यूपी के बलिया जिले के डीएम भवानी सिंह खगरौत ने एक नेता के साफ कपड़े, कार, घड़ी और जूते पहनने को लेकर दिए अपने बयान का सोशल मीडिया पर विरोध होने के बाद माफ़ी मांग ली है. अपने माफ़ीनामे में उन्होंने लिखा है कि ‘समस्या प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को प्रशासनिक अधिकारी से उचित सम्मान मिलना चाहिए, जो उस दिन नहीं मिला. यह मेरी गलती थी. किसी व्यक्ति की घड़ी, जूते या गाड़ी पर बात करना भी बचपना था. घटना के दौरान ऐसा नहीं लगा पर अब महसूस हो रहा है.’
‘बचपना नहीं’, सामंती था डीएम बलिया का कथन
विदित हो कि बलिया के एक प्राथमिक विद्यालय में मिड डे मील खाने के दौरान अनुसूचित जाति के बच्चों के साथ भेदभाव के तूल पकड़ने पर ज़िलाधिकारी भवानी सिंह खगरौत जांच के लिए पहुंचे थे. उसी दौरान मौक़े पर शिकायत करने गए बीएसपी के एक नेता की घड़ी, कपड़े, जूते और गाड़ी को लेकर उन्होंने कमेंट किया, जिसके बाद देश ही नहीं विदेश से भी लोगों ने सोशल मीडिया पर अपने जूते की फ़ोटो डालकर डीएम के व्यवहार का विरोध किया, जिसके बाद उन्होंने अपने कथन को ‘बचपना’ कहकर माफ़ी मांग ली.
केंद्रीय सेवा नियमावली का उल्लंघन
भवानी सिंह अब भले ही अपने बयान को बचपना कह रहे हों, लेकिन उनका उक्त कथन केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमवाली-1964 के विरुद्ध है. यह अलग बात है कि संबंधित मण्डल के आयुक्त (कमिश्नर) ने इस नियमवाली के सार्वजनिक तौर पर उल्लंघन करने पर इनको कोई कारण बताओ नोटिस जारी किया है या नहीं, यह अभी तक पता नहीं चला है.
सिविल सेवा के अधिकारियों को कैसे काम करना चाहिए, इसके लिए भारत सरकार ने 1964 में केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली बनायी है, जो कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध है. यह नियमावाली सिविल सेवा अधिकारियों को फ़ील्ड में काम करते समय मार्गदर्शिका का काम करती है, जिसके नियमों का उल्लंघन पर अधिकारी का वेतन तथा पदोन्नति में कटौती से लेकर नौकरी से हटाने तक की सज़ा होती है. मोदी सरकार ने हाल ही में इसी नियमवाली के एक प्रावधान का प्रयोग करके कई अधिकारियों को ज़बरदस्ती रिटायर किया है.
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इस क्रम में यदि बलिया के डीएम का आचरण देखा जाए तो वह भी सिविल सेवा निमावली-1964 के नियम-3 के भाग-10 का सीधा-सीधा उल्लंघन है, जो कहता है कि हर सरकारी कर्मचारी नागरिकों के साथ हर समय ‘विनम्रता और अच्छे शिष्टाचार से पेश आएगा’. इसी नियमवाली का नियम-3ए कहता है कि ‘कोई भी सरकारी कर्मचारी अपनी ड्यूटी करते समय किसी से भी असम्मानजनक तरीक़े से पेश नहीं आएगा’.
सिविल सेवा के अधिकारियों को यह नियमवाली ट्रेनिंग से लेकर हर समय पढ़ाई जाती है, कहा तो यहां तक जाता है कि हर अधिकारी के टेबल पर यह नियमवाली पड़ी होती है. इसके बावजूद जब एक डीएम सरे आम इसका उल्लंघन करता पाया जाए, तो सवाल उठाना लाज़िमी है कि वह ऐसा साहस कैसे कर पा रहा है. प्रथम दृष्ट्या यह दिखाई देता है कि यह अधिकारी अपने आचरण/व्यवहार को क़ाबू कर पाने में अक्षम है. चूंकि भवानी सिंह का व्यवहार सार्वजनिक तौर पर सबके सामने आ गया है इसलिए बिना माफ़ी मांगे बच के जाना असंभव हो गया था. लेकिन, सिविल सेवा में ऐसा तमाम अधिकारी हैं, जो अपने ख़राब व्यवहार के लिए जाने जाते हैं. आम जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठा पाती. भवानी सिंह प्रकरण ने एक बड़ा सवाल पैदा किया है कि अधिकारी ख़राब आचरण क्यों कर रहे हैं?
आचरण (व्यवहार) और नैतिकता
कोई व्यक्ति किसी से कैसे मिलता है या फिर पेश आता है, यह आचरण (व्यवहार) का मामला है, जो व्यक्ति की नैतिकता से संचालित होता है. कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या समूह के बारे में कैसे सोचता है, यह नैतिकता का क्षेत्र है. अगर कोई किसी के बारे में अच्छा सोच नहीं पा रहा है तो यह बात उसके व्यवहार में दिखाई दे सकती है. किसी भी देश की समाज व्यवस्था, धर्मग्रन्थ, महापुरुषों की शिक्षाएं आदि से नैतिक धारणाओं को निर्माण होता है. अमेरिका में काले लोगों के लिए सिविल राइट्स का आंदोलन चलाने वाले डॉ मार्टिन लूथर किंग के अनुसार, ‘नैतिकता के लिए क़ानून नहीं बनाया जा सकता, लेकिन आचरण (व्यवहार) को क़ानून से नियंत्रित किया जा सकता है.’ भारत समेत दुनियाभर के देशों ने अपने अधिकारियों के आचरण (व्यवहार) को नियंत्रित करने के लिए नियम/क़ानून इसी सोच के आधार पर बनाए हैं.
क़ानून अक्षम क्यों हो रहा
एक सवाल जो हमारे सामने है कि अधिकारियों के व्यवहार को नियंत्रित करने में आचरण नियमावाली क्यों कमज़ोर साबित हो रही है? इसका एक जवाब यह है कि अधिकारी बेशक आधुनिक लोकतंत्र के तहत काम करने वाली नौकरशाही के लिए नियुक्त किए जा रहे हैं, लेकिन निजी और सामाजिक जीवन के प्रभाव की वजह से वे सामंतवाद, जातिवाद, ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता जैसे मूल्यों से अपने आप को अलग नहीं कर पा रहे हैं. वे दरअसल इन्हीं पुरातन मूल्यों से गाइड हो रहे हैं. आजकल तो फ़िल्मों, टीवी सीरियलों, न्यूज़ चैनलों आदि से ये मूल्य फिर से ताकत हासिल कर रहे है.
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इसका दूसरा जवाब यह है कि सामंतवादी, जातिवादी, ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक ताक़तें सिविल सेवा, न्यायपालिका, विश्वविद्यालय जैसी लोकतंत्र की संस्थाओं में अपना वजूद बचाने के लिए घुस रही हैं. उत्तर भारत में ज़मींदारी प्रथा के टूटने के बाद भी उनके जीवन-मूल्य अभी भी ज़िंदा है, ये मूल्य किस्से, कहानियों, लोगों की यादों के माध्यम से ज़िंदा रहते हैं, और प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, न्यायपालिका, विश्वविद्यालय आदि में विभिन्न रूपों में घुस कर अपने को बचाने की कोशिश में हैं. इसलिए हमें वो इन संस्थाओं में दिखाई दे जाते हैं. यहां वे अपनी कल्पनाओं में मौजूद सामंती ठाठ और रुतबे को जीने की कोशिश करते हैं और इस क्रम में लोकतंत्र के विरुद्ध आचरण करने लगते हैं.
इस मायने में भारतीय नौकरशाही को सामंती मूल्यों से आजाद की एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि इन मूल्यों का लोकतंत्र से सीधा टकराव है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)