लखनऊ : राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कल्याण सिंह पांच साल बाद सोमवार को फिर औपचारिक रूप से बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करेंगे. दरअसल राजस्थान में राज्यपाल पद का कार्यकाल खत्म होते ही 87 वर्षीय कल्याण ने यूपी की राजनीति में वापसी का फैसला लिया है. उनकी इस ‘री-एंट्री’ के कई मायने निकाले जा रहे हैं. एक तरफ पिछड़े वर्ग को साधे रखने में उनकी अहम भूमिका होगी. साथ ही राम मंदिर मुद्दे पर भी वह मुखर दिख सकते हैं.
पिछड़े वर्ग को साधे रहने की तैयारी
पिछले दो साल में बीजेपी की ओबीसी वोटर्स में पैठ बढ़ी है, जिसे वह बरकरार रखना चाहती है. कल्याण सिंह लोध बिरादरी से आते हैं. उसी समाज के धर्मपाल सिंह सैनी की पिछले दिनों योगी मंत्रिमंडल से विदाई हो चुकी है. यूपी में लोध बिरादरी को भाजपा का परंपरागत वोटर माना जाता है. कल्याण सिंह की भाजपा की सदस्यता लेने के पीछे धर्मपाल की विदाई के बाद डैमेज कंट्रोल की रणनीति मानी जा रही है. वहीं पश्चिम यूपी में कल्याण सिंह की आज भी पकड़ मजबूत मानी जाती है.
मंदिर मुद्दे पर रह सकते हैं मुखर
दरअसल, कल्याण सिंह यूपी की सियासत में ऐसे समय में वापसी कर रहे हैं, जब देश में राम मंदिर मुद्दा गरमाया हुआ है. कोर्ट में राम जन्मभूमि को लेकर सुनवाई हो रही है और तीन महीने में इसका निर्णय आने की संभावना है. ऐसे में अगर कल्याण सिंह के खिलाफ पुराना मुकदमा चलने के हालात बनते है, फिर इस मुद्दे पर पीछे रहना शायद मुश्किल हो. वह पहले की तरह मुखर दिख सकते हैं. दरअसल, राज्यपाल के संवैधानिक पद पर रहने की वजह से उन पर बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में मुकदमा नहीं चला था. लेकिन, कार्यकाल खत्म होने के बाद यह छूट समाप्त हो जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट ने 19 अप्रैल 2017 को भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सहित कई अन्य लोगों पर लगे ढांचा ध्वंस मामले में आपराधिक साजिशों के आरोपों को फिर बहाल करने का आदेश दिया था. कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि 1992 में ढांचा ध्वंस के समय यूपी के सीएम रहे कल्याण सिंह को मुकदमे का सामना करने के लिए आरोपी के तौर पर नहीं बुलाया जा सकता. क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपालों को संवैधानिक छूट मिली है. ऐसी स्थिति में उन्हें कोर्ट में पेश होना पड़ सकता है. स्वाभाविक है कि उस स्थिति में वे 1991 वाले ‘रामभक्त कल्याण’ के रूप में दिखना चाहेंगे.
राजनीतिक विश्लेषक व लखनऊ यूनिवर्सिटी में पाॅलिटिकल साइंस के प्रोफेसर आशुतोष मिश्रा का कहना है कि यूपी में मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह ये दो पिछड़े वर्ग के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं. इनका प्रभाव आज भी बरकरार है. वहीं जिस तरह से राम मंदिर मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आने की उम्मीद है. उसमें कल्याण सिंह की यूपी की राजनीति में भूमिका अहम हो जाएगी. नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन के दौरान यूपी में बीजेपी का प्रमुख चेहरा कल्याण सिंह ही थे. 87 साल की उम्र में भी बीजेपी की राजनीति में उनका स्थान अहम है. 2022 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बीजेपी उन्हें रणनीतिकारों में शामिल कर सकती है.
कल्याण का राजनीतिक करियर
-अलीगढ़ की अतरौली विधानसभा सीट से 9 बार विधायक रहे, दो बार सीएम बने.
-बुलंदशहर की डिबाई विधानसभा सीट से दो बार विधायक बने, लेकिन बाद में सीट छोड़ दी.
-बुलंदशहर से बीजेपी से अलग होकर एसपी से समर्थन से 2004 में सांसद बने.
-एटा जिले से 2009 में सांसद चुने गए.
-2014 में राज्यपाल बने.
कभी बीजेपी का मुख्य चेहरा भी रहे- कल्याण
यूपी की राजनीति के जानकार बताते हैं एक समय था जब कल्याण सिंह की पार्टी में तूती बोलती थी. मगर साल 1999 में जब उन्होंने पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की सार्वजनिक आलोचना की तो, उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया. इसके बाद कल्याण सिंह ने अपनी अलग राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई और साल 2002 में विधानसभा चुनाव में भी शामिल हुए. 2003 में वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल हो गए थे. उनके बेटे राजवीर सिंह और सहायक कुसुम राय को सरकार में महत्वपूर्ण विभाग भी मिले. लेकिन, कल्याण की मुलायम से ये दोस्ती ज्य़ादा दिनों तक नहीं चली.
दो बार की बीजेपी में वापसी
साल 2004 के चुनावों से ठीक पहले कल्याण सिंह वापिस भारतीय जनता पार्टी के साथ आ गए. बीजेपी ने 2007 का विधानसभा चुनाव कल्याण सिंह की अगुआई में लड़ा, मगर सीटें बढ़ने के बजाय घट गईं. इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह फिर से समाजवादी पार्टी के साथ हो लिए. इस दौरान उन्होंने कई बार भारतीय जनता पार्टी और उनके नेताओं को भला-बुरा भी कहा. फिर 2012 में बीजेपी में वापस आ गए. 2014 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया. अब एक बार फिर वह भाजपा की सक्रिय राजनीति में लौट रहे हैं.