पूर्वोत्तर के असम में पिछले कई सालों से चले आ रहे असमंजस, राजनीति और प्रचार के बाद एनआरसी की फाइनल सूची जारी कर दी गई है. राज्य के तकरीबन 19 लाख लोगों को लिस्ट से बाहर कर दिया गया है. राज्य के 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिकता सूची में शामिल होने के लिए आवेदन किया था, लेकिन उसमें से महज 6 फीसदी लोग ही भारत के नागरिक साबित नहीं हो पाए हैं.
जो आंकड़े सामने आए हैं वो काफी कम हैं. 1979 में असम में बढ़ते असंतोष के बाद वहां के नेताओं ने भारत सरकार से मांग की थी कि 1951 की एनआरसी लिस्ट को अपडेट किया जाए. जिसके बाद राजीव गांधी की सरकार के दौरान असम समझौता हुआ था. 3 दशकों के बाद एनआरसी लिस्ट को अपडेट किए जाने के बाद लगता है कि असम समझौते के दौरान जो मुद्दे उठाए गए थे वो आज के परिप्रेक्ष्य में बेईमानी लगते हैं.
निरर्थक शुरुआत
फिलहाल एनआरसी की जो लिस्ट जारी हुई है, उससे ज्यादा कुछ हासिल होता नज़र नहीं आ रहा है. लेकिन इसकी पूरी प्रक्रिया के दौरान राज्य के लोगों को काफी परेशानियां हुई हैं और लोगों के बीच डर बना है. जिसकी वजह से भारत का नाम खराब हो रहा है. इस प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट का भी काफी समय लगा है. एनआरसी लिस्ट को अपडेट करने में लगभग 1100 करोड़ रुपए लगे हैं. इसमें लिस्ट को तैयार करने में तकरीबन 62 हज़ार लोग लगे हुए थे. इस लिस्ट के जरिए सत्तारूढ़ भाजपा ने राज्य की जनता के बीच अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को फैलाने का काम किया है और ध्रुवीकरण की राजनीति की है.
एनआरसी लिस्ट को अपडेट करने के पीछे कारण ये था कि राज्य में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान की जाए. इस प्रक्रिया के तहत उन्हीं लोगों को भारत का नागरिक माना गया है जो 24 मार्च 1971 से पहले या उस दिन तक भारत के नागरिक थे. असम के लोगों की काफी सालों से मांग थी कि राज्य में रह रहे बाहरी लोगों की पहचान की जाए. उनका मानना था कि बाहरी लोगों की वजह से उन्हें काफी नुकसान होता है और उनके संसाधनों का इस्तेमाल बाहरी लोग करते हैं. आपको बता दें कि राज्य के लोगों का सभी बाहरी लोगों पर गुस्सा था. लेकिन, भाजपा ने इसे मुस्लिम अप्रवासियों का मुद्दा बना दिया था.
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अप्रवासी लोगों पर राज्य के लोग काफी गुस्सा थे. इसका कारण था कि लोग मानते थे कि अप्रवासी उनके हकों को मार रहे हैं. लेकिन फाइनल लिस्ट आने के बाद ऐसे लोगों की संख्या महज़ फीसद ही निकली. लिस्ट में जिनेक नाम नहीं हैं उन लोगों को भी सरकार ने 120 दिनों के भीतर अपनी नागरिकता साबित करने का एक और मौका दिया है.
अंतिम लिस्ट में जिन लोगों के नाम नहीं है वो संख्या पहले आई 2 लिस्टों के मुकाबले काफी कम है. इससे पहले भी 2 लिस्ट आ चुकी है जिसमें लगभग 40 लाख लोगों को बाहर किया गया था. लेकिन दोबारा जांच प्रक्रिया में 20 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित करने में सफल रहें. विदेशी ट्रिब्यूनल में लोगों ने अपने दस्तावेज़ों की जांच कराई और अंतिम लिस्ट में उनका नाम भारत के नागरिक को तौर पर शामिल कर लिया गया.
असम भाजपा के नेता हिमंत बिस्वा शर्मा ने 2018 में दिप्रिंट के ऑफ द कफ में दावा किया था कि 1971 के बाद जो भी लोग गैर-कानूनी रूप से भारत आए थे उन्हें चिन्हित किया जाएगा.
वर्तमान स्थिति में देखें तो एनआरसी पूरी तरह से एक अर्थहीन शुरुआत लगती है. जिस उद्देश्य से इसे लाया गया था वो हासिल होता नहीं दिख रहा है. उन लोगों के बारे में कल्पना करिए, जो गैर-कानूनी तौर पर 1971 के बाद भारत आए थे. अभी उन लोगों की तीसरी पीढ़ी राज्य में रह रही है. उन लोगों ने सिर्फ असम को ही बचपन से देखा है. उनमें से ज्यादातर लोग अपने दस्तावेज़ दिखा भी देंगे कि वो यहां के नागरिक हैं.
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भाजपा का कदम
पूरी प्रक्रिया पर गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा अपनी बहुसंख्यकवाद की राजनीति के लिए एनआरसी लिस्ट का इस्तेमाल कर रही है. लेकिन इस लिस्ट के जारी होने के बाद भाजपा भी सकते में हैं. नागरिकता से बाहर हुए लोगों में सिर्फ मुस्लिम नहीं है. इसमें ज्यादातर लोग बंगाली हिंदू हैं, असम के जनजातीय लोग और नेपाली हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस लिस्ट के बाद भाजपा असम को लोगों को कैसे विश्वास दिलाएगी की वो हिंदुओं के खिलाफ नहीं है. क्या भाजपा लिस्ट की फिर से जांच कराएगी.
अतं में इस पूरी प्रक्रिया पर हिंदी का एक मुहावरा ही याद आता है- खोदा पहाड़, निकली चुहिया. लेकिन शायद भाजपा माने कि चुहिया नहीं दीमक निकलें हैं पहाड़ से. क्योंकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अप्रवासी लोगों को दीमक कहा था और कहा था इन लोगों को बंगाल की खाड़ी से बाहर कर देना चाहिए.
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