बानू मुश्ताक की किताब हार्ट लैम्प ने 2025 का इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ जीत लिया है. यह किताब मुस्लिम महिलाओं की पुरुष-प्रधान समाज में जी गई सच्चाईयों पर आधारित कहानियां मार्मिक रूप से पेश करती है. जूरी ने उनके काम की सराहना करते हुए कहा कि यह “जीवन के लिए जूझती और जिजीविषा से भरी अद्भुत कहानियां” हैं.
यह कहानियां मूल रूप से कन्नड़ में लिखी गई थीं और दीपा भास्थी ने इन्हें अंग्रेज़ी में अनुवादित किया है. इनमें दर्शाई गई महिलाएं भारत के किसी भी कोने में पाई जा सकती हैं. मुश्ताक का लेखन यह दिखाता है कि आम महिलाएं किस तरह पितृसत्ता के जटिल ढांचों से निपटने के लिए संवेदना और बुद्धिमानी के साथ रास्ता निकालती हैं.
उनका काम यह भी दिखाता है कि न्याय की मांग कर रही मुस्लिम महिलाएं न तो किसी कल्पना की उपज हैं और न ही कोई राजनीतिक साज़िश. बल्कि, वे हमारे लोकतंत्र में मौजूद खामियों, जैसे कि अन्यायपूर्ण पर्सनल लॉ, की ओर इशारा करती हैं. हमेशा से, परिवार और समाज के भीतर न्याय की मांग करने वाली मुस्लिम महिलाओं को रूढ़िवादी लोग ‘बुरी औरतों’ के रूप में बदनाम करते रहे हैं.
मीडिया से बात करते हुए बानू ने याद किया कि किस तरह उन्हें महिलाओं की आवाज़ उठाने पर धमकियां मिलीं और उन पर हमला किया गया, क्योंकि वे एक रूढ़िवादी समाज में महिलाओं की आवाज़ को सामने ला रही थीं.
मुस्लिम महिलाओं की व्यथा
मैं यह नहीं कह रही कि भारतीय महिलाओं ने संविधान में दिए गए ठोस समानता के अधिकार को पूरी तरह हासिल कर लिया है. यह सपना आज़ादी के आठ दशक बाद भी दूर लगता है. लेकिन मुस्लिम महिलाओं को एक धार्मिक अल्पसंख्यक होने का अतिरिक्त बोझ भी उठाना पड़ता है. उन्हें अपने समुदाय के भीतर पितृसत्तात्मक कट्टरता और बाहर सांप्रदायिक हमलों दोनों का सामना करना पड़ता है. हिंदू और ईसाई महिलाओं के मुकाबले मुस्लिम महिलाओं को पारिवारिक मामलों में कानूनी भेदभाव झेलना पड़ता है क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ को अब तक सुधारा और संहिताबद्ध नहीं किया गया है. यह अन्याय केवल महिलाओं को भुगतना पड़ता है — जबकि पूरा समुदाय गरीबी, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन और राजनीतिक उपेक्षा में जी रहा है. हाल के वर्षों में धार्मिक ध्रुवीकरण और नफ़रत की राजनीति ने स्थिति को और भी खराब कर दिया है.
2014 के बाद से मुस्लिम महिलाएं केंद्र में आ गई हैं. तत्काल तीन तलाक के खिलाफ महिलाओं के नेतृत्व में आंदोलन 2012 से चल रहा था, जिसे तब और बल मिला जब 2016 में शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. इसके बाद केंद्र सरकार ने तत्काल तीन तलाक को खत्म करने के समर्थन में हलफनामा दायर किया.
कई तीन तलाक पीड़ित महिलाएं और मेरी संस्था भी इस याचिका में शामिल हुईं. हमने तर्क दिया कि “तलाक तलाक तलाक” कहकर तलाक देना न केवल क़ुरान के ख़िलाफ़ है, बल्कि संविधान के भी विरुद्ध है. इस मुद्दे पर इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक बड़ा जन-जागरूकता अभियान चलाया गया. हज़ारों महिलाएं इस आंदोलन से जुड़ीं. रूढ़िवादी उलेमाओं ने इस प्रथा का बचाव किया और यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश की.
उनके लिए शरीयत ईश्वरीय है और उसे कोई नहीं छू सकता. ज़्यादातर विपक्षी राजनीतिक दल चुप रहे, केवल कुछ सांसदों ने व्यक्तिगत रूप से इस मुद्दे पर आवाज़ उठाई. 2017 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से इस प्रथा को अमान्य घोषित कर दिया. 2019 में केंद्र सरकार ने एक कानून बनाया, जिसमें तीन तलाक बोलने वाले मुस्लिम पति को सज़ा का प्रावधान है.
नरेंद्र मोदी सरकार पर यह आरोप भी लगा कि वह मुस्लिम महिलाओं को अपनी राजनीति का हथियार बना रही है. एक तरफ बीजेपी नेता मुस्लिम महिलाओं की मदद के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात करते हैं, दूसरी तरफ कर्नाटक में लड़कियों और महिलाओं को हिजाब पहनकर स्कूल और कॉलेज में जाने की इजाज़त नहीं दी जाती.
मुस्लिम महिलाएं और बहुसंख्यक राजनीति
मुस्लिम महिलाएं बहुसंख्यकवादी नीतियों और बढ़ते नफरती अपराधों से अछूती नहीं रह सकतीं. पारिवारिक कानूनों में सुधार की ज़रूरत तो है ही, लेकिन साथ ही महिलाओं को शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य और आवास जैसे क्षेत्रों में भी सहयोग की ज़रूरत है. उन्हें सुरक्षा, सम्मानजनक जीवन और स्वतंत्रता चाहिए.
जब दंगे होते हैं या बुलडोज़र चलाए जाते हैं और घरों को गिराया जाता है, तो सबसे ज़्यादा असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है. यह विडंबना है कि आज़ादी के बाद से कोई भी सरकार मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकी, जबकि संविधान इसकी ज़िम्मेदारी देता है. केवल धार्मिक पहचान वाले पुरुषों को ही नेता के रूप में देखा गया. शाह बानो का मामला हमारी इतिहास की एक शर्मनाक घटना है.
ऐसा लगता है कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं को कट्टरपंथी उलेमाओं द्वारा तय की गई सीमाओं में जीने के लिए बाध्य किया गया है — और ये सीमाएं समय-समय पर उस समय की प्रमुख राजनीति के अनुसार थोड़ी बहुत बदल दी जाती हैं. 1986 में, कांग्रेस सरकार ने 1985 में कोर्ट द्वारा शाह बानो को दी गई भरण-पोषण राशि को खारिज कर दिया, यह दिखाने के लिए कि वह धर्मनिरपेक्षता का पालन कर रही है. लेकिन सरकार ने वोट बैंक खोने के डर से पितृसत्तात्मक ताकतों के आगे झुकाव दिखाया.
1986 से अब तक, व्यक्तिगत कानूनों में सुधार का कोई अवसर नहीं आया. यह हमारे राजनीतिक ढांचे पर पितृसत्ता की पकड़ को दर्शाता है. इस बीच महिलाएं एकतरफा तलाक, हलाला, मुत्आ निकाह, बहुविवाह, बच्चों की कस्टडी न मिलने और संपत्ति में बराबर हिस्से से वंचित होने जैसी प्रथाओं से पीड़ित होती रहीं.
हमारी याचिका में सुप्रीम कोर्ट को कुरान की आयतें बताई गईं, जिनमें अल्लाह ने पुरुष और महिला को बराबर बनाया है. लेकिन असल ज़िंदगी में, औरतों के खिलाफ व्याख्याएं और गलतफहमियां भरी पड़ी हैं. मुस्लिम महिलाओं की असमान स्थिति हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहेलियों में से एक है.
इसके उलट, मुस्लिम महिलाएं खुद बहुत प्रेरणादायक हैं. वे जानती हैं कि एक मुसलमान और लोकतंत्र की नागरिक होने के नाते उनके क्या अधिकार और कर्तव्य हैं. वे बराबरी की मुस्लिम और बराबरी की नागरिक बनने की मांग करती हैं. मैंने अक्सर 2002 गुजरात दंगों से बचीं महिलाओं से सुना है कि उन्हें भीख नहीं, इंसाफ चाहिए. तीन तलाक के खिलाफ लड़ने वाली महिलाओं ने कुरान की जानकारी और संविधान की समझ दोनों से खुद को तैयार किया.
उन्होंने दोनों ही स्रोतों से न्याय की मांग में कोई विरोधाभास नहीं देखा। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ लड़ने वाली महिलाओं ने संविधान में दिए गए समानता, धर्मनिरपेक्षता और भेदभाव-निरोध जैसे मूल्यों को अपनाया और तिरंगे के साथ धरनों में बैठीं. लेकिन यह आंदोलन जब सरकार के खिलाफ था, तो कुछ कट्टरपंथियों को मंज़ूर था — क्योंकि यह घरेलू और पारिवारिक पितृसत्ता को नहीं चुनौती दे रहा था.
कुछ उदारवादी यह मानते हैं कि मुस्लिम महिलाओं का बराबरी का हक मांगना हिंदुत्व की राजनीति के समय में अनुचित है. लेकिन जिन महिलाओं को अपने जीवनकाल में ही न्याय चाहिए, उनके लिए कोई “सही समय” नहीं होता. शायरा बानो, आफरीन रहमान, इशरत जहां, अतिया सबरी और गुलशन परवीन — तीन तलाक के खिलाफ याचिका दायर करने वाली ये सभी महिलाएं हकीकत में मौजूद हैं. जैसे हार्ट लैम्प की महिलाएं भी.
जकिया सोमन महिला अधिकार कार्यकर्ता और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक सदस्य हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं, स्पेशल मैरिज एक्ट में बदलाव से जेंडर जस्टिस को ज्यादा मजबूती मिलेगी