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Tuesday, 26 November, 2024
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भारत के आर्थिक संकट का मूल कारण केवल एक है, प्रधानमंत्री मोदी का कमज़ोर नेतृत्व

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी गलतियों से भारतीय अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते.

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भारतीय अर्थव्यवस्था 8 नवंबर 2016 की 8 बजे रात के बाद से ही सुस्त पड़ी है, और नरेंद्र मोदी सरकार ने आखिरकार समस्या को स्वीकार करना शुरू कर दिया है.

सर्वाधिक स्पष्ट स्वीकारोक्ति गुरुवार को आई जब नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा, ‘पिछले 70 वर्षों में किसी को भी इस तरह की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था, जहां पूरी वित्तीय प्रणाली ही खतरे में हो.’

हालांकि वह समस्या की जड़ यूपीए-2 के कार्यकाल में देखते हैं: ‘पूरे प्रकरण की शुरुआत 2009-14 के दौरान अंधाधुंध कर्ज बांटे जाने से हुई थी, जिसके फलस्वरूप 2014 के बाद से बुरे कर्ज या गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) में वृद्धि हुई है.’

हां, मनमोहन सिंह ने 2014 में अर्थव्यवस्था को बुरे हाल में ला छोड़ा था, ये सबको मालूम है. यदि सब कुछ ठीक रहता तो लोग यूपीए को सत्ता से बेदखल क्यों करते? मोदी की जिम्मेवारी अर्थव्यवस्था को ठीक करने की ही तो थी, और उन्होंने 2014 का चुनाव इसी मुद्दे पर लड़ा भी था.


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उन्होंने वादा किया था कि अच्छे दिन वापस आएंगे. पर इसकी बजाय, मोदी ने बुरी स्थिति को बदतर बनाने का ही काम किया है.

आज हमारे सामने मौजूद आर्थिक संकट का एक ही कारण है: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कमज़ोर नेतृत्व. ये रहीं मोदी की कुछ भूलचूक जो भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट की स्थिति में लाने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं.

1. बैंकिंग संकट को बढ़ने देना

रिज़र्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन के दबाव के बाद 2015 के उत्तरार्द्ध में आ कर बैंकों ने एनपीए से बोझिल अपनी बैलेंस शीट को साफ करना शुरू किया था. मोदी सरकार को ये खतरा नज़र आना चाहिए था, और सबसे पहले उन्हें इसी से निपटना चाहिए था. इसी तरह आगे चल कर शुरू किया गया बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का काम भी बहुत पहले आरंभ हो जाना चाहिए था. राजन ने शीर्ष बकायेदारों या डिफॉल्टरों की एक सूची भी प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपी थी, पर उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. एनपीए के बोझ से त्रस्त बैंकों ने उद्योग जगत के लिए उपलब्ध ऋण की मात्रा कम कर दी, जिसने नकदी के संकट में योगदान दिया है.

2. ठप पड़ी परियोजनाएं

यूपीए-2 काल की ‘नीतिगत निष्क्रियता’ के कारण आधारभूत ढांचों और उद्योगों की अनेक परियोजनाएं रूकी पड़ी थीं. भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण संबंधी मंजूरी बड़े अवरोध साबित हो रहे थे. एक राजनेता की तरह मोदी को इन अवरोधों को दूर कर परियोजनाओं को चालू कराने का काम करना चाहिए था. पर, भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधनों से कदम पीछे खींच कर उन्होंने साफ कर दिया कि भारत की प्रगति के मुकाबले उनकी प्राथमिकता राजनीति है. शायद राहुल गांधी द्वारा उन्हें ‘सूट-बूट की सरकार’ कहे जाने के कारण. बुरे कर्ज का संकट पैदा करने में परियोजनाओं के स्थगन की बड़ी भूमिका रही है, खास कर बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं के लिए धन उपलब्ध कराने वाले आईएलएंडएफएस के मामले में.

3. नीति के नाम पर तमाशा

नरेंद्र मोदी ने एक के बाद एक बड़ी योजनाएं शुरू कीं और हरेक को इतने शोरशराबे के साथ आरंभ किया गया मानो कोई क्रांति होने वाली हो. लेकिन उनमें से अधिकतर अप्रभावी रहीं. मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, ये इंडिया, वो इंडिया… उनमें से कोई भी बदलाव के वादों पर खरा नहीं उतरा।

‘व्यवसाय करने की सहूलियत’ की रैंकिंग में हेरफेर की गई क्योंकि वास्तविकता से ज़्यादा महत्व रैंकिंग का हो गया है. अरुण शौरी की बातें हमेशा मोदीनॉमिक्स – आर्थिक प्रबंधन के बजाय सुर्खियों का प्रबंधन – पर भारी पड़ेंगी.

4. नोटबंदी

ज़रूरी पहलकदमियों की बजाय मोदी ने 1.3 अरब लोगों पर आर्थिक नीमहकीमी थोपने का काम किया. काले धन को रातोंरात खत्म करने के लिए की गई नोटबंदी से चार-पांच लाख करोड़ रुपये जुटाने की उम्मीद लगाई गई थी, पर नाममात्र की रकम ही हाथ आ सकी. नोटबंदी ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को ठप करने, अरसे से चली आ रही आर्थिक व्यवस्थाओं को बाधित करने और परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में रोजगार को खत्म करने का काम किया. हम अभी तक दुष्परिणाम झेल रहे हैं, पर इससे फायदा कुछ भी नहीं हुआ. सरकार ने वही किया जो वह अच्छे से कर सकती है: उस रिपोर्ट को दबाने का काम, जिसमें कि नोटबंदी के साल कॉर्पोरेट निवेश में 60 प्रतिशत की गिरावट को दिखाया गया था.

नोटबंदी ने निवेशकों में नीतिगत अनिश्चितता का भय भी पैदा किया: किसे पता मोदी कब टीवी पर अवतरित हो कर सब कुछ बदल डालें. बाज़ार में 2,000 के नोटों को बंद किए जाने की अफवाहें भी चलती रहती हैं.

5. बिज़नेस का तिरस्कार

नोटबंदी के साथ ही बिज़नेस के तिरस्कार की प्रवृति का भी उभार हुआ. व्यवसाय जगत के लोगों को भ्रष्ट और बेईमान करार देते हुए कहा जा रहा था कि मोदी ने ऐसे लोगों को लाईन में लगने पर मजबूर कर दिया. सच तो ये है कि नोटबंदी के बहाने सबने अपने काले धन को सफेद किया, पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए व्यवसायियों को बदनाम किए जाने से निवेशकों ने बाज़ार से और भी दूरी बना ली.

मोदी ने कहा था कि नोटबंदी भ्रष्टाचारियों पर नकेल डालने के विभिन्न उपायों के तहत पहला कदम है.

6. जीएसटी का घालमेल

आपको नोटबंदी की तरफदारी करने वाले सनकी अब भी मिल जाएंगे, पर ये बताने वाला शायद ढूंढने पर भी नहीं मिले कि आखिर वस्तु एवं सेवा कर से भारतीय अर्थव्यवस्था कैसे लाभांवित हुई.

नोटबंदी के विपरीत, जीएसटी का विचार सही था. पर यदि अच्छे प्रस्तावों को भयावह समस्या का रूप दिए जाने का उदाहरण देखना हो तो मोदी सरकार के जीएसटी लागू करने की प्रक्रिया पर गौर कर सकते हैं. मोदी ने इसे अच्छे और सरल कर के रूप में परिभाषित किया था, पर यह दोनों में से कुछ भी साबित नहीं हो सका. इसने छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों की मुश्किलों को बढ़ाने का ही काम किया. पांच अलग-अलग दरों और पहले ही दिन से नियमों के अनुपालन की अनिवार्यता वाले जीएसटी को इतनी जल्दबाज़ी में लागू किया गया कि इसके सॉफ्टवेयर का पूर्वपरीक्षण तक नहीं किया गया था. जिसके प्रावधानों में अनेकों बार बदलाव किए गए, मानो चार्टर्ड अकाउंटेंट कोई सुपरकंप्यूटर हों. जीएसटी में अब भी बहुत से सुधारों की ज़रूरत है.

7. एनबीएफसी संकट के लिए तैयार नहीं रहना

पहले ही बैंकों के एनपीए संकट से जूझ रही मोदी सरकार एक बार फिर आसन्न संकट को भांपने में नाकाम रही, जब गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान (एनबीएफसी) मुश्किलों में घिर गए. ये संकट अंशत: नोटबंदी के कारण आया है.

नोटबंदी के कारण मिली नकदी से भरे बैंक उद्योग जगत को कर्ज देने में हिचकिचा रहे थे, और उद्योग जगत भी नियामक अनिश्चितताओं के कारण कर्ज लेने में घबरा रहे थे. ऐसे में बैंकों ने गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों का रुख किया.

पर रियल एस्टेट सेक्टर में मंदी के कारण एनबीएफसी पर बुरे कर्ज का बोझ बढ़ने लगा. और, इसका खामियाजा ऑटो सेक्टर में भी नकदी की कमी के रूप में देखने को मिल रहा है. सरकार को एनबीएफसी सेक्टर के इस संकट का पहले से अंदेशा होना चाहिए था. रघुराम राजन ने मुद्रा योजना और एमएसएमई उद्योग सेक्टर में बुरे कर्ज के खतरों की आशंका को लेकर आगाह भी किया था.

8. मुद्रास्फीति को बहुत ही कम रखना

मोदी सरकार की नीति बुरे अर्थशास्त्र पर आधारित अच्छी राजनीति की है. सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्यों या नरेगा मेहनताने में वृद्धि कर ग्रामीण भारत में नकदी डालने की अनिच्छुक रही है. कम मुद्रास्फीति मोदी की चुनावी जीतों में मददगार होती है, पर इसका दुष्परिणाम घटी क्रयशक्ति और मांग में गिरावट के रूप में सामने आता है. लोग ना तो बचा पा रहे हैं और ना ही खर्च कर पा रहे हैं – क्योंकि उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही है.

9. विनिवेश को प्राथमिकता नहीं देना

भारत को सफेद हाथी साबित हो रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश का एक बड़ा आर्थिक सुधार कार्यक्रम चलाने की दरकार है. सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक इकाइयां इस श्रेणी में आती हैं. इनमें से कई अपने नुकसानों को कम दिखान के लिए सरकारी बैंकों से कर्ज लेती रहती हैं. इससे पूंजी का गैर-उत्पादक परिसंपत्तियों में संग्रहण होता है.

अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत, मोदी ने विनिवेश को अपनी प्राथमिकताओं में नहीं रखा है. बातें ज़रूर की जाती हैं और कुछ बाजीगरी भी, पर वास्तविक इरादा नहीं दिखा है. यदि मोदी का उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचने की बजाय उन्हें पुनर्जीवित करने का है, तो इसके संकेत भी नहीं दिखे हैं. वास्तव में, प्रमुख सरकारी उपक्रम घाटे में जा रहे हैं.

10. अर्थशास्त्रियों पर नौकरशाहों को वरीयता

भारतीय अर्थव्यवस्था को मोदी के कमज़ोर नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों से उनकी चिढ़ की एक बड़ी भूमिका है.

वह इस द्वंद्व को ‘हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क’ के रूप में परिभाषित कर चुके हैं. रघुराम राजन जैसे असुविधाजनक उदारवादी ही नहीं बल्कि अरविंद पनगढ़िया जैसे दक्षिणपंथी माने जाने वाले अर्थशास्त्री भी मोदी के साथ काम नहीं कर पाते हैं. उनको शायद ये मुगालता है कि उन्हें अर्थशास्त्र का ज्ञान बाकियों से बेहतर है.


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मोदी नौकरशाहों पर भरोसा करते हैं क्योंकि वे लगनशील होने के साथ-साथ हमेशा सहमत भी रहते हैं. उनमें से ही एक को मोदी ने रिज़र्व बैंक के गवर्नर के पद पर बिठा रखा है. जटिल जीएसटी, स्टार्टअप कंपनियों पर एंजल टैक्स और विदेशी मुद्रा बॉन्ड के ज़रिए पैसे जुटाने के मूर्खतापूर्ण कदम नौकरशाहों पर आश्रित रहने का ही नतीजा हैं.

11. प्रभावी नियंत्रण रखने की मानसिकता

नौकरशाहों पर मोदी की निर्भरता अर्थव्यवस्था को लेकर उनकी कमांड-एंड-कंट्रोल (शीर्ष स्तर पर सारे फैसले) की मानसिकता के अनुरूप ही है. इस तरह अर्थव्यवस्था के प्रति उनके नज़रिए की तुलना इंदिरा गांधी के ‘कमांडिंग हाइट्स’ (अर्थव्यवस्था पर प्रभावी नियंत्रण) वाली बकवास से की जा सकती है. सरकार की भूमिका आर्थिक गतिविधियों में मददगार और व्यवधानों को दूर करने वाले की होनी चाहिए. इसके विपरीत, मोदी खुद को सीईओ के रूप में देखते हैं, जो अर्थव्यवस्था के विभिन्न घटकों को बताएगा कि उन्हें क्या करना चाहिए.

उन्होंने ‘न्यूनतम सरकार’ का वायदा किया था पर परिणाम उसके विपरीत रहा है, जैसा कि उनके वायदों के संबंध अक्सर देखा गया है,

12. टैक्स आतंकवाद

कर दरों को उदार बनाने या कर नियमों को सरल करने की बजाय मोदी सरकार ‘टैक्स आतंकवाद’ के लिए मशहूर हो रही है. इस मामले में भी, इंदिरा गांधी को गर्व हुआ होता. घटते राजस्व और राजकोषीय घाटे की विवशताओं के कारण सरकार सुस्त पड़ी अर्थव्वयवस्था से कर जुटाना चाहती है. कर आतंकवाद इसी का परिणाम है.

13. आंकड़ों में हेराफेरी

चूंकि मोदी ने अपने राजनीतिक हितों को राष्ट्रीय हित के ऊपर रखने का फैसला किया है, उनकी सरकार आंकड़ों में हेराफेरी पर उतर आई है. सरकार के जीडीपी विकास दर के आंकड़ों में आज किसी को यकीन नहीं है. यह दावा करना हास्यास्पद है कि नोटबंदी के साल में भारतीय अर्थव्यवस्था 7.1 प्रतिशत के दर से बढ़ी थी. मोदी सरकार के खुद के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने जीडीपी के आंकड़े के वास्तविक से करीब 2.5 फीसद अंक ऊपर होने की बात की है.

14. सच से इनकार करना

आंकडों में हेराफेरी करना और सच को मानने से इनकार करना परस्पर संबद्ध हैं. अर्थव्यवस्था में ढांचागत मंदी की बात करने वालों को ‘पेशेवर निराशावादी’ करार दिया जाता है. उस रिपोर्ट को दबा दिया जाता है, जिसमें बेरोज़गारी दर के 45 वर्षों में सर्वाधिक होने की बात कही गई हो.


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किसी समस्या के समाधान की दिशा में पहला कदम होता है समस्या को स्वीकार करना. सरकार अब आकर समस्या होने की बात को मानने लगी है.

15. बेजान बजट

एनडीए-4 के जुलाई में आए नवीनतम बजट ने आत्मविश्वास बढ़ाने या अर्थव्यवस्था में फिर से आशावादी उत्साह भरने का काम नहीं किया. करों में रियायत की बजाय नए कर थोपे गए. मोदी सरकार भारत के समक्ष मौजूद भारी आर्थिक संकट को लेकर भ्रमित दिखती है. सरकार के पास विचारों और महत्वाकांक्षाओं दोनों का अभाव नज़र आता है, क्योंकि वैसे भी वे प्रोपेगेंडा के बल पर चुनाव जीतते रह सकते हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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