इसे ‘पिंक्स वार’ नाम दिया जा सकता है, जो कराची के ब्रिस्टल होटल के कॉकटेल और चंपा के फूलों की खुशबू की याद दिलाता है. सन 1919 की गर्मियों में ब्रिटिश राज से आजादी हासिल करने की उम्मीद में अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह ख़ान ने जिस जिहाद का ऐलान किया था उसके तीन सप्ताह बाद खैबर दर्रे के ऊपर चार इंजिन वाला वह बमवर्षक विमान हैंडले पेज V/1500 मंडराता नजर आया जिसे डिजाइन तो बर्लिन पर हमला करने के लिए किया गया था लेकिन बॉम्बे के कुलीनों को हवाई तफरीह करने के लिए दे दिया गया था. इसने काबुल में शाही महल पर 112 पाउंड के चार और 20 पाउंड के 16 बम गिराए थे.
जाहिर है, इस क्षेत्र में अब हवाई युद्ध भी शुरू हो गया था, और विंग कमांडर आर.सी.एम. पिंक इस युद्ध के महारथी तथा सिद्धांतकार के रूप में उभरे थे. पिंक के ‘ब्रिस्टल F.2B’ और ‘डे हैवीलैंड DH.9A’ फाइटर विमानों के बेड़े ने 1925 में 54 दिनों तक दक्षिणी वज़ीरिस्तान में महसूद बागियों पर बर्बर हमले किए. दो ब्रिटिश सैनिक और एक विमान खेत रहे; कितने महसूद मारे गए इसका कोई रेकॉर्ड नहीं है.
अब 2025 में, पिछले सप्ताह एक फिदायीन बमवर्षक विमान ने मीर अली में एक फौजी काफिले पर हमला करके 13 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और दर्जनों अन्य को घायल कर दिया. इस इलाके में पिछले एक साल से सैनिकों पर लगातार हमले हो रहे हैं. पिछले साल जुलाई में बन्नू में इसी तरह के फिदायीन हमले में आठ सैनिक मारे गए. ‘साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल’ के मुताबिक, पिछले साल 754 सैनिक मारे गए, जो पिछले एक दशक में सबसे बड़ी संख्या है.
इन हमलों का सामना होते ही पाकिस्तानी सेना ने जिहादियों और बलूच दुश्मनों को अवैध घोषित करने की की कोशिश की है और अपने आधिकारिक बयानों में धार्मिक आधार का इस्तेमाल करते हुए उन्हें भारत द्वारा प्रायोजित ‘फितना’ (लड़ाई) का एजेंट बताया है.
लेकिन ऐसी कहानियों पर लोगों को यकीन नहीं हो रहा है. भारत में ऐसी कोई पाठशाला नहीं है जिसमें देश की खातिर लड़ने वाले रंगरूटों की भर्ती की जाती हो या प्रशिक्षण दिया जाता हो, या उनके लिए फंड इकट्ठा करने के वास्ते रैलियां के जाती हों.
पाकिस्तान के फौजी वर्चस्व वाले सत्ता-तंत्र को भी अच्छी तरह पता है कि असली कहानी कहीं ज्यादा पेचीदा है. 2021 में खैबर-पख्तूनख्वा के हजारों लड़ाकों की बड़ी शिरकत के कारण काबुल के पतन के बाद जिहादी अपने घरों में लौटने लगे ताकि सीमा पार के कभी अपने सहयोगी रहे लड़ाकों की तरह सत्ता और दौलत भोग सकें. पाकिस्तानी सेना के लिए ये सारे जिहादी दुश्मन नहीं, संभावित सहयोगी हैं. चाहे वह उन्हें जितना भी भला-बुरा कहती रही हो, लेकिन पाकिस्तान के दुश्मन उसके कुछ इलाकों को अपने कब्जे में ले चुके ये जिहादी नहीं बल्कि भारत ही है.
पाकिस्तानी फौज अपनी पूर्ववर्ती उपनेशवादी शासकों की तरह अफगानिस्तान पर हवाई हमले करती रही है और जिहादियों के गढ़ों को कमजोर करने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करती रही है. उम्मीद की जाती है कि इस दबाव के कारण जिहादी नेतृत्व रास्ते पर आ जाएगा. मुमकिन है कि फौज को यह पता चल जाएगा कि बमबारी करके दुश्मन को रास्ते पर लाना उतना आसान नहीं है जितना लगता है.
अच्छा, बुरा, और बदनुमा तालिबान
इस सप्ताह की गई फिदायीन बमबारी की खुली ज़िम्मेदारी कबूलने वाला हाफ़िज़ गुल बहादुर उत्तरी वज़ीरिस्तान की उत्मंजई वज़ीर जनजाति के माडा खेल कबीले में साल 1961 के आसपास पैदा हुआ था. उसका परिवार खुद को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ने वाले, ईपी के फ़क़ीर मिर्ज़ा अली खान वज़ीर का वंशज बताता है. 1947 में आजादी मिलने के बाद भी फ़क़ीर अब अपने इलाके में स्वायत्त सत्ता के लिए पाकिस्तान से लड़ते रहे. 1949 में पाकिस्तानी वायुसेना ने मुगलगई में फ़क़ीर की फौज पर बमबारी की थी.
गुल बहादुर के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत जानकारी नहीं है. वैसे, माना जाता है कि उसने मुलतान में मदरसे में पढ़ाई की और ‘हाफ़िज़’ बना. ‘हाफ़िज़’ वह बनता है, जिसे क़ुरान पूरी तरह याद होता है और वह उसे पूरा सुना सकता है. इस मामले में गुल बहादुर फील्ड मार्शल आसिम मुनीर की बराबरी करता है. इसके बाद वह फज़ल-उर-रहमान के नेतृत्व वाली मजहबी जमीअत उलेमा-ए-इस्लाम पार्टी का कार्यकर्ता बन गया.
यह जिहादी सरगना 9/11 वाले कांड के बाद के वर्षों में खबरों में आया जब वह तालिबान के पहले इस्लामिक अमीरात के पतन की आशंका में अफगान सीमा पार करके दक्षिण की ओर भाग गया. अल-क़ायदा से जुड़े सैकड़ों उज़्बेक और चेचेन लड़ाकों के साथ मिलकर गुल ने उत्तरी वज़ीरिस्तान में अपना अड्डा बना लिया.
पाकिस्तान ने अपनी जमीन पर इन मिनी-अमीरातों को बनने तो दिया, लेकिन उनके सरगनाओं पर दबाव डालता रहा कि वे विदेशी लड़ाकों को अपने दायरे से बाहर करें. पत्रकार दाऊद खट्टक ने लिखा है कि इसके कारण 2004 के बाद से नेक मुहम्मद वज़ीर, बैतुल्लाह महसूद, और मुल्ला फज्लुल्लाह जैसे कई प्रमुख जिहादियों के साथ कई शांति समझौते किए गए. सरकार 2009 में स्वात में शरिआ पर आधारित निज़ाम-ए-अदल नियम लागू करके कुछ जिहादियों को तो कानूनी सत्ता भी देने को राजी दिखी.
खट्टक ने लिखा है कि इनमें से कुछ समझौते कायम रहे. इसकी कुछ वजह यह थी कि जिहादी कमांडर विदेशी लड़ाकों के अपने केंद्रीय गुट को छोड़ने को तैयार नहीं थे. अपहरण, जबरन वसूली, और संरक्षण देने के एवज में वसूली के घोटालों से होने वाली आमदनी को लेकर विवाद छिड़ गया. अमेरिका ने अल-क़ायदा के खिलाफ जो ड्रोन युद्ध शुरू किया उसने पाकिस्तानी सेना के ग्राहक जिहादियों को और ज्यादा नाराज कर दिया.
गुल उत्तरी वज़ीरिस्तान को अपना अड्डा बनाकर वहां से अमेरिकी और अफगानी फौजों पर हमला करता रहा और यह वादा करता रहा कि वह पाकिस्तानी फौज को निशाना नहीं बनाएगा. लेकिन यह समझौता 2012 में टूट गया जब गुल ने अपने इलाके में सरकार को पोलियो टीकाकरण करने से रोक दिया. शोधकर्ता डिडियर चौडेट ने लिखा है कि गुल का तर्क था कि पोलियो के वायरस से जितने लोग मर रहे हैं उससे ज्यादा लोग ड्रोन हमलों से मर रहे हैं.
फिर, 2014 में अमेरिका के बाहरी दबाव के कारण पाकिस्तानी सेना ने ज़र्ब-ए-अज़्ब नामक विशाल सैन्य कार्रवाई शुरू की जिसका लक्ष्य इन गुटों को नष्ट करना था. इन गुटों ने मिलकर तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) बना लिया था. लड़ाई में टीटीपी ने अपने हजारों लोग गंवाए लेकिन गुल उत्तर की ओर भागने में सफल रहा, जहां उसे तालिबान के दूसरे इस्लामिक अमीरात के दूसरे नंबर के वर्तमान कमांडर सिराजुद्दीन हक़्क़ानी जैसे ताकतवर तालिबानी नेताओं से शरण मिल गई.
पाकिस्तान में लड़ाई
काबुल के पतन ने पाकिस्तानी सेना के लिए नई समस्याएं खड़ी कर दी. ऐसे अधपढ़े, संभावनाहीन युवा अफगानिस्तान से वापस अपने देश लौटने लगे जिन्होंने जीवन में जिहाद के सिवा कोई अनुभव नहीं हासिल किया था. पाकिस्तानी सेना ने इन्हें नए पख्तून तहफ्फुज आंदोलन के खिलाफ अपना सहयोगी माना. यह आंदोलन 2014 में छत्रों के एक गुट ने शुरू किया था, जो बिना न्यायिक कार्रवाई के लोगों को सज़ा देने पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे और सरकार साथ ही जिहादियों के गठबंधन के खिलाफ थे. इस गुट के नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया और उनके संगठन पर पिछले साल प्रतिबंध लगा दिया गया.
जिहादियों के नेता जल्दी ही खुद को सेना के सहयोगी से ज्यादा अहम समझने लगे. व्याख्याकार रिकार्डो वाल्ले ने लिखा है कि 2023 के मध्य से, उनमें से कुछ छोटे-छोटे समूह (जभात अंसार अल-माहदी खोरासण, मजलिस-ए-अस्करी, जभात अल-जुनुद अल-माहदी, और जैश-ए-फुरसान-ए-मुहम्मद) गुल के इर्द-गिर्द जुटने लगे.
गुल के संगठन ने अपने कब्जे वाले इलाकों में शासन के नियम पिछले साल घोषित किए, जिनमें धार्मिक दान और टैक्स, शेविंग पर रोक, और महिलाओं की पोशाक से संबंधित नियम शामिल हैं. पिछले साल ऐसे वीडियो लगातार आते रहे जिनमें टीटीपी के जिहादी अपने इलाके की सड़कों पर यात्रियों की शिनाख्त करते और ट्रकों से टैक्स वसूलते देखे गए.
फील्ड मार्शल आसिम मुनीर तीन कारणों से शायद इसे व्यापक रणनीतिक लक्ष्यों के मद्देनजर अदा की जाने वाली कीमत के रूप में लेते हैं. पहला यह कि वैश्विक जिहादी आंदोलन से टीटीपी का गहरा रिश्ता है. यह आंदोलन अब अफ्रीका और मध्य-पूर्व में काफी तेजी से उभर रहा है. शोधकर्ता एंटोनियो गुइस्टोज्जी ने लिखा है कि पाकिस्तान की खुफिया सेवाओं ने 2019 के बाद से अल-क़ायदा को कश्मीर और भारत के दूसरे हिस्सों में अपनी करतूतों के लिए उपयोगी मानते हुए कुछ छूट दी है.
गुइस्टोज्जी ने लिखा है कि अल-क़ायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन के मारे जाने से पहले और फिर 2014 में भी आईएसआई निदेशालय और अल-क़ायदा के बीच सहयोग का शुरुआती दौर चला. इस्लामिक स्टेट के तत्वों से भी आइएसआइ इस उम्मीद में यदा-कदा सहयोग करता रही कि वे भारत के खिलाफ उसके काम के साबित होंगे.
जिहादियों की दूसरी बड़ी भूमिका यह थी कि वे पाकिस्तान में बेहतर जम्हूरियत और मानवाधिकारों के लिए धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक संघर्षों पर लगाम लगाने में काम आते थे. पख्तून तहफ्फुज आंदोलन और बलूच यक्जेह्ती कमिटी जैसे आंदोलन पाकिस्तान की सियासत में उभर रही नयी ताकत के प्रतिनिधि हैं, जो सत्ता पर सेना की जकड़ के खिलाफ संवैधानिक उपायों को अपना औज़ार बना रहे रहे हैं. सेना का मानना है कि आतंक फैलाकर ही इन्हें कामयाब होने से रोका जा सकता है.
अंत में, माना जाता है कि इस्लाम और पाकिस्तान की मजहबी पहचान के रक्षक के रूप में फील्ड मार्शल मुनीर की साख को मजबूत करने में खैबर-पख्तूनख्वा में जिहादियों के साथ सौदा मददगार होगा. यह लक्ष्य पंजाब को लेकर भी नजर आता है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा और कथित ईश-निंदकों की हत्याओं के मामलों पर मुनीर ने चुप्पी साध रखी है.
लेकिन उनसे पहले जितने जनरल हुए, उन सबको यही सबक मिला कि पाकिस्तानी जिहादवाद को अपनाना खतरनाक ही साबित हुआ है, और यह प्रायः अल्पकालिक उपक्रम ही रहा. जनरल परवेज़ मुशर्रफ के कार्यकाल में उनकी हत्या की कम-से-कम चार कोशिशें हुईं. एक कोशिश तो उनकी खुफिया सेवाओं की शह पर हुई. टीटीपी से कई शांति समझौते करने वाले जनरल रहील शरीफ ने 2014 में खुद को लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर पाया. जनरल क़मर जावेद पाहवा को जल्दी ही पता लग गया था कि काबुल के पतन ने पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान करने से ज्यादा उसे और खतरे में डाल दिया, क्योंकि वैचारिक महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित हथियारबंद जिहादी हथियारों के बड़े जखीरे के साथ पाकिस्तान लौटने लगे थे.
इस जोखिम भरे दौर से उबरने का एक ही उपाय है : पाकिस्तान अपने दरवाजे सच्ची जम्हूरियत के लिए खोल दे. लेकिन यह एक कदम उठाना मौजूदा या किसी और फील्ड मार्शल के लिए बहुत भारी होता है.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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