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Thursday, 21 November, 2024
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कश्मीर को लेकर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों के 5 मुगालते, जिन्हें तोड़ना जरूरी है

ये ऐसे भ्रम हैं जो तथ्यों और तर्कों के आगे टिक नहीं सकते. कश्मीरियों का दिल जीतना है तोबहुलतावादी सोच पर अमल करना ही सबसे बेहतर रास्ता है.

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पिछले सप्ताह इस स्तम्भ में जम्मू-कश्मीर को लेकर उदारवादियों के पांच मुगालतों को तथ्यों और हकीकतों की कड़ी कसौटी पर कसा गया था. तार्किकता का तक़ाज़ा है कि इस मसले पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों के पांच मुगालतों को भी ऐसी ही कसौटी पर कसा जाए. नरेंद्र मोदी-भाजपा के विशाल मतदाता आधार को देखें तो यह समूह बहुत विशाल है. इनकी यह धारणा, कि अनुच्छेद 370 और कश्मीरी नेताओं का ‘विश्वासघाती दोहरापन’ ही एकमात्र समस्या है, भारतीय सत्तातंत्र के सामूहिक अन्याय के बारे में उदारवादियों की धारणा से कहीं ज्यादा मजबूत है.

यह दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी जुनून तथ्यों और जमीनी हकीकतों के बारे में अज्ञानता से पैदा होता है. चाहे वामपंथियों का हो या दक्षिणपंथियों का या मध्यमार्गियों का, मुगालता कोई भी हो उससे देश का या कश्मीर का हित नहीं सधने वाला. इसलिए उन पर तथ्य और तर्क की रोशनी डालना जरूरी है. मान्यताएं अच्छी तो लगती हैं मगर वे तथ्यों पर टिकी हुई न हों तो खतरनाक होती हैं. इसलिए मैं यहां कश्मीर पर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों के पांच पसंदीदा मुगालतों पर रोशनी डाल रहा हूं.


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1. पहला और सबसे अहम मुगालता अनुच्छेद 370 को लेकर है, जो कश्मीर को विशेष दर्जा देता है और जिसे समस्या की जड़ माना जाता है. माना जा रहा है कि अब यह रद्द हो गया है तो समस्या भी खत्म! एक नया इतिहास रचा गया है और एक नया सवेरा हुआ है! बहुत खूब! लेकिन नया इतिहास रचने से पुराना इतिहास मिट नहीं जाता. अनुच्छेद 370 राष्ट्रीय चेतना में और कश्मीर में भी एक बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के तौर पर दर्ज़ रहा है लेकिन तथ्य यह है कि एक अस्थायी और विशेष प्रावधान के तौर पर अस्तित्व में आने के 69 सालों में यह अपने मूल स्वरूप की हल्की छायाभर भी नहीं रह गया था.

शायद वी.पी. सिंह को छोड़कर भारत के हरेक प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद 370 को कमजोर करने का ही काम किया. पिछले महीने, जब तक मोदी सरकार ने इसे रद्द करने का कदम उठाया तब तक यह महज औपचारिकता रह गई थी. जब यह अनुच्छेद 370 लागू हुआ था तब कश्मीर के केवल प्रतिरक्षा, विदेश और संचार के मामले केंद्र के हाथ में थे, आज भारतीय संविधान के 395 में से 290 अनुच्छेद कश्मीर पर सीधे लागू हैं. कुछ अड़चनें जरूर रह गई थीं. एक आम प्रमुख उलाहना यह रह गया था कि दूसरे राज्यों केलोगों को कश्मीर में रोजगार या ज़मीन-जायदाद हासिल करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा था.

कुछ दूसरी, हल्की किस्म की मानी जा सकने वाली शिकायतें भी थीं, मसलन यह कि गैर कश्मीरी से शादी करने वाली कश्मीरी महिलाओं और उनकी संतानों को कश्मीरी होने के दर्जे और कश्मीर में ज़मीन-जायदाद के अधिकार से वंचित किया जाता था, तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश या आइपीसी की धारा 377 वहां लागू नहीं होती थी. ये सब गलत तो था मगर इन्हें किसी भी तरह से अलगाव का मूल कारण नहीं माना जा सकता. इस खाते के दो और मुगालते हैं जिन पर पाकिस्तान का नाम दर्ज़ है. एक में पाकिस्तान को अतिक्रमणकारी के तौर पर दर्ज़ किया गया है, जिसे निकाल बाहर जाना किया जाना चाहिए; और दूसरे में उसे प्रमुख उकसाऊ तत्व के तौर पर देखा जाता है.

2. 1948 के बाद से राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी विमर्श इस तरह चला है— दिग्भ्रमित नेहरू अगर कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में न ले जाते, अगर पूरा मामला सरदार पटेल के हाथ में होता तो भारतीय सेना गिलगिट- बल्तिस्तान समेत पूरा कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे से आज़ाद करा लेती…. लेकिन हकीकत बिलकुल अलग है. और यह भले ही बुरी लगती हो मगर यह बदल नहीं सकती. 1947-48 में दो झड़पों के, जो जाड़ा शुरू होने के कारण रुक गई, बाद दोनों सेनाएं गतिरोध की
स्थिति में आ गईं. आप उस समय का दोनों तरफ का सारा फौजी इतिहास और साहित्य पढ़ डालिए.

भूगोल से लेकर जमीनी स्थितियों, फौजी इंतजाम व ताकत, और स्थानीय सामुदायिक समीकरण तक तमाम तत्वों ने दोनों तरफ किसी अर्थपूर्ण प्रगति को असंभव कर दिया. भारत उड़ी के पार मुजफ्फराबाद तक शायद एक ही बार तब पहुंच सकता था जब झड़प नवंबर-दिसंबर’48 में पहले चरण में थी. लेकिन तब इसके लिए जरूरी सेना को सड़क या वायु मार्ग से वहां तक लाना तब तक संभव नहीं था जब तक कि बनिहाल दर्रा बर्फबारी के बाद बंद नहीं हो जाता. भारत और पाकिस्तान, दोनों ओर से कई दावे किए गए हैं कि 1948 में जीत मुमकिन थी. मगर ये सब खामख्यालियां ही हैं. याद रहे कि वह जंग जब लड़ी गई थी तब दोनों तरफ की फौजों की कमान अंग्रेज़ जनरलों के हाथ में थी. और फिर सीधी-सी बात यह है कि भारत को पर्याप्त फौजी बढ़त नहीं हासिल थी.

बंटवारे के समय पाकिस्तान को विरासत में पूर्ण भारत की सेना का एक तिहाई हिस्सा और अर्थव्यवस्था का छठा हिस्सा मिला था. आगे चलकर उसने मुल्क को बरबाद कर दिया, मगर 1947-48 में दोनों देशों की सैनिक ताकत में इतना फर्क नहीं था कि आप हिमालय के पार जाकर वह मशहूर फतह हासिल कर लेते. और क्या आज पीओके (पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर) को पाकिस्तान से आज़ाद कराया जा सकता है? पूरी विनम्रता से मैं कहना चाहूंगा कि यह मुमकिन नहीं है. 1948 के बाद से हमने कितनी भी लड़ाइयां लड़ी हों, इनमें दोनों तरफ के हजारों लोगों को गंवा चुके हों, फिर भी दोनों सेनाओं के बीच की सीमारेखा लगभग जस की तस है, सिवाय 1971 में हुई मामूली अदलाबदली के. सियाचिन भी किसी के कब्जे में नहीं था और निर्जन था, उसे बिना लड़े हासिल कर लिया गया.

असली जंग हो (टीवी चेनलों के नकली कमांडो कॉमिक वाली नहीं) तो पाकिस्तानी फौज बचाव की जंग लड़ने में काफी सक्षम है. 1948 में ‘गंवाई गई’ ज़मीन को फिर से हासिल करने का जुनून हो या एक नई जंग छेड़कर पीओके को बांग्लादेशनुमा मुहिम के तहत आज़ाद करा लेने का रोमानी सपना हो, दोनों ही बेमानी पौराणिक किस्म के सपने हैं.

3. पाकिस्तानी दुष्प्रचार और कट्टरपंथी इस्लाम के चलते दिमागों के प्रदूषण को छोड़ दें तो कश्मीर के लोग कुल मिलाकर विनम्र, शांतिप्रिय देशभक्त भारतीय हैं. एक समय था जब पहली बात सच थी पर अब ऐसा नहीं है. बगावत के 30 साल के दौर के शुरू में ज़्यादातर हथियारबंद लड़ाके पाकिस्तान से आए थे. वास्तव में, 1990 के दशक में आइएसआइ ने कई विदेशी (अफ्रीकी और अरबी) जिहादियों की भी घुसपैठ करवाई थी, जिन्हें अधिकतर कश्मीरी बेहद नापसंद करते थे. लेकिन पिछले एक दशक में यह बगावत ज्यादा देशी रंग पकड़ चुकी है.

औसत कश्मीरी युवा नाराज, अपमानित महसूस कर रहा है और हथियार उठाने को तैयार है. यह मृतकों के आंकड़ों से जाहिर है. हाल में मारे, य पकड़े गए आतंकवादियों में कश्मीरी ही ज्यादा तादाद में हैं. यह बदलने वाला नहीं है. घाटी में इतना भारी अस्लाह छिपा पड़ा है कि आतंकवादियों के छोटे गिरोह सक्रिय रह सकते हैं. और पाकिस्तान उन्हें हथियार पहुंचाने से पीछे नहीं हटेगा. अनुच्छेद 370 के खात्मे और पुलिस पर केंद्र के सीधे नियंत्रण से सुरक्षा मजबूत होगी. मगर इससे आतंकवाद नहीं खत्म होगा.

4. सभी कश्मीरियों को निवेश और आर्थिक विकास चाहिए, इस धारणा में यकीन रखना इंसानी दिमाग के बारे में ढीठ नासमझी ही दर्शाता है. जब तक लोगों की नाराजगी, आहत भावना और अलगाव की वजहों का समाधान नहीं होता तब तक कितना भी आर्थिक विकास हो या केंद्र से कितनी भी बड़ी थैली मिले, उनका दिमाग नहीं बदलने वाला. सूबे में ज़मीन खरीदकर बाहरी लोगों के बसने, वहां की लड़कियों से शादी करके वहां की आबादी के समीकरण को बदलने के आक्रामक बयानों से हालात और बिगड़ेंगे ही. जम्मू-कश्मीर की ज़मीन हमेशा से भारत के साथ जुड़ी रही है और कोई भी इसे अलग नहीं कर सकता. लेकिन जब तक इसकी (मुख्यतः घाटी की) जनता आपके साथ नहीं आती तब तक आपके खाते में कुछ नया नहीं दर्ज होने वाला. और अंत में, हम अपने सबसे संवेदनशील पौराणिक सपने आते हैं. यह सबसे खतरनाक रूप से आत्मघाती भी है.


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5. आबादी के स्वरूप को बदलना चाहते हैं? जरा इजराएल से सबक सीख लीजिए. अगर आप उससे सही सबक लेते हैं तो आप ऐसा करने के बारे में कभी भी नहीं सोचेंगे. इजराएल दशकों से यह करने की कोशिश कर रहा है मगर नाकाम रहा है. इससे न तो उसे अमन हासिल हुआ, न ज़मीन पर उसका दावा कायम हुआ. भारत के मामले में, ज़मीन तो उसके हिस्से में है ही, और पाकिस्तान-चीन को छोड़ बाकी दुनिया इस पर कोई सवाल नहीं उठाती. यहूदी देश इजराएल के विपरीत भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र है. और, आप कोई पुरानी दिल्ली के दो मोहल्लों या चंडीगढ़ अथवा गुड़गांव के किसी सेक्टर की आबादी का स्वरूप नहीं बदलने जा रहे हैं.

आप जो चाहते हैं उसके लिए कोई एक करोड़ हिंदुओं को घाटी में ले जाना पड़ेगा. यह कभी नहीं होने वाला. यह कोई चीन नहीं है कि आप कारवानों में लाखों लोगों को इधर से उधर ले जाएं. और याद रहे कि इसके बावजूद चीन को तिब्बत या झिंजियांग में शांति नहीं हासिल हुई है. न ही इससे इजराएल को सुरक्षा और स्थिरता हासिल हुई है. इन दो देशों का सख्त रुख भले हमें बहुत प्रभावित करता हो, लेकिन भारत इनसे इस मामले में आगे है कि उसमें विविधता को बड़ी सहजता से गले लगाने की क्षमता है.

कश्मीर के मामले में यही सबसे बेहतर उपाय होगा. दिलों और दिमागों को जीतने की जंग वही पुरानी है— क्या भारत उन्हें पाकिस्तान के मुक़ाबले बेहतर पेशकश कर रहा है? उनके स्वाभिमान, उनकी गरिमा, और उनकी पहचान को मुकम्मल रखते हुए.

अनुच्छेद 370 से मुक्ति अच्छी बात है और यह बहुप्रतीक्षित थी. लेकिन आगे का रास्ता चुनने के लिए शी जिंपिंग से नहीं बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी से सबक लेना बेहतर होगा.

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