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गुरूवार, 26 जून, 2025
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ईरान-इज़राइल के लिए सबक: 1969 के सोवियत संघ-चीन संघर्ष से क्या सीखना चाहिए

सोवियत संघ के साथ टकराव में चीन ने यह सीखा कि अगर किसी देश के पास नया और कमजोर परमाणु हथियार भंडार हो, तो वह किसी बड़ी ताकत को डराकर रोक नहीं सकता.

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झोंगनानहाई की ओखर-लाल दीवारों से दूर, जो एक ऐसा विलो वृक्षों से घिरा हुआ सीक्रेट बाग़ था जहां कभी चीनी सम्राट अपनी सुबहें ठंडी नेस्त के सूप के साथ शुरू करते थे, माओ ज़ेडोंग को पता था कि सोवियत संघ की हथौड़ी उठ रही है—जो उनकी सत्ता को अंडे की तरह तोड़ सकती थी. 1969 की शरद ऋतु में चीन की सीमा पर सोवियत संघ के 27 से 34 डिविजन इकट्ठे हो चुके थे, जिनमें लगभग 2,70,000 से 2,90,000 सैनिक थे, जिनके साथ टैंक, तोपें, हेलीकॉप्टर और अन्य हथियार थे. लेक बैकाल के किनारे पर 500 किलोटन परमाणु वारहेड वाले मिसाइल भी मौजूद थे.

ईरान और इज़राइल के बीच हाल ही में जो अस्थायी संघर्ष विराम हुआ है—जो आंशिक रूप से राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा दिए गए तीखे बयान के कारण संभव हो पाया—उसने क्षेत्र में थोड़ी शांति लाई है, जो लगातार बढ़ते लंबे और अस्थिर संघर्ष की आशंका से चिंतित था, और साथ ही एक ऐसी दुनिया को भी राहत दी है जो आर्थिक अस्थिरता से डरी हुई है.

हालांकि, यह संघर्ष विराम ज़्यादातर महत्वपूर्ण सवालों का जवाब नहीं देता. विशेषज्ञों ने ईरान के फ़ोर्डो और इस्फहान स्थित प्रमुख परमाणु ठिकानों पर हुए हमलों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि कुछ मुख्य ढांचे अभी भी सुरक्षित हैं. इससे भी अहम यह है कि उनका कहना है कि देश का समृद्ध यूरेनियम भंडार अब भी सुरक्षित है.

अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का मानना है कि ईरान ने अब तक परमाणु बम बनाने का राजनीतिक निर्णय नहीं लिया है—और इस तकनीक को पूरी तरह हासिल करने में अभी कम से कम एक साल का समय है. लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इज़राइल कब यह तय कर ले कि उसकी अस्तित्व से जुड़ी सुरक्षा चिंताएं आगे हमलों को जायज़ ठहराती हैं या नहीं.

यह भी नहीं कहा जा सकता कि ईरान कब यह फैसला कर सकता है कि उसे परमाणु हथियार चाहिए. ईरान के लिए परमाणु हथियार बनाने की प्रेरणाएं काफी बड़ी हैं. 1979 से लगातार अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना कर रहे इस देश को अपनी सेना को आधुनिक बनाने और अपनी हवाई सीमा की रक्षा करने के लिए तकनीक तक नहीं मिली. ऐसे में एक ऐसा हथियार जो पूरे शहर को नष्ट कर सकता है, एक ज़ोरदार तर्क बन सकता है.

1965 में, सोवियत संघ और चीन—एक ऐसा देश जिसके पास पूरी दुनिया को तबाह करने वाला हथियार भंडार था, और दूसरा ऐसा देश जिसके पास सीमित और असुरक्षित परमाणु हथियार थे—काफी हद तक ऐसे ही सवालों से जूझ रहे थे.

दोनों देशों के जनरलों ने उस भविष्यवाणी पर विचार किया था, जो जापानी एडमिरल इसोरोकु यामामोटो ने की थी, जब वे 1941 में अमेरिका की नौसेना पर हुए चौंकाने वाले हमले की योजना बना रहे थे: “अमेरिका और ब्रिटेन के साथ युद्ध के पहले छह से बारह महीनों में मैं धड़ल्ले से जीत हासिल करूंगा. लेकिन अगर युद्ध इससे आगे बढ़ा, तो मुझे सफलता की कोई उम्मीद नहीं होगी.”

एक रोमांस का अंत

ईरान और इज़राइल की तरह, जो एक समय पर गाइडेड मिसाइल कार्यक्रम में सहयोग करते थे, एक-दूसरे को दुश्मनों के बारे में खुफिया जानकारी देते थे और मजबूत कूटनीतिक संबंध रखते थे, उसी तरह सोवियत संघ और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में घनिष्ठ सहयोगी बनकर उभरे. उन्होंने विकास परियोजनाओं और इंजीनियरिंग के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज दिए. 1957 में, मास्को ने चीन को एक प्रोटोटाइप परमाणु हथियार और यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड को समृद्ध करने वाले उपकरण देने का वादा किया था—जो हथियार-स्तरीय विखंडनीय सामग्री का आधार होता है.

शीत युद्ध के दौरान इस तरह का सहयोग असामान्य नहीं था: विद्वान मुस्तफा किबारोग्लु के अनुसार, अमेरिका ने ईरान में परमाणु इंजीनियरों की एक टीम को प्रशिक्षित किया, जबकि फ्रांस और जर्मनी ने ईरान को यूरेनियम समृद्ध करने की तकनीकें बेचीं.

1949 में मास्को की यात्रा के दौरान माओ ने “दस हज़ार साल की दोस्ती और सहयोग” की बात कही थी. इसके बाद, 1950 में, दोनों देशों ने दोस्ती, गठबंधन और आपसी सहायता की संधि पर साइन किए. हालांकि सोवियत संघ ने उत्तर कोरिया में पीपुल्स रिपब्लिक की दस लाख सैनिकों वाली सेना का समर्थन करने के लिए विमान भेजने से इनकार कर दिया, फिर भी उसने औद्योगिक और सैन्य सहायता देने में दरियादिली दिखाई.

लेकिन 1954 से, सोवियत-चीनी संबंधों में गंभीर तनाव आने लगे. यह विवाद, अन्य बातों के अलावा, सोवियत प्रीमियर निकिता ख्रुश्चेव और माओ के बीच तानाशाह जोसेफ स्टालिन की विरासत को लेकर था. चीन ने यह भी देखा कि फिर से औद्योगीकरण कर रहा सोवियत संघ पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.

फिर, 1959 में, सोवियत संघ ने चीन के साथ परमाणु सहयोग पर रोक लगा दी, क्योंकि वह परमाणु हथियार परीक्षण प्रतिबंध संधि पर बातचीत शुरू कर रहा था. इसके अलावा, अगले वर्ष सभी सोवियत कर्मियों को चीन से वापस बुला लिया गया—जो देश के परमाणु और सैन्य कार्यक्रमों के लिए एक बड़ा झटका था.

युद्ध की ओर

जैसे कई संकटों की शुरुआत होती है, वैसे ही यह विवाद भी कुछ नहीं से, कहीं दूर-दराज़ इलाके में शुरू हुआ. सौ साल से भी ज़्यादा समय तक, दक्षिण-पूर्व चीन में तैनात पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिक उस उसुरी नदी के पार देखते थे, यह जानते हुए कि खाबारोवस्क और प्रिमोर्स्की क्राय के इलाके कभी उनके थे. 1860 में हुई पेकिंग संधि ने चीन और रूसी साम्राज्य की पूर्वी सीमा उसुरी और अमूर नदियों के साथ तय की थी. यह जमीन का बंटवारा ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मिलकर थोपे गए समझौते का हिस्सा था. युद्ध से कमजोर हो चुके चिंग राजवंश वाले चीन के पास नाइंसाफी भरे इन शर्तों को मानने के अलावा कोई चारा नहीं था.

1968 से 1969 तक, पूर्व सोवियत सैन्य कमांडर यूरी बाबांस्की ने बाद में याद किया कि पीएलए के सैनिक अक्सर बर्फ से ढके दमांस्की द्वीप में घुसपैठ करने लगे थे, उनके पास कुल्हाड़ियां, डंडे और कभी-कभी बंदूकें भी होती थीं. वास्तविक नियंत्रण रेखा की तरह, इन झड़पों में भी शुरू में गोलीबारी नहीं होती थी.

लेकिन हालात तेजी से बिगड़े. पहली बार सैनिकों की मौत जनवरी 1968 में हुई, जब हाथापाई जैसी एक झड़प में सोवियत सैनिकों ने पीएलए के पांच सैनिकों को मार दिया. इसके बाद, दिसंबर 1968 और फरवरी 1969 में नौ और झड़पें हुईं, जिनमें पहली बार चेतावनी के तौर पर गोली चलाई गई.

2 मार्च 1969 की सुबह, पीएलए के सैनिक दमांस्की द्वीप पर पहुंचे और वहां गड्ढे खोदकर छिप गए. उसी दिन जब एक सोवियत गश्ती दल वहां से गुज़रा, तो लगभग 300 पीएलए सैनिकों ने अचानक अपनी छिपी हुई जगहों से निकलकर फायरिंग शुरू कर दी. हालांकि पीएलए को पीछे खदेड़ दिया गया, लेकिन 15 मार्च को और भी ज्यादा भीषण लड़ाई हुई. इस बार, शोधकर्ता माइकल गेर्सन के अनुसार, 2,000 से अधिक पीएलए सैनिकों का मुकाबला सोवियत सेना से हुआ, जिसे नए टी62 टैंक, तोप और हवाई ताकत का समर्थन मिला था.

सोवियत संघ ने इस संकट को शांत करने की कोशिश की, लेकिन चीन ने इसे ठुकरा दिया। गेर्सन लिखते हैं कि प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन ने माओ को फोन करने की कोशिश की, जो दोनों देशों के बीच बनी सीधी लाइन से करना था. लेकिन चीनी ऑपरेटर ने कॉल जोड़ने से इनकार कर दिया और कोसिगिन को “पुनरुत्थानवादी तत्व” कहकर फोन काट दिया.

परमाणु खतरा

विकसित दस्तावेज़ों से यह साफ़ हो गया है कि सोवियत संघ ने इस समस्या को परमाणु हमले के ज़रिए हल करने पर गंभीरता से विचार किया था. 18 अगस्त 1969 को वॉशिंगटन डीसी के बीफ़ एंड बर्ड रेस्टोरेंट में एक बैठक के दौरान, सोवियत राजनयिक बोरिस डाविडोव ने अपने अमेरिकी समकक्ष विलियम स्टीयरमैन से सीधे पूछा, “अगर सोवियत संघ चीन की परमाणु सुविधाओं पर हमला करके उन्हें नष्ट कर दे तो अमेरिका क्या करेगा?” इतिहासकार विलियम बर्र और जेफ़री रिकेलसन ने दर्ज किया है कि अमेरिका ने भी 1960 में सोवियत प्रमुख निकिता ख्रुश्चेव को ऐसा ही प्रस्ताव दिया था—और उम्मीद थी कि यह विकल्प अब भी खुला है.

हालांकि, एक हफ्ते पहले ही प्रख्यात विद्वान एलेन व्हाइटिंग ने राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर से मुलाकात की थी और यह तर्क दिया था कि सोवियत-चीन तनाव अमेरिका को इन दोनों देशों के बीच फूट डालने का एक मौका देता है. व्हाइटिंग के पेपर, जिसे अब सार्वजनिक किया जा चुका है, के आधार पर अमेरिका ने विभिन्न माध्यमों से माओ तक पहुंचने की कोशिश की, यह देखने के लिए कि क्या कोई कूटनीतिक रास्ता निकल सकता है.

हालांकि, इस समय अमेरिकी सरकार में भी कोई स्पष्ट सहमति नहीं थी. उदाहरण के तौर पर, सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के पूर्व अधिकारी विलियम हाईलैंड ने एक टॉप सीक्रेट पेपर में यह तर्क दिया कि एक सीमित चीन-सोवियत युद्ध, जो चीन के परमाणु हथियारों की तबाही के साथ खत्म हो, वह अमेरिका के हित में होगा.

अंत में, अमेरिका ने इस तेज़ी से बढ़ते संकट में खुद को तटस्थ रखने का फैसला किया. गेर्सन लिखते हैं कि सीआईए का अंदाज़ा था कि चीन की सेना के पास 10 से भी कम एक-स्तरीय, तरल ईंधन से चलने वाली डीएफ-2 मीडियम रेंज मिसाइलें थीं और कुछ ही बड़े बम गिराने वाले विमान थे. सीआईए के अनुसार, सोवियत संघ पहले हमले में इस पूरी ताकत को खत्म कर सकता था.

हालांकि, सोवियत रणनीतिकारों के लिए खतरा इससे कहीं अधिक जटिल था. कोरियाई युद्ध के बाद से, चीन ने यह सीख लिया था कि उसका विशाल भौगोलिक क्षेत्र और जनसंख्या खुद एक ताकतवर डरावना हथियार हैं. भले ही सोवियत रक्षा मंत्री आंद्रेई ग्रेचको पीएलए पर बहु-मेगाटन हमलों की बात कर रहे थे, उनके सहयोगियों को डर था कि चीन इन नुकसानों को सह लेगा और फिर ब्लागोवेशचेंस्क, व्लादिवोस्तोक और खाबारोवस्क पर हमला करेगा, साथ ही ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के अहम जंक्शनों को भी निशाना बना सकता है. इससे युद्ध सोवियत संघ के भीतर तक पहुंच सकता था.

चीन के नेताओं को भी अब यह डर सताने लगा था कि सोवियत संघ अपनी धमकी को अमल में ला सकता है. पीएलए के मार्शल लिन बियाओ और माओ ने अब तनाव कम करने के लिए बातचीत की अनुमति दी. गेर्सन के अनुसार, जब प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन का विमान बीजिंग पहुंचा, तो दोनों इतने डरे हुए थे कि उन्हें लगा कि उसमें स्पेशल फोर्सेज या शायद कोई परमाणु हथियार हो सकता है.

ईरान-इज़राइल युद्ध के लिए इस संकट से कई गहरी सीख मिलती हैं. पहली बात यह है कि चीन ने समझा कि एक नया-नया परमाणु शस्त्रागार रखने वाला देश किसी बड़ी ताकत को नहीं डरा सकता. ये हथियार सिर्फ दिखावे के लिए ठीक थे, लेकिन असल में काम के नहीं. वहीं सोवियत संघ को यह डर सताने लगा कि वह एक अंतहीन युद्ध में फंस सकता है. अपने दुश्मन को खत्म करना मुमकिन था, लेकिन इसकी कीमत इतनी बड़ी होती कि वह चुकाना समझदारी नहीं होती.

अपने हिस्से की बात करें तो अमेरिका ने चीन और सोवियत संघ के बीच इस दरार का पूरा फायदा उठाया, और 1971 में किसिंजर ने अपनी मशहूर गुप्त बीजिंग यात्रा की। इसी के चलते कई घटनाएं घटीं, जिनका परिणाम सोवियत संघ के पतन और अमेरिका के बराबर की चुनौती के रूप में चीन के उदय में हुआ.

लेकिन इस संकट की सबसे अहम सीख सबसे सीधी है: हर समस्या का हल बमबारी नहीं होता. 1969 में चीन और सोवियत संघ दोनों ने जाना कि वे मामूली फायदे के लिए विनाशकारी नतीकों का जोखिम ले रहे थे. यही सीख ईरान और इज़राइल को बहुत गंभीरता से समझनी चाहिए.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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