नई दिल्ली: पिछले महीने मध्यप्रदेश सरकार ने घोषणा की कि जो एमबीबीएस छात्र वार्षिक परीक्षा हिंदी में देने का विकल्प चुनेंगे, उन्हें परीक्षा शुल्क में 50 फीसदी की छूट दी जाएगी. भाषा में टॉप करने वाले छात्रों को नकद पुरस्कार भी दिया जाएगा, जिसमें सबसे बड़ा पुरस्कार 2 लाख रुपये का होगा.
इसके पीछे वजह है 2022 में शुरू की गई एक पहल को कमजोर प्रतिक्रिया मिलना, जिसके तहत एमपी में हिंदी में कोर्स शुरू किया गया था. देश में ऐसा पहली बार हुआ था.
16 अक्टूबर 2022 को भोपाल में एमबीबीएस कोर्स हिंदी में लॉन्च करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुरूप है, जिसमें छात्रों की मातृभाषा में प्राथमिक, तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा देने पर जोर दिया गया है. शाह ने इसे “शैक्षणिक क्रांति” बताते हुए एमबीबीएस प्रथम वर्ष की किताबें समर्पित की थीं, जिन्हें अंग्रेजी से हिंदी में अनुवादित किया गया था और 10 करोड़ रुपये की लागत से मंगाया गया था.
अगले दो वर्षों में छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार समेत कम से कम चार अन्य राज्यों की राज्य सरकारों ने इस परियोजना को लागू करने की योजना की घोषणा की.
हालांकि, कुछ छात्र अपनी भाषा में चिकित्सा पढ़ने के विचार से उत्साहित होकर किताबें ले गए—जो ज्यादातर कॉलेज लाइब्रेरी में रखी गई थीं—लेकिन अब तक इन राज्यों में किसी भी छात्र ने एमबीबीएस की परीक्षा हिंदी में नहीं दी है.
छात्रों के अनुसार, इसकी वजह यह डर है कि स्थानीय भाषा में पढ़ाई करने से करियर और संभावनाएं सीमित हो सकती हैं, जिसमें अंग्रेजी दक्षता की मांग होती है.
रेवा की रहने वाली और गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल की द्वितीय वर्ष की एमबीबीएस छात्रा ने कहा, “शुरुआत में हिंदी में पढ़ाई का विचार अच्छा लगा था… लेकिन जब पहला साल खत्म हुआ तो तय करना आसान था कि परीक्षा अंग्रेजी में दूं क्योंकि एविडेंस आधारित मेडिसिन सबके लिए एक जैसी होती है और इसे ऐसी भाषा में पढ़ना बेहतर है जो सबको समझ में आए.”
एमपी मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी के अधिकारियों के मुताबिक, सभी 18 सरकारी मेडिकल कॉलेजों में तीसरे वर्ष तक की हिंदी किताबें उपलब्ध हैं, लेकिन सिर्फ 10-15 फीसदी छात्रों ने इन्हें चुना है. हिंदी में परीक्षा देने वाला कोई नहीं है.
अन्य राज्यों में भी स्थिति ऐसी ही है. बिहार में पिछले साल करीब 20 फीसदी प्रथम वर्ष के छात्रों ने हिंदी किताबें चुनीं, लेकिन इस साल किसी ने परीक्षा हिंदी में नहीं दी. बिहार के विशेष सचिव शशांक सिन्हा ने भी स्वीकार किया कि प्रतिक्रिया उत्साहजनक नहीं रही.
छत्तीसगढ़, यूपी और राजस्थान में भी यही हाल है.
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) के निवर्तमान अध्यक्ष डॉ बी.एन. गंगाधर ने कहा, “जब जापान, चीन, फ्रांस और जर्मनी अपनी मातृभाषा में चिकित्सा पढ़ाकर भी वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं?”
लेकिन महाराष्ट्र मेडिकल काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष डॉ शिवकुमार उत्तुर ने कहा कि हमारी परिस्थितियां उन देशों से अलग हैं और इस पहल पर पर्याप्त विचार या योजना नहीं बनाई गई, इसलिए छात्रों की प्रतिक्रिया कमजोर है.
बाधाएं तोड़ना या बनाना
इस पहल के पक्ष में दिया जाने वाला तर्क यह है कि इससे छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों के छात्रों को सशक्त बनाया जाएगा. “इसका मकसद नए एमबीबीएस छात्रों की उन चुनौतियों को कम करना है जो वे मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने के बाद झेलते हैं. अपनी पहली भाषा में पाठ्यपुस्तक मिलने से पढ़ाई आसान हो सकती है. मुझे भी मेडिकल कॉलेज में पढ़ते वक्त ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ा था क्योंकि मैं अंग्रेजी में बहुत अच्छा नहीं था,” गंगाधर ने दिप्रिंट से कहा.
लेकिन आज के समय में मेडिकल पढ़ने वाले छात्रों की अलग राय है. उनका कहना है कि ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में, जहां एक साझा भाषा में रोज़ विचारों का आदान-प्रदान होता है, यह सोच पुरानी हो चुकी है. छत्तीसगढ़ में जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के सचिव डॉ. अमित बंजारा ने कहा, “वर्तमान परिस्थितियों में एमबीबीएस पाठ्यक्रम का हिंदीकरण एक पिछड़ा कदम है और यह सिर्फ कुछ समूहों को खुश करने का राजनीतिक हथकंडा है.”
दिल्ली के जेरियाट्रिशियन डॉ. हरजीत सिंह भट्टी, जिन्होंने 2010 में गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज जबलपुर से एमबीबीएस किया, का मानना है कि हिंदी में कोर्स करना छात्रों को जिंदगी भर के लिए सीमित कर सकता है.
“यह डॉक्टरों के लिए दरवाजे खोलने के बजाय उनके लिए रुकावटें खड़ी कर सकता है क्योंकि विज्ञान लगातार बदलता है और आधुनिक चिकित्सा के डॉक्टरों को ऐसी भाषा में सहज होना चाहिए जो दुनिया भर में स्वीकार्य और इस्तेमाल होने योग्य हो, चाहे हमारा बैकग्राउंड कुछ भी हो,” भट्टी ने कहा.
मरीजों तक उनकी भाषा में पहुंच
हिंदी में एमबीबीएस के समर्थकों का यह भी कहना है कि हिंदी या भविष्य में उपलब्ध अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने से डॉक्टर मरीजों से बेहतर संवाद कर पाएंगे.
निवर्तमान एनएमसी अध्यक्ष ने कहा कि आंकड़ों के अनुसार करीब 60 प्रतिशत एमबीबीएस पासआउट उसी राज्य में काम करना पसंद करते हैं, जहां से उन्होंने अपना कोर्स किया है.
“ऐसे में यह समझ में आता है कि वे ऐसे भाषा में किताबें पढ़ें जो मरीजों से संवाद करने की भाषा भी हो सकती है,” गंगाधर ने कहा.
कई पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट्स की राय अलग है. “मैं अपनी मातृभाषा में शिक्षा के पक्ष में हूं लेकिन इसे राष्ट्रीय या राज्य भाषा में देने से सहमत नहीं हूं. हिंदी, उदाहरण के लिए, एक शहरी भाषा है जिसे तथाकथित हिंदी बेल्ट के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में न तो बोला जाता है और न समझा जाता है,” छत्तीसगढ़ के पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट रमन वी.आर. ने कहा.
हिंदी बेल्ट की सामान्य बोलचाल की भाषाएं वास्तव में दियावधी, भोजपुरी, ब्रज, खड़ी बोली, मगही, मैथिली, गढ़वाली, कुमाउनी और पहाड़ी हैं, उन्होंने बताया.
विशेषज्ञों का कहना है कि भाषाओं को लेकर सांस्कृतिक सोच बदले बिना गैर-अंग्रेजी भारतीय भाषाओं में उपयोगी किताबें या अध्ययन सामग्री तैयार करना मुश्किल है क्योंकि अधिकांश स्थानीय भाषाओं की संरचना और शब्दावली संस्कृत से काफी प्रभावित है.
“एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने मलयालम और हिंदी में संसाधन और ट्रेनिंग मटीरियल तैयार करने की कोशिश की है, मैंने इन चुनौतियों को देखा है और कई बार खुद संघर्ष भी किया है,” रमन ने कहा.
उन्होंने कहा कि जब तक शिक्षा, प्रशासन और समाज के स्तर पर भाषाओं और संचार के बारे में व्यापक सोच में बदलाव नहीं आता, किसी एक क्षेत्र तक सीमित सुधार से प्रतिक्रिया ही मिलेगी और डॉक्टरों को ग्रामीण आबादी के सांस्कृतिक और व्यवहारिक पहलुओं के बारे में जागरूक करना बेहतर होगा.
पब्लिक हेल्थ में काम करने वाले विशेषज्ञों ने यह भी कहा कि उच्च शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल को उपयोगी बनाने के लिए उस भाषा में शोध पत्रिकाएं भी होनी चाहिए.
उदाहरण के लिए, फ्रेंच, जर्मन, स्वीडिश, चीनी, रूसी और जापानी में गुणवत्तापूर्ण वैज्ञानिक जर्नल मौजूद हैं.
चिकित्सा एक विकसित होती रहने वाली विज्ञान है और डॉक्टरों को लगातार अपना ज्ञान अपडेट करना पड़ता है. मौजूदा पहल ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पुराने डॉक्टर तैयार कर सकती है, कोलकाता के स्वतंत्र पब्लिक हेल्थ कंसल्टेंट डॉ. प्रभीर के.सी. ने कहा.
एनएमसी चेयरमैन ने कहा कि एमबीबीएस कोर्स में हिंदी के प्रयोग और छात्रों की प्रतिक्रिया का आकलन केवल 5-10 साल बाद ही किया जा सकता है.
उन्होंने कहा, “तब हम तय कर सकते हैं कि पहल का मकसद पूरा हुआ या नहीं.”
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