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Friday, 11 July, 2025
होममत-विमतगांव संभालेंगे जलवायु की कमान: भारत के नेट-ज़ीरो सफर में पंचायतों की अहमियत

गांव संभालेंगे जलवायु की कमान: भारत के नेट-ज़ीरो सफर में पंचायतों की अहमियत

गांवों में निवेश को वैकल्पिक या दया की निगाह से देखना अनुचित होगा. भारत के गांवों को जलवायु नीति का ज़रूरी हिस्सा समझा जाना चाहिए ताकि देश के ज़्यादातर ग्रामीण लोगों के लिए जलवायु योजनाएं न्यायसंगत, सबको साथ लेकर चलने वाली और टिकाऊ बन सकें.

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मई की शुरुआत में बिहार के तरियानी छपरा में अचानक आई तेज़ बारिश ने गेहूं की फसल तबाह कर दी. वहां के किसान और शिक्षक राकेश सिंह ने इसकी तस्वीर भेजी और बताया कि किसानों को बहुत नुकसान हुआ है. इसी तरह, झारखंड के गुमला से सिल्वेस्टर तिर्की ने बताया कि उनके गांव में भी तेज़ बारिश और तूफान की वजह से महुआ की फसल बर्बाद हो गई. इन दोनों जगहों पर लोगों को भले ही गर्मी से थोड़ी राहत मिली, लेकिन बारिश का समय बिल्कुल भी तय समय पर नहीं था. वहीं मई में ही मणिपुर, असम और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में भी भारी बारिश और बाढ़ से लोगों की जान और आजीविका दोनों पर खतरा मंडराता दिखा.

बेमौसम बारिश या थोड़े समय में बहुत ज्यादा बारिश होना अक्सर जलवायु परिवर्तन का असर माना जाता है, लेकिन मान भी लें कि बिहार, झारखंड और पूर्वोत्तर भारत में हाल की बाढ़ किसी और वजह से आई हो, तब भी इन आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई के लिए हमारे पास कोई मजबूत तरीका नहीं है. इसलिए यह ज़रूरी है कि जलवायु न्याय को ध्यान में रखते हुए ‘लॉस एंड डैमेज’ और जलवायु अनुकूलन व शमन (climate adaptation and mitigation) जैसे कदमों को सरकारी जलवायु योजना में सबसे ऊपर रखा जाए.

देश की करीब 65% आबादी गांवों में रहती है. ऐसे में पंचायत स्तर पर बनने वाले जलवायु एक्शन प्लान, जलवायु परिवर्तन से बचाव, टिकाऊ विकास और जलवायु से निपटने की तैयारी में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. भारतीय संविधान के 73वें संशोधन के तहत पंचायतों को 29 मामलों पर काम करने का अधिकार मिला है, जिनमें जल, जंगल, खेती और ऊर्जा जैसे विषय शामिल हैं. ये सभी मुद्दे सीधे तौर पर जलवायु से जुड़े हुए हैं. पंचायत एक्शन प्लान की मदद से गांवों की सरकारें यानी पंचायतें अपने इलाके की ज़रूरतें समझ सकती हैं, वहां के संसाधनों की पहचान कर सकती हैं और मिल-जुलकर समाधान निकाल सकती हैं. इन योजनाओं के ज़रिए सूखा, पानी की कमी, बाढ़, मिट्टी की खराब हालत, जंगलों की कटाई और कचरे के निपटान जैसे कई बड़े मुद्दों का हल खोजा जा सकता है.

यही एक्शन प्लान भारत को 2070 तक नेट-जीरो (शून्य उत्सर्जन) के लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करेगा. साथ ही, यह पेरिस समझौते में भारत के घोषित ‘राष्ट्रीय निर्धारित योगदान’ (Nationally Determined Contributions) लक्ष्यों के अनुरूप भी है, जिसके तहत भारत को 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की तीव्रता में 2005 के मुकाबले 45% कमी करनी है और कुल बिजली उत्पादन क्षमता का 50% हिस्सा गैर-जीवाश्म (non-fossil) स्रोतों से प्राप्त करना है. 2008 में शुरू हुआ ‘नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज’ (NAPCC) भी टिकाऊ खेती और अक्षय ऊर्जा को सबसे ज़्यादा ज़रूरी मानता है और इन दोनों कामों में गांवों की भूमिका सबसे अहम है.


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पंचायत क्लाइमेट एक्शन प्लान

जलवायु संकट सिर्फ मौसम का ही नहीं, बल्कि यह हमारी आजीविका, स्वास्थ्य, खाने-पीने की सुरक्षा और सामाजिक बराबरी से भी जुड़ा हुआ है. इसलिए यह समझना बहुत ज़रूरी है कि पंचायत स्तर पर जलवायु से जुड़ी हर छोटी-छोटी पहल का बड़ा और लंबा असर पड़ता है.

सबसे पहले, गांवों में पानी के स्रोतों की देखभाल और उनकी सफाई बहुत ज़रूरी है. गांवों के पुराने तालाब, नदियां और नाले सिर्फ पानी देने वाले स्रोत नहीं हैं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जान हैं. जब ये सूख जाते हैं या प्रदूषित हो जाते हैं, तो इसका असर खेतों, पीने के पानी और भूमिगत जल पर भी पड़ता है. इसलिए इनकी सफाई और मरम्मत बहुत ज़रूरी है, ताकि पानी बचाया जा सके, सिंचाई बेहतर हो सके, बाढ़ को रोका जा सके और आसपास की जैव विविधता भी बनी रहे.

दूसरा, कचरे का सही तरीके से निपटान आज गांवों और शहरों दोनों में एक बड़ी समस्या है. कचरा जलाने से मिथेन जैसी हानिकारक गैसें बढ़ती हैं, जिससे हवा, मिट्टी और पानी तीनों खराब होते हैं. चक्रीय (सर्कुलर) अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कचरा प्रबंधन किया जाए, जिसमें कचरे से नए उत्पाद बनाए जा सकें और लोगों को रोज़गार भी मिले.

तीसरा, भारत में खेती पर मौसम की मार और सरकारी उपेक्षा दोनों का असर साफ दिखता है. कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी ओलावृष्टि, कभी तेज़ गर्मी, तो कभी टिड्डों का हमला—इन सबके बीच किसान हमेशा मुश्किल में रहते हैं. ऊपर से, किसानों को उनकी फसल की सही कीमत नहीं मिलती, कई बार फसल बीमा नहीं मिलता, बाज़ार नहीं मिलता या फिर कर्ज का बोझ बढ़ जाता है.ऐसे चुनौतीपूर्ण व्यवस्था में प्राकृतिक और पारंपरिक तरीकों को आज की आधुनिक तकनीकों के साथ मिलाकर खेती को बेहतर और टिकाऊ बनाया जा सकता है. जैसे—देसी बीजों का संरक्षण, धान और गेहूं की जगह वैकल्पिक अनाजों (रागी, बाजरा आदि) को बढ़ावा, बारिश के पानी को इकट्ठा करना (रेन वॉटर हार्वेस्टिंग), अलग-अलग फसलों को साथ उगाना, जैविक खाद का इस्तेमाल करना और संवेदनशील बाजार विकसित करना.

चौथा, हरित इलाकों और जैव विविधता को बढ़ाना सिर्फ पेड़ लगाने से पूरा नहीं होगा, बल्कि गांवों और कस्बों में सामूहिक जंगलों का बचाव, चारागाहों की सुरक्षा और वहां पाई जाने वाली स्थानीय प्रजातियों की रक्षा करने से न सिर्फ जलवायु में संतुलन बनेगा. गांव के लोगों की भागीदारी भी बढ़ेगी.

पांचवां, गांवों तक साफ, टिकाऊ, सस्ती और भरोसेमंद ऊर्जा पहुंचाना भी बहुत ज़रूरी है. सौर ऊर्जा (जैसे रूफटॉप सोलर और खेतों में लगने वाली एग्री-फोटोवोल्टिक तकनीक), बायोगैस और पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों से गांवों में लकड़ी और डीजल जैसे प्रदूषणकारी ईंधनों की ज़रूरत कम होगी.  इससे गांवों की अर्थव्यवस्था को भी फायदा होगा. कर्नाटक राज्य की विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा योजना इसकी मिसाल है. वहां गांवों में छोटे-छोटे सौर ऊर्जा केंद्र (सोलर माइक्रोग्रिड) लगाए जा रहे हैं. 2024 तक कर्नाटक के 500 से ज़्यादा गांव सौर ऊर्जा से रोशन हो चुके हैं, जिससे लगभग 12,000 टन कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है.

छठा, गांवों और छोटे शहरों में साफ और स्मार्ट यातायात व्यवस्था शुरू करनी होगी. ई-रिक्शा, सार्वजनिक बसें और साइकिल के रास्ते जैसी सुविधाएं बढ़ाकर प्रदूषण और ट्रैफिक की समस्या को कम किया जा सकता है.

सातवां, गांवों में हरित (पर्यावरण के अनुकूल) उद्यम और रोज़गार बढ़ाना जलवायु न्याय की दिशा में बड़ा कदम होगा. अगर गांव के युवाओं को सौर उपकरणों की मरम्मत, जैविक खेती, कचरा प्रबंधन या पानी बचाने जैसे कामों में प्रशिक्षण और नौकरी मिले, तो वे आत्मनिर्भर बनेंगे और अपने गांवों में जलवायु से जुड़े बदलावों का नेतृत्व भी कर सकते हैं.

इन तमाम जलवायु कोशिशों से यह भी तय होगा कि भारत दुनिया के सामने ‘साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों’ यानी सबकी जिम्मेदारी अलग-अलग हिसाब से बांटने के सिद्धांत को मजबूती से रख सके.

जमीनी स्तर पर निवेश की ज़रूरत

गांवों में जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिशें आमतौर पर स्थानीय लोगों के ज्ञान और अनुभव पर टिकी होती हैं. ये काम ज़्यादातर गांव के लोगों की भागीदारी से ही पूरे होते हैं. इन्हें लंबे समय तक चलाने के लिए देशी और विदेशी फंडिंग की ज़रूरत होती है. सरकारी मदद के साथ-साथ निजी संस्थाएं और कंपनियों की कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) से मिलने वाले फंड भी सीधे गांवों तक पहुंचने चाहिए, ताकि जलवायु से जुड़ी योजनाएं मजबूत बन सकें.

इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (IIED) की एक रिपोर्ट बताती है कि गांव के लोगों द्वारा चलाए गए जलवायु प्रोजेक्ट, ऊपर से थोपे गए योजनाओं की तुलना में 30 से 50% तक ज्यादा असरदार और सस्ते होते हैं, क्योंकि इनमें स्थानीय लोगों की भागीदारी और ज़िम्मेदारी ज़्यादा होती है.

एक न्यायपूर्ण बदलाव के लिए ज़रूरी है कि जो असमानताएं हैं, उन्हें दूर किया जाए. जैसे—गांव के लोगों को तकनीकी ट्रेनिंग मिले, हरित तकनीक (ग्रीन टेक्नोलॉजी) आसानी से मिले और जलवायु योजनाओं के फायदे सभी को बराबर मिलें. ये बातें पेरिस समझौते के उस वादे से भी जुड़ी हैं, जिसमें सबको साथ लेकर जलवायु समाधान बनाने की बात कही गई है.

गांवों में निवेश को वैकल्पिक या दया की निगाह से देखना अनुचित होगा. उन्हें भारत की जलवायु नीति का जरुरी हिस्सा समझा जाना ताकि देश के ज़्यादातर ग्रामीण लोगों के लिए जलवायु योजनाएं न्यायसंगत, सबको साथ लेकर चलने वाली और टिकाऊ बन सकें.

अगर भारत अपने 2030 और 2070 के जलवायु लक्ष्यों को हासिल करना चाहता है, तो उसे गांवों, पंचायतों, नागरिकों और स्थानीय प्रशासन को सबसे अहम भूमिका देनी होगी. जलवायु से जुड़े समाधान तभी सच्चे और असरदार होंगे जब वे गांवों की ज़मीनी सच्चाई पर टिके होंगे. ये कोशिशें सिर्फ नीति का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि देश की ज़िम्मेदारी भी हैं, ताकि भारत समावेशी विकास की तरफ बढ़ सके और दुनियाभर में जलवायु से जुड़े फैसलों में बड़ी भूमिका निभा सके.

(डॉ. हीरा लाल पटेल, आईएएस अधिकारी हैं और वर्तमान में उत्तर प्रदेश सरकार में सहकारी समिति में आयुक्त एवं निबंधक के पद पर कार्यरत हैं. रोहिन कुमार लेखक हैं और पलकिया फाउंडेशन के साथ बतौर कार्यक्रम निदेशक जुड़ें हैं. लेख में व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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