scorecardresearch
Tuesday, 12 August, 2025
होममत-विमतकाकोरी एक्शन के 100 साल: इतिहास के पन्नों से गायब वह सात क्रांतिकारी

काकोरी एक्शन के 100 साल: इतिहास के पन्नों से गायब वह सात क्रांतिकारी

राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला और चंद्रशेखर आज़ाद के साथ सात और वीर थे, जिनके नाम शायद आपने कभी नहीं सुने.

Text Size:

इस साल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रसिद्ध घटना काकोरी ट्रेन एक्शन के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं. 9 अगस्त 1925 को हुई इस साहसिक कार्रवाई ने ब्रिटिश राज को हिला दिया था. देश भर में, खासकर उत्तर प्रदेश में, इस अवसर पर कई समारोह हो रहे हैं, लेकिन यह कहानी केवल बिस्मिल, अशफाक और आज़ाद की नहीं है — इनके साथ सात और ऐसे क्रांतिकारी थे, जो आज लगभग गुमनाम हो चुके हैं. आइए जानते हैं, क्या थी यह घटना और कौन थे वे नायक.

काकोरी ट्रेन एक्शन – एक झलक

9 अगस्त 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए.) के नेता राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ से 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन पर दस क्रांतिकारी सवार हुए. काकोरी नामक कस्बे के पास इन लोगों ने ट्रेन की जंजीर खींच दी. ट्रेन रुकते ही सभी ने हवाई फायर किया और कुछ ही मिनटों में सरकारी खज़ाना हथिया लिया. खजाने के संदूक को अशफाक उल्ला ने अपने बलशाली हाथों से हथोड़ा मार मार के तोड़ा.

उस समय ट्रेन में हथियारबंद पुलिस भी थी, लेकिन कोई उतरने की हिम्मत नहीं कर सका. क्रांतिकारी पैदल ही लखनऊ की ओर निकल पड़े. इस कार्रवाई में उन्हें करीब पांच हज़ार रुपये मिले — जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. बाद में इस मामले में बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान को फांसी हुई, छह साल बाद पुलिस मुठभेड़ में चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए, इन लोगों को तो हम आज भी याद करते हैं लेकिन इस मिशन में शामिल सात अन्य नौजवान इतिहास के पन्नों से गायब हो गए.

गुमनाम नायक

राजेंद्रनाथ लाहिड़ी: लाहिड़ी रोशन सिंह समेत उन चार क्रांतिकारियों में से एक थे जिन्हें काकोरी कांड में फांसी हुई. बंगाल के पबना जिले में 1901 में जन्मे, बाद में बनारस आकर बस गए. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एमए के छात्र रहते ही क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए. काकोरी के बाद उन्हें कोलकाता बम बनाना सीखने भेजा गया, वहीं से गिरफ्तारी हुई. रहस्यमय कारणों से बाकी साथियों से दो दिन पहले, 17 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई. फांसी से तीन दिन पहले उन्होंने लिखा — “मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं! इसलिए मनुष्य मृत्यु से दुःख और भय क्यों माने?…अगर यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है, तो मुझे यकीन है कि हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा.”

भारतवीर मुकुंदीलाल: उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में 1891 में एक समृद्ध वैश्य परिवार में जन्मे मुकुंदीलाल को कुश्ती और पहलवानी का शौक था. 1915 में वे क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के संपर्क में आए और मातृवेदी दल में शामिल हुए. आंदोलन के लिए धन जुटाने के लिए कई अमीरों के घरों पर धावा बोला. ब्रिटिश सरकार को भनक लगने पर वे गिरफ्तार हुए और सात साल की सज़ा पाई. जेल से छूटकर फिर सक्रिय हुए, काकोरी केस में उन्हें आजीवन कारावास मिला. बरेली सेंट्रल जेल में 53 दिन की भूख हड़ताल कर राजनीतिक बंदियों के अधिकार दिलवाए. रिहाई से पहले ही उनकी सारी संपत्ति जब्त हो चुकी थी, आजादी के बाद जीवन मजदूरी करके गुज़रा. 1972 में बेहद गुमनाम परिस्थितियों में मृत्यु हुई.

शचींद्रनाथ बक्शी: बख्शी और अशफाक उल्ला को घटना के दो साल बाद पकड़ा गया. जेल में दोनों ने पहले एक-दूसरे को पहचानने से मना किया, लेकिन हाथ मिलाते ही गले लग गए. अंग्रेज अधिकारियों ने खुश होकर कहा कि इसी भरत मिलाप का उन्हें इंतज़ार था. 1904 में बनारस में जन्मे बख्शी ने युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए कई हेल्थ क्लब बनाए. पार्टी ने उन्हें लखनऊ और झांसी की ज़िम्मेदारी दी. काकोरी में आजीवन कारावास मिला. 1937 में नैनी सेंट्रल जेल में 47 दिन की भूख हड़ताल कर राजनीतिक बंदियों की रिहाई कराई. आज़ादी के बाद ज़मींदारी उन्मूलन आंदोलन में सक्रिय रहे और 1969 में बनारस से विधायक चुने गए.

मन्मथनाथ गुप्त: काकोरी के सबसे युवा, जुनूनी और पढ़ाकू क्रांतिकारी. कम उम्र के कारण फांसी से बचे, लेकिन जेल में क्रांतिकारी साहित्य और सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया. 1907 में बनारस में जन्मे, गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और काशी विद्यापीठ में पढ़ाई की. एचआरए में शामिल होकर सशस्त्र कार्रवाइयों के साथ गांधीजी से अखबार के माध्यम से तीखी बहस की, जिसे गांधीजी ने यंग इंडिया में प्रकाशित किया. 1937 में जेल से छूटने के बाद क्रांतिकारी आंदोलन का विस्तृत इतिहास, अपने संस्मरण और अनेक उपन्यास लिखे, जो आज भी हमारे लिए मूल्यवान दस्तावेज़ हैं.

मुरारी शर्मा: असल नाम मुरारीलाल गुप्ता, शाहजहांपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी. उनके पुत्र दामोदर स्वरूप ‘विद्रोही’ मशहूर कवि हुए. काकोरी के बाद भूमिगत जीवन बिताया, आज़ादी के बाद भी कठिन जीवन जिया. वे कभी रिक्शे पर नहीं बैठे, कहते थे — “रिक्शे पर बैठना शारीरिक श्रम का अपमान है.” 1982 में उनका निधन हुआ.

बनवारी लाल: काकोरी में शामिल थे लेकिन बाद में सरकारी गवाह बन गए.

केशव चक्रवर्ती: बनारस के निवासी, उत्कृष्ट तैराक. काकोरी से मिले धन के साथ कोलकाता भेजे गए, जहां से एक जर्मन जहाज से कई माउज़र पिस्तौल खरीद के लाए. आगे चलकर इन हथियारों का इस्तेमाल चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने किया.

काकोरी ट्रेन एक्शन सिर्फ एक सशस्त्र कार्यवाही नहीं — यह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक खुला ऐलान था. इन गुमनाम नायकों की कहानियां हमें याद दिलाती हैं कि आज़ादी की कीमत सिर्फ मशहूर नामों ने नहीं, बल्कि अनगिनत अज्ञात चेहरों ने भी चुकाई.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: कोई नहीं जानता, ‘स्किल इंडिया’ कार्यक्रमों के 48,000 करोड़ कहां चले गए


 

share & View comments