई है.
चौथा रास्ता, हिंदुत्व की राजनीतिक ताकत को जनाधार में बदलने की ओर जाता है. इस रास्ते की खोज तब हुई जब उत्तर प्रदेश में उपचुनाव का दौर था और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव लड़ रहे थे. लोहिया गैर-कांग्रेसवाद के लिए ‘एक झंडा एक उम्मीदवार’ की रणनीति के तहत अपने कार्यकर्ताओं को यह निर्देशित कर रहे थे कि वह दीनदयाल उपाध्याय का समर्थन करें. दीनदयाल के चुनावी सभाओं में जा कर लोहिया ने यह कहा कि कांग्रेस को हराना, आज़ादी बचाना ज़रूरी है. साथ ही लोहिया ने दीनदयाल को व्यक्तिगत रूप से भी नैतिक समर्थन दिया और उन्हें एक योग्य, ईमानदार, वैचारिक राजनेता बताया. हालांकि दीनदयाल यह चुनाव हार गए.
2027 की कसौटी: लोहिया की असली विरासत किसके पास?
खैर, लोहिया का संबंध केवल दीनदयाल उपाध्याय से ही नज़दीकी तौर पर नहीं था बल्कि नानाजी देशमुख के साथ भी उनका अच्छा संबंध था. लोहिया और नानाजी देशमुख ने सूबे की राजनीति में उस समय अहम भूमिका निभाई जब चौधरी चरण सिंह को पहली बार प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जा रहा था. 1971 तक जोड़ तोड़ के ज़रिए उत्तर प्रदेश में चंद्रभानु गुप्त, त्रिभुवन नारायण सिंह और कांग्रेस मदद से चरण सिंह बारी-बारी से मुख्यमंत्री बने और हटे. इस समय तक कांग्रेस में भी विभाजन हो चूका था जिसका लाभ उसे 71 के आमचुनाव में मिला. कांग्रेस की भारी जित के समाने समाजवादी दिग्गज़ धराशाही हो गए. समाजवादी विचार एक बार भी लामबंद होने का प्रयास कर रहा था लेकिन जल्द ही बढ़ती हुई सत्ता की महत्वकांक्षा और कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्ववाली पार्टी कई टुकड़ों में बट गई.
इस घटना ने भारतीय राजनीति में तीन प्रवृतियों को जन्म दिया. एक, जिसकी परिणिति 1967 में कांग्रेस के पराजय और उसे मिलने वाले चुनौतीयों की शुरुआत हुई. दूसरा, संयुक्त विधायक दल एक राजनीतिक विकल्प के तौर पर उभर का समाने आया. तीसरा, विपरीत विचारधाराओं में रणनीतिक सहयोग की शुरुआत हुई. सामाजवादी और जनसंघ के बीच बढ़ता आपसी सहयोग इस काल की सबसे अहम घटनाओं में से एक थी. जिसने समाजवाद को वैचारिक कसौटी से बाहर निकालकर रणनीतिक कसौटी का अंग बना दिया.
इन सारे विश्लेषणों से साफ है कि आज के उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोहिया के सामाजिक न्याय, बहुदलीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राजनीति जैसे विचार सिर्फ राजनीतिक नारे बनकर रह गए हैं. एक तरह समाजवादी परंपरा से निकली समाजवादी पार्टी लोहिया को अपना वैचारिक गुरु मानती है, प्रत्येक राजनीतिक मंच से बिना लोहिया का नाम लिए उसका कोई दौरा पूरा नहीं होता. लेकिन लोहिया के विचार को आंशिक रूप से जिंदा रखने वाली सपा सामाजिक न्याय को जाति राजनीति तक सिमित कर रही है.
साथ ही सपा अल्पसंख्यक, पिछड़ों और वंचितों के समीकरण को फिर से मज़बूत करने के बजाए वर्चस्वशाली जातियों में अपने नेता ढूंढने लगी है जो पिछड़ा पावे सौ में साठ जैसे लोहिया के सपने के विपरीत है. वही दूसरी तरह प्रदेश में बीजेपी की सरकार ने लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के संबंधों को नए ढंग से पेश करते हुए लोहिया की विरासत का दावा करती रही है. 2022 के चुनाव प्रचार में सूबे के मुख्यमंत्री ने यह दावा किया है कि भाजपा ही वह पार्टी है जो लोहिया के सपनों को वास्तविक करते हुए पिछड़ों को प्रतिनिधित्व देने का काम कर रही है.
लोहिया को लेकर इस तरह के दोहरे राजनीतिक विचार प्रदेश में राजनीतिक विरोधाभास पैदा करते हैं. जिसे दो पक्षों पर समझने की आवश्यकता है. एक, विरोधाभास लोहिया के राजनीतिक कार्यवाहियों में जनसंघ के समर्थन से पैदा हुआ है. दूसरा, लोहिया की विरासत का दावा करने वाले राजनीतिक दलों में आए मूल विचारों के विचलन से पैदा हुआ है. 2027 के विधानसभा चुनाव में लोहिया की राजनीति का असली उत्तराधिकारी वही होगा जो सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता प्राप्ति की रणनीति नहीं बल्कि जनहितकारी लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करेगा.
डॉ. प्रांजल सिंह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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