अमेरिका के साथ भारत के रक्षा संबंध पिछले एक दशक से मजबूत हो रहे हैं. हिचकिचाहट भरी शुरुआत से लेकर कई चरणों में साझीदारी साझा रणनीतिक हितों की खातिर आगे बढ़ती गई. शुरू में शुद्ध लेन-देन का, खरीदार-विक्रेता वाला रिश्ता रहा, जिसमें विशेष खरीद के करार होते रहे. अब यह रिश्ता वैश्विक भू-राजनीतिक गणित में केंद्रीय महत्व हासिल कर चुका है. लेकिन यह विकसित होता रिश्ता अब दबाव भी झेल रहा है, खासकर भारतीय निर्यातों पर अचानक 25 फीसदी शुल्क और रूस से तेल खरीदने पर अनिश्चित ‘जुर्माना’ थोपने के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के फैसले के कारण.
आर्थिक संबंधों में कलह के बावजूद सुरक्षा क्षेत्र में सहयोग, और इसे जारी रखने के लिए किए गए कई औपचारिक समझौते भारत के लिए अवसर भी जुटा रहे हैं और चुनौती भी पेश कर रहे हैं. मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को गंवाए बिना या उसे बदलते राजनीतिक एजेंडों के साथ जोड़े बिना अमेरिका के साथ सुरक्षा सहयोग को और गहराई दे सकता है?
अमेरिकी समर्थन कितना भरोसेमंद?
भारत-अमेरिका रक्षा संबंध का ढांचा कई समझौतों, संयुक्त सैन्य अभ्यासों, और साझा विकास की पहल पर टिका है, जो केवल प्रतीकात्मक महत्व का नहीं है. ‘कॉमकासा’ (कम्यूनिकेशंस, कॉम्पैटिबिलिटी ऐंड सिक्यूरिटी एग्रीमेंट), ‘बेका’ (बेसिक एक्सचेंज ऐंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट), और इंडस्ट्रियल सिक्यूरिटी एनेक्स ने खुफिया सूचनाओं की साझीदारी, सैन्य साजोसामान के साझा इस्तेमाल, और अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी तक सुरक्षित पहुंच को आसान बनाया है. एक समय था जब इन संधियों को हस्तक्षेप या भारत के पारंपरिक गुटनिरपेक्ष रुख के विपरीत माना जाता था, लेकिन उनका इस्तेमाल अब समुद्र क्षेत्र की निगरानी, ‘डोमेन’ के बारे में जागरूकता, और एयर डिफेंस क्षमताओं को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है.
ऑपरेशनों में साझीदारी भी मजबूत हुई है. भारत ने एमक्यू-9बी प्रिडेटर ड्रोन, बहुद्देशीय एमएच-60आर नौसैनिक हेलिकॉप्टर खरीदने, और देसी फाइटर जेट विमानों के लिए जीई-414 इंजिन का साझा उत्पादन करने का जो फैसला किया है वह न केवल सेना के आधुनिकीकरण का संकेत है बल्कि क्षेत्रीय खतरों और खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक तेवर के आकलन में तालमेल को भी उजागर करता है. INDUS-X और iCET जैसे कदमों के तहत अब खरीदारी से आगे बढ़कर साझा विकास, स्टार्ट-अप के विकास, आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस (‘एआई’), क्वांटम कंप्यूटिंग (क्यूसी), और ऑटोनोमस वेपन्स सिस्टम (एडब्लूएस) के क्षेत्रों में साझा अनुसंधान को बढ़ावा दिया जा रहा है. ये प्रयास अल्पकालिक बढ़त लेने की जगह दीर्घकालिक रणनीतिक साझीदारी की ओर इशारा करते हैं.
लेकिन इसमें भी कुछ गड़बड़ है. भारतीय निर्यातों पर 25 फीसदी शुल्क लगाने का अमेरिकी फैसला दरअसल रक्षा एवं ऊर्जा के क्षेत्रों में रूस-भारत सहयोग से अस्पष्ट रूप से जुड़ा है. यह इस स्थायी दुविधा को उजागर करता है कि अमेरिका का जो रणनीतिक रुख है और उसका जो बिनाशर्त समर्थन है वह घरेलू राजनीतिक जरूरतों या ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) जैसे वैचारिक बदलावों की कसौटी पर कितना स्थिर और भरोसेमंद साबित होगा?
भारत के तीन चौथाई निर्यातों को प्रभावित करने वाले इन शुल्कों से यही संकेत मिलता है कि आर्थिक कार्रवाई को रणनीतिक दबाव डालने वाली विदेश नीति के सुविधाजनक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. चूंकि ये शुल्क.रक्षा संबंधों में किसी दरार के कारण नहीं बल्कि भारत द्वारा रूस से निरंतर तेल खरीदने और सैन्य औज़ार आयात करने से उपजे असंतोष के कारण लगाए गए हैं, इसलिए ये अमेरिका की विश्वसनीयता से जुड़े पेंच को उजागर करते हैं.
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता पर हमला
यह तनाव अमेरिकी कूटनीति के पाखंडपूर्ण दोहरेपन का खुलासा करता है, क्योंकि यह रणनीतिक लक्ष्यों में तो साझीदारी चाहती है लेकिन मेल के लिए दबाव डालने के साधन भी अपने हाथ में रखना चाहती है. भारत के लिए, इस तरह के कदम अहम सवाल खड़े करते हैं और उसकी रणनीतिक स्वायत्तता की नीति के मूल पर ही हमला करते हैं. क्या भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग ऐसे वातावरण में आगे बढ़ सकता है जिसमें भारत की व्यापक आर्थिक एवं विदेश नीति संबंधी फैसले के लिए उसे दंडित किया जाता हो? किसी लड़ाई के दौरान भारत अगर उस बहुआयामी विदेश नीति को आगे बढ़ाता है जिसमें रूस और ईरान जैसे देशों (जिन्हें अमेरिका दुश्मन मानता है) को जोड़ा जाता है, तब क्या उसे अमेरिकी सैन्य साधनों और सप्लाइ चेन के उपयोग से वंचित या प्रतिबंधित किया जाएगा?
इसका जवाब सुरक्षा सहयोग की संस्थागत गहराई को राजनीतिक तेवरों से उपजी विस्फोटकता से अलग रखने में निहित है. व्यापार, जो कि अक्सर ‘मागा’ जैसी चुनावी और घरेलू मजबूरियों से संचालित होता है, के विपरीत रक्षा संबंधी साझीदारी अफसरशाही प्रक्रियाओं, संस्थागत परंपराओं और खतरों के बारे में आपसी समझ से आगे बढ़ता है.
अमेरिकी रक्षा और विदेश विभाग, और भारत के रक्षा और विदेश मंत्रालय लंबी समयसीमा लेकर चलते हैं और राजनीतिक बदलावों के कारण होने वाली उथलपुथल से बेअसर तो नहीं रहते लेकिन उनसे अक्सर सुरक्षित रहते हैं. उदाहरण के लिए, पारस्परिक रक्षा खरीद (आरडीपी) जैसी व्यवस्थाएं, प्रतिदान की शर्तें, और सह-विकास के समझौते कायम रह सकते हैं, उनमें अचानक उलटपुलट की जगह शायद थोड़ा फेरबदल हो सकता है. विदेश मंत्रालय का यह बयान, कि “साझीदारी ने कई बदलावों और चुनौतियों को झेला है”, इस रिश्ते के दीर्घकालिक स्वरूप को दर्शाता है.
अमेरिकी दोहरेपन को भारत समझता है
भारत ने हाल में जो रणनीतिक फैसले किए हैं वे यह संकेत देते हैं की उसे इस दोहरेपन की व्यावहारिक समझ है. अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग में तेजी आई है और भारत फ्रांस (राफेल विमान), इजरायल (मिसाइल), और रूस (एस-400 सिस्टम्स) समेत कई सैन्य सप्लायरों को चुन रहा है. यह भारत के इस विवेक को दर्शाता है कि रणनीतिक साझीदारी का मतलब रणनीतिक निर्भरता नहीं होता. एफ-35 विमानों की खरीद के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने से इनकार का प्रतीकात्मक महत्व तो है ही, यह भारत की इस मंशा को भी जाहिर करता है कि वह राजनीतिक रूप से संवेदनशील ऐसी खरीद से बचना चाहता है जो कूटनीतिक लचीलेपन को नष्ट कर सकती है या क्षेत्रीय तनावों को जन्म दे सकती है.
इसी के साथ, भारत अपनी रक्षा प्रतिबद्धताओं का बड़ी कुशलता से उपयोग मोल-तोल करने के लिए कर सकता है. प्रिडेटर ड्रोन से लेकर नौसेना के लिए जीई-414 इंजिन तक की भविष्य में खरीद करने का प्रचार करके वह रणनीतिक मामले में प्रलोभन दे सकता है. अमेरिका से शुल्कों में रियायत, बाजार तक पहुंच, और व्यापार वार्ताओं में नियमन संबंधी बाधाओं में कमी हासिल करने की कुंजी उसके पास है. इसका नतीजा साफ है. रक्षा सौदे के एवज में प्रतिदान के लिए अमेरिकी फ़र्मों को करार के मूल्य एक हिस्से के बराबर भारत में निवेश करना पड़ेगा. इस प्रतिदान को अमेरिका में रोजगार पैदा करने और रणनीतिक दृष्टि से अनुकूल अवसरके रूप में पेश किया जाएगा. यह व्यापार में रियायतें देने या पारस्परिक खरीद के प्रस्तावों के विरोध को शांत करेगा.
‘प्रलोभन’ देने की यह चाल इतनी दूर तक ही जा सकती है. अमेरिकी वार्ताकार भारत में कृषि पर ऊंचे शुल्कों, डिजिटल स्थानीयकरण नीतियों, और जीएम फसलों के प्रति प्रतिरोध को लेकर असंतुष्ट हैं. इन्हें वे खुले व्यापार के लिए बंधन मानते हैं. भारत अमेरिका से रक्षा खरीद में बड़ा इजाफा करता है तब भी ये अनसुलझी आर्थिक शिकायतें बनी रहेंगी. इससे भी अहम यह है कि रूस के साथ भारत के ऊर्जा और रक्षा संबंधी जो रिश्ते हैं उनके कारण, और अमेरिका की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों का पालन करने से ऐसे विस्फोटक हालात बन सकते हैं जिनसे केवल रक्षा संबंधी साझीदारी के बूते पार नहीं पाया जा सकता. सार यह कि, रक्षा सहयोग से आपसी विश्वास बढ़ेगा लेकिन यह विदेश नीति या व्यापार के मामले में व्यापक असहमतियों के लिए कवच का काम नहीं करेगा.
बाहरी कारकों के भरोसे न रहें
यह हकीकत भारत को अपनी दीर्घकालिक रक्षा-उद्योग रणनीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर करती है. प्रमुख सैन्य साधनों का देसी स्तर पर विकास, वैमानिकी में नये आविष्कार, और घरेलू मैनुफैक्चरिंग में निवेश अब गौण नहीं रह गया है बल्कि रणनीतिक जरूरत बन गई है. ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे कदमों को नौकरशाही टालमटोल से बचाना होगा ताकि भारतीय सेना का आधुनिकीकरण विदेशी सप्लायरों पर निर्भर न रहे, चाहे वे सप्लायर कितने भी दोस्ताना क्यों न हों. यूरोपीय संघ (फ्रांस, जर्मनी, इटली), जापान, दक्षिण कोरिया, और आसियान आदि दूसरे सहयोगियों के साथ रक्षा कूटनीति का लाभ भारत को उठाना चाहिए ताकि अमेरिका पर निर्भरता घटे और उसके लिए विकल्पों में वृद्धि हो.
मौजूदा उथलपुथल के बावजूद अमेरिका अपनी रक्षा व्यवस्था और टेक्नोलॉजी में अपनी बढ़त के कारण भारत का एक अहम सहयोगी बना हुआ है. खासकर ‘क्वाड’ जैसे बहुपक्षीय मंच पर कूटनीतिक समर्थन भारत के दीर्घकालिक हितों के लिए काफी महत्व रखता है. अंततः, एक दीर्घकालिक सुरक्षा सहयोगी के रूप में अमेरिका की विश्वसनीयता न केवल निरंतरता पर, बल्कि रक्षा संबंधों और ऑपरेशन संबंधी साझीदारी की मजबूती के मामले में कोई समझौता किए बिना अपनी रणनीतिक स्वायत्तता कायम रखने की भारत की क्षमता पर भी निर्भर करती है.
जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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