अंतरिक्ष में दिलचस्पी रखने वाले भारतीयों को शनिवार (7 सितंबर) की सुबह का बेसब्री से इंतजार है, जब चंद्रयान-2 का विक्रम लैंडर चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा. लैंडर को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई को श्रद्धांजलि स्वरूप विक्रम नाम दिया गया है, जो कि भारत के वैज्ञानिक इतिहास का एक प्रमुख नाम है.
पचास साल पहले, साराभाई ने अपोलो-11 की सफल लैंडिंग और चांद पर मानव कदम पड़ते देखा था. उन्होंने उस घटना को ‘मानव को दुनिया के गोल होने और उसके ब्रह्मांड का केंद्र नहीं होने की समझ आने जितना महत्वपूर्ण’ बताया था. (अपोलो-11 मॉडल फॉर टैकलिंग प्रॉब्लम्स ऑन अर्थ: साराभाई टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 जुलाई 1969, पृ.7)
भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष साराभाई ने तब नए वैज्ञानिक विकास के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘सौर प्रणाली और महत्वपूर्ण अंतरिक्षीय पिंडो के निर्माण की नई समझ के मद्देनज़र ब्रह्मांड संबंधी हमारा दृष्टिकोण बदलना चाहिए.’
अपोलो-11 अभियान को सफल बनाने के लिए किए गए प्रयासों की सराहना करते हुए विक्रम साराभाई ने कहा था, ‘शांति काल में इतनी व्यापकता और विशेषज्ञता वाली किसी और परियोजना का उदाहरण नहीं है. अपोलो परियोजना में लाखों लोगों ने योगदान दिया है.’
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पर वह परियोजना के विशाल पैमाने और उसकी भव्यता मात्र से ही प्रभावित नहीं थे. बल्कि, अपोलो-11 की सफलता को उन्होंने ‘खाद्य उत्पादन बढ़ाने और रहन-सहन के पर्याप्त समुचित स्तर को पाने संबंधी व्यावहारिक चुनौतियों से निपटने के लिए दुनिया के समक्ष मौजूद एक मॉडल’ के तौर पर देखा था. (अपोलो-11 मॉडल फॉर टैकलिंग प्रॉब्लम्स ऑन अर्थ: साराभाई, टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 जुलाई 1969, पृ.7)
गांधी और अपोलो-11 मिशन
अपोलो-11 की 24 जुलाई 1969 को सुरक्षित वापसी के बाद, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उसके तीनों यात्रियों (नील आर्मस्ट्रांग, बज़ एल्ड्रिन और माइकल कॉलिन्स) और उनकी पत्नियों को व्हाइट हाउस के एक विशेष विमान पर भारत समेत 22 देशो के 37 दिवसीय दौरे पर भेजा था. वे 26 अक्टूबर को मुंबई पहुंचे थे, जहां उनके स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर 20,000 से अधिक लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत तीनों उसी शाम टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च पहुंचे, जहां विक्रम साराभाई और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के अन्य लोगों ने उनका स्वागत किया.
वर्ष 1969 महात्मा गांधी की जन्म शताब्दी का साल था और अपोलो-11 के कमांडर नील आर्मस्ट्रांग ने भारत यात्रा के दौरान उनको याद किया था.
उत्साहित भीड़ को संबोधित करते हुए आर्मस्ट्रांग ने कहा था, ‘गांधी ने लोगों के बीच शांति और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए काम किया था. अमेरिकी अंतरिक्ष कार्यक्रम की परिकल्पना भी उसी भावना के अनुरूप अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर आधारित एक शांतिपूर्ण प्रयास के रूप में की गई थी कि जिसका फायदा पूरी मानवता को मिले… इस प्रकार, अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी महात्मा गांधी के सपनों को पूरा करने में एक अहम भूमिका निभा सकता है.’ (मून हीरोज़ हैव इंस्पायर्ड आवर यूथ: नाईक, टाइम्स ऑफ इंडिया, 27 अक्टूबर 1969, पृ.5)
अखरोट के आकार के पत्थर को लेकर मची आपाधापी
उसी साल बाद में, नई दिल्ली स्थित यूसिस भवन (अमेरिकी दूतावास द्वारा संचालित) में चंद्रमा के सतह से लाए गए पत्थर के एक टुकड़े को प्रदर्शित किया गया. उसे लेकर लोगों के उत्साह को साफ देखा जा सकता था. अखरोट के आकार के चांद के एक टुकड़े को वीआईपी का दर्जा मिला हुआ था.
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‘सुरक्षा घेरे में उसका भारत में आगमन हुआ. एयरपोर्ट पर अमेरिकी सैनिकों और भारतीय पुलिसकर्मियों ने उसकी अगवानी की. उसे अमेरिकी दूतावास के सबसे सुरक्षित तिजोरी में रखा गया… फिर गैस से भरे चैंबर में घूमती चकती पर उसको प्रदर्शित किया गया. साथ में कमेंट्री की भी व्यवस्था थी. धूसर रंग के पत्थर के टुकड़े ने वैज्ञानिक समुदाय से बाहर के लोगों को भी आकर्षित किया. उसकी प्रामाणिकता को लेकर अफवाहें भी चलीं, जिस पर अमेरिकी राजदूत ने मज़ाकिया अंदाज़ में सफाई दी कि अमेरिका चांद के नमूने की जगह धरती का नमूना प्रदर्शित कर भारतीयों को ‘धोखा’ नहीं दे रहा है.’ (‘मून-रॉक सैंपल ऑन शो इन न्यू डेल्ही’, टाइम्स ऑफ इंडिया, 24 दिसंबर 1969, पृ.11)
विक्रम साराभाई द्वारा 1962 में भारतीय अंतरिक्ष मिशन के लिए चयनित शुरुआती इंजीनियरों में से एक आर. अरवामुदन ने अपनी किताब ‘इसरो: अ पर्सनल हिस्ट्री’ में चांद के उस टुकड़े को थुंबा स्थित अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी केंद्र में प्रदर्शित किए जाने का वर्णन किया है. उनके अनुसार केंद्र के बाहर लोगों की इतनी बड़ी भीड़ जमा हो गई थी कि वहां पुलिस को बुलाना पड़ा था.
साराभाई की परिकल्पना
साराभाई चाहते थे कि भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जाए पर ये वास्तविक लक्ष्यों से प्रेरित हो.
अपोलो-11 मिशन की सफलता पर उन्होंने कहा, ‘इस पर हमें सिर्फ खुश ही नहीं होना चाहिए, बल्कि इसकी संपूर्ण सार्थकता पर भी विचार करना चाहिए.’ (अपोलो-11 मॉडल फॉर टैकलिंग प्रॉब्लम्स ऑन अर्थ: साराभाई, टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 जुलाई 1969, पृ.7)
होमी भाभा स्मृति व्याख्यान देते हुए उन्होंने उपस्थित लोगों को सूचित किया था कि भारतीय वैज्ञानिकों ने नेशनल एरोनॉटिक्स स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) को प्रस्ताव भेजा है कि ‘विशिष्ट प्रयोगों के लिए चांद पर छोड़ने के वास्ते किसी अपोलो मिशन में भारत निर्मित उपकरण को भी ले जाया जाए.’ (‘इंडियन इक्विपमेंट फॉर टेस्ट्स ऑन मून सर्फेस प्रपोज़्ड’, टाइम्स ऑफ इंडिया, 30 दिसंबर 1969, पृ.4)
उस घटना के आधी सदी बीतने पर ये एक अद्भुत संयोग ही माना जाएगा कि चंद्रयान-2 का लैंडर विक्रम चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर स्थापित करने के लिए अपने साथ नासा निर्मित एक रेट्रोरिफलेक्टर भी ले गया है. यह उपकरण अपोलो-11 मिशन की सफलता के बाद नासा द्वारा आरंभ एक प्रयोग को आगे बढ़ाएगा.
(लेखक अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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