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Saturday, 12 July, 2025
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वाजपेयी से लेकर भागवत तक: मोदी अपवाद और 75 में ‘रिटायरमेंट’ को लेकर BJP में क्यों नहीं होगी चर्चा

बीजेपी में, कम-से-कम शीर्ष स्तर पर पारिवारिक उत्तराधिकार का कोई उदाहरण नहीं मिलेगा. आप देख सकते हैं कि यह वाजपेयी-आडवाणी के दौर में भी हुआ. युवा प्रतिभा की पहचान और उसे मजबूती देने का यह चलन पार्टी अध्यक्ष के चयन के मामले में ज्यादा उल्लेखनीय दिखता है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि नेताओं को 75 की उम्र में रिटायर हो जाने और युवाओं के लिए जगह खाली करने के बारे में सोचना चाहिए. उनके इस बयान पर मेहरबानी करके आप यह मत सोचने लग जाइए कि उन्होंने कोई अवांछित बात कह दी है.

वैसे, कोई प्रतिक्रिया देने में सावधानी बरतना लाजिमी है क्योंकि बीजेपी में और खासकर बीजेपी-आरएसएस रिश्ते के मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा अपवाद रहेंगे. मोदी इस साल 17 सितंबर को 75 साल के हो जाएंगे, और इससे छह दिन पहले भागवत 75 के हो जाएंगे. इन संदर्भों के मद्देनजर भगवत के इस बयान को मोदी के लिए किसी संकेत के रूप में लेना उसमें कुछ ज्यादा पढ़ लेने जैसा होगा. लेकिन सरसंघचालक को हल्के में भी नहीं लिया जा सकता. इस मामले में गौर करने वाली बात यह है कि मराठी में दिए गए अपने इस भाषण में भागवत ने सिर्फ 75 की उम्र में रिटायर होने वाली बात हिंदी में कही. इसे जबान फिसलना नहीं कहेंगे, और न इसकी कोई गलत व्याख्या करने की गुंजाइश है.

मुझे उम्मीद है कि जो लोग राष्ट्रीय राजनीति पर गहरी नजर रखते हैं, वे इस पर जल्दी ही सवाल उठाएंगे. वे मुझे 2005 में आरएसएस के सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन से मेरी दो किस्तों में हुई बातचीत की याद दिलाएंगे, जिसमें सुदर्शन ने 77 के हो चुके लालकृष्ण आडवाणी और 80 के हो चुके अटल बिहारी वाजपेयी से युवाओं के लिए जगह खाली करने को कहा था. उन्होंने वाजपेयी के दामाद और उनके करीबी सहयोगी ब्रजेश मिश्र की कार्यशैली की आलोचना भी की थी. मैंने जब उन्हें यह याद दिलाया कि वाजपेयी ने अपने रिटायर होने की अफवाहों को यह कहकर खारिज कर दिया है कि “ न टायर्ड हूं, न रिटायर्ड हूं”, तो सुदर्शन और भड़क गए थे.

चूंकि उस समय बीजेपी पर वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी की पकड़ मजबूत थी और उन्हें पार्टी के संस्थापकों के रूप में व्यापक सम्मान हासिल था, और चूंकि उस समय उनकी कुर्सियों का कोई दावेदार नहीं था इसलिए सुदर्शन की तुरंत आलोचना हुई, बेशक वह दबी-दबी ही रही. कहा गया कि वे खुद उम्रदराज हो चुके हैं और उनकी उम्र का असर उनके दिमाग पर होने लगा है. लेकिन सच्चाई कुछ और थी. बीजेपी/आरएसएस के नजरिए से उनकी गलती सिर्फ यह थी कि उन्होंने गलत समय पर वह बयान दिया था. इससे पिछले साल ही पार्टी आम चुनाव में हार गई थी और उसे उस समय उत्तराधिकार के किसी संघर्ष में उलझना नहीं था. सार यह कि उन्हें मालूम था कि वे क्या कर रहे हैं, और बाद में वे सही भी साबित हुए.

उनके बयान ने रास्ता साफ कर दिया था. संभावित उत्तराधिकारियों की पूरी कतार उभरने लगी: राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी, और सबसे उल्लेखनीय, अहमदाबाद में बैठे नरेंद्र मोदी. उन्होंने बीजेपी के अंदर नेतृत्व को लेकर अमेरिकी शैली की होड़ की शुरुआत करवा दी. 2012 में तीसरी बार विधानसभा चुनाव जीतने तक मोदी उस होड़ में आगे निकल गए.

आप बीजेपी/आरएसएस को पसंद करते हों या न करते हों, आपको मानना पड़ेगा कि भारतीय राजनीति में उनकी ‘एच.आर. सिस्टम’ (मानव संसाधन व्यवस्था) सबसे मजबूत और योग्यतापरक है. दशकों से वे अपनी ‘शाखा सिस्टम’ के जरिए नेताओं की पीढ़ियां तैयार करते रहे हैं.

यह विषयांतर होगा लेकिन यह एक महत्वपूर्ण बात है कि भारत के राजनीतिक इतिहास में जितनी पार्टियां उभरीं उनमें बीजेपी ही एक ऐसी पार्टी है जिसमें न्यूनतम दलबदल या टूट हुई है. विचारधारा का फेवीकोल उन सबको एक ही तंबू के नीचे एकजुट रखता रहा है, भले ही कुछ असंतोष भी रहा हो. कल्याण सिंह या येदिउरप्पा सरीखे कुछ प्रमुख नेता पार्टी से अलग हुए, लेकिन फिर वापस भी लौटे. अलग होने वाले कुछ नेता बियावान में खो गए, जैसे शंकरसिंह वाघेला या बलराज मधोक आदि. उन्हीं दशकों में कांग्रेस कई बार टूटी और कभी-कभी तो ऐसा लगा कि इससे टूटे गुटों के नाम में कांग्रेस के साथ जोड़ने के लिए वर्णमाला के अक्षर भी पूरे नहीं पड़ेंगे. जनता पार्टी, समाजवादी, या कभी जिसे लोक दल कहा जाता था उन सबका भी यही हश्र हुआ. बीजेपी के साथ ऐसा नहीं हुआ. उसके नाम के साथ जुड़े किसी अक्षर के नाम वाला कोई अलग गुट आपको नहीं मिलेगा.

बीजेपी में, कम-से-कम शीर्ष स्तर पर पारिवारिक उत्तराधिकार का कोई उदाहरण नहीं मिलेगा. इसके जाने-माने संस्थापकों और वरिष्ठों के कई वंशज पार्टी में आज कई प्रमुख पदों पर बैठे हैं लेकिन पदारोहण कभी सीधा-सीधा नहीं हुआ. सत्ता हस्तांतरण से ज्यादा यह किसी के बच्चे को ‘जगह देने’ जैसा मामला रहा. आप देख सकते हैं कि यह वाजपेयी-आडवाणी के दौर में भी हुआ. उन्होंने काफी युवा मुख्यमंत्रियों को चुना: वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, नरेंद्र मोदी. इन सबकी औसत उम्र करीब 49 साल थी.

युवा प्रतिभा की पहचान और उसे मजबूती देने का यह चलन बीजेपी के अध्यक्ष के चयन के मामले में और ज्यादा उल्लेखनीय दिखता है. 2002 में वेंकैया नायडु 53 साल की उम्र में बीजेपी अध्यक्ष बने. राजनाथ सिंह 54 की उम्र में पहली बार 2005 में पार्टी अध्यक्ष बने, नितिन गडकरी 48 की उम्र में 2009 में अध्यक्ष बने, तो अमित शाह 49 की उम्र में 2014 में अध्यक्ष बने.

इसके विपरीत, इस पूरी अवधि में सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनी रहीं. बीच में बहुत थोड़े समय के लिए राहुल गांधी अध्यक्ष बने और अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जो काफी फुर्तीले तो हैं मगर 80 साल के हो चुके हैं. इस बीच कांग्रेस में कई युवा प्रतिभाएं मुरझा गईं. कुछ ने निराश होकर बीजेपी का झंडा पकड़ लिया, तो कुछ और ज्यादा हताशा के साथ पार्टी में समय काट रहे हैं. हम इन दोनों पार्टियों के वैचारिक मतभेदों को बहुत उछालते रहते हैं, लेकिन हमें उनके अंदर के ‘एच.आर. सिस्टम’ पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.

बीजेपी में इस ‘सिस्टम’ का 2014 के बाद भी पालन किया गया है. जे.पी. नड्डा ने 59 की उम्र में पार्टी की कमान संभाली. उसके नये मुख्यमंत्रियों पर नजर डालिए— योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश), भजनलाल शर्मा (राजस्थान), मोहनलाल यादव (मध्य प्रदेश), विष्णुदेव साय (छत्तीसगढ़), मोहन चरण मांझी, बिप्लब देब, और हिमंत सरमा (असम, हालांकि मूलतः काँग्रेस के), मनोहरलाल खट्टर, देवेंद्र फड़णवीस, प्रमोद सावंत, पुष्कर सिंह धामी, रेखा गुप्ता— इन 12 नेताओं ने जब कुर्सी संभाली थी तब उनकी औसत उम्र 51 साल थी.

काँग्रेस ने तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में कुछ युवा प्रतिभाओं को आगे बढ़ाया है लेकिन यह अपने सबसे अहम प्रदेश कर्नाटक में निष्क्रिय बुजुर्ग सिद्धरमैया से ही चिपकी हुई है.

एक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बीजेपी का वैचारिक गुरु आरएसएस अपनी सलाह पर अमल करता रहा है. अब तक उसके सरसंघचालक की अधिकतम उम्र 78 साल ही रही है: सुदर्शन (2009), राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जु भैया (2000), मधुकर दत्तात्रेय ‘बाला साहब’ देवरस (1994). इसके संस्थापकों में रहे के.बी. हेडगेवार और एम.एस. गोलवलकर का क्रमशः 51 और 67 की उम्र में ही 1940 और 1973 में निधन हो गया. सभी सरसंघचालक युवावस्था में ही शीर्ष तक पहुंचे और वर्तमान सरसंघचालक की तरह सबका कार्यकाल लंबा रहा.

हकीकत यह है कि तमाम अफवाहों और कानाफूसियों के बावजूद बीजेपी के अंदर किसी ने ऐसे किसी नियम का मुद्दा नहीं उठाया है कि 75 की उम्र रिटायर्ड होने की उम्र है. इसके बारे में कानाफूसी आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि को ‘मार्गदर्शक मंडल’ यानी संन्यास में भेजने के औचित्य के रूप में ही की गई थी. इसी के साथ कालराज मिश्र और नजमा हेपतुल्ला सरीखे नेता मंत्री बने रहे. बाद में उन्हें राज्यपाल बना दिया गया. पिछले लोकसभा चुनाव में हेमा मालिनी को 75 की उम्र पार करने के बाद भी मथुरा से शायद यह जताने के लिए उम्मीदवार बनाया गया कि पार्टी में ’75 की उम्र’ वाला कोई नियम नहीं लागू है. एकमात्र औपचारिक बयान आनंदीबेन पटेल का है, जिन्होंने 2016 में गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का यह कारण बताया था कि “मैं 75 की हो चुकी हूं”. यह निश्चित रूप से मोदी के लिए कोई मिसाल नहीं है.

अब सबकी नजर 11 सितंबर पर होगी, जब भागवत 75 के हो जाएंगे. अगर वे अपनी सलाह पर अमल करते हुए रिटायर हो जाते हैं, तब बीजेपी के अंदर मोदी को लेकर ‘चर्चा’ तो शुरू हो सकती है. लेकिन क्या कोई चुनौती उभरेगी? नहीं. क्या कोई शख्स 2009 के बाद जो प्रक्रिया अपनाई गई थी उसकी मांग करने की हिम्मत करेगा? यह असंभव नहीं है लेकिन इसकी शायद ही कोई संभावना है. लेकिन तारीखें वर्ष 2028 के अंत की ओर जैसे-जैसे बढ़ती जाएंगी, बीजेपी के अंदर कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षियों का धैर्य जवाब दे सकता है. दावा करना तो दूर, कोई ठुनकने की भी हिम्मत नहीं कर सकता. बीजेपी-आरएसएस के अंदर मोदी इतने सर्वशक्तिमान हैं कि वे यह फैसला कर सकें कि वे कितने समय तक पद पर बने रहना चाहते हैं. और, वे 2029 का चुनाव तो निश्चित रूप से लड़ना चाहेंगे. तब उनकी उम्र केवल 79 साल होगी, जितनी आज डॉनल्ड ट्रंप की है, और वे उनसे ज्यादा फिट भी हैं. बाकियों को उनके फैसले या संकेत का इंतजार करना पड़ेगा, चाहे बीजेपी के अंदर ‘उम्मीदवार’ चुनने की कोई खामोश, गुप्त ‘प्रक्रिया’ क्यों न शुरू हो चुकी हो.

 (नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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