कश्मीर मसले का हल ढूंढने से पहले बेहतर होगा कि इसे अच्छी तरह समझ लिया जाए. इससे जुड़े तथ्यों और हकीकतों को समझे बिना इसका समाधान सुझाना खतरों से भरा होगा. पुराने रोग का सही-सही पता लगाए बिना इलाज तो नीम-हकीम या ओझा-गुनी ही सुझा सकते हैं.
आज तीन तरह के ‘ओझा-गुनी’ इस मसले के तीन तरह के उपचार सुझा रहे हैं. इनमें पहली तरह के ओझा-गुनी भारत में हैं, जो सत्तातंत्र के नज़रिये को प्रतिध्वनित करते हैं और इसे व्यापक समर्थन भी मिलता है. यह नज़रिया कहता है कि कश्मीर मसले की जड़ में सिर्फ पाकिस्तान ही है, जो बंदूकों, रॉकेट-लांचरों और आरडीएक्स से लैस कट्टरपंथी इस्लाम का निर्यात करता है. पाकिस्तानियों का इलाज करो और फिर ‘कश्मीर की कली’ की अगली कहानी पर फिल्म डल झील में शूट करो.
इसके ठीक उलट, पाकिस्तानी सत्तातंत्र भी अपने अवाम के भारी समर्थन से इस मुगालते में डूबा हुआ है कि भारतीयों को धकिया कर, चिकोटी काट के, उनका खूनखराबा करके कश्मीर से भगा देंगे. आखिर हमने अफगानिस्तान में रूसियों, अमेरिकियों को हरा ही दिया है. तो भारत किस खेत की मूली है? तब हम पूरे कश्मीर को पाकिस्तान का छठा सूबा बना लेंगे.
तीसरे वे हैं जो, हमारे विश्लेषण के मुताबिक भारतीय उददारवादियों का छोटा मगर मुखर और हिम्मती समूह है. इनका मानना है कि कश्मीर में भारत का विलय अभी अंतिम रूप से नहीं हुआ है, इसके लिए कश्मीरियों की राय सर्वोपरि है और यह अभी तक ली नहीं गई है. ये इस हद तक जाते हैं कि जनमत-संग्रह, स्वायत्तता और आज़ादी तक की कश्मीरियों की मांग जायज है. आप उन्हें राज्यतंत्र और फौजी ताकत के बूते भारत में नहीं बनाए रख सकते.
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दार्शनिक दृष्टि से इस नज़रिये से तर्क करना मुश्किल है कि भारत राज्यों का एक स्वैच्छिक संघ है. इसलिए लोग अगर नहीं चाहते तो आप उन्हें ज़ोर-जबरदस्ती से कैसे अपने साथ रहने को मजबूर कर सकते हैं. आश्चर्य नहीं कि इस नजरिए को बुनियादी तौर पर उदारवादी और युवा ‘लीटों’ का भी समर्थन मिलता है. इन लोगों से बहस में उलझने के खतरों से मैं अवगत हूं, क्योंकि यह नज़रिया उन्हें ऊंचे नैतिक मंच पर बैठा देता है. लेकिन हम तो खतरों में ही जीते हैं.
इस उदारवादी नज़रिये को हम निम्नलिखित पांच बुनियादी आधारों पर टिका हुआ मान सकते हैं-:
1. भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 1947-48 के प्रस्ताव के तहत कश्मीर में रायशुमारी कराने का वादा किया था, तो उसने इस वादे को तोड़ा क्यों?
तथ्य यह है कि भारत ने ही नहीं, पाकिस्तान ने भी यह वादा किया था. दोनों ने इसे तोड़ा. अगर आप इस प्रस्ताव (47) को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि इसके लिए तीन कदम जरूरी बताए गए हैं. पहला यह कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी पूरी फौज हटाए और इस बात की भी ‘पूरी कोशिश’ करे कि तमाम दूसरे तत्व (आज हम इन्हें जिहादी कहते हैं) भी वहां से हट जाएं. यह कभी नहीं हुआ.
अगले दो कदम यह थे कि भारत वहां अपनी फौज घटाकर उतनी ही रखे जितनी बेहद जरूरी हो, वहां एक सर्वदलीय सरकार का गठन करे और संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त गवर्नर की निगरानी में जनमत-संग्रह करवाए. पाकिस्तान ने पहला कदम नहीं उठाया, भारत आगे बढ़कर अगले दो कदम उठाने को तैयार नहीं हुआ.
2. ज़्यादातर कश्मीरी न तो भारत को चाहते हैं, न पाकिस्तान को. वे आज़ादी चाहते हैं. आप इससे उन्हें मना कैसे कर सकते हैं? जनमत-संग्रह के बारे में सोचिए- क्यूबेक को देखिए, स्कॉटलैंड या ब्रेक्सिट को देखिए.
एक बार फिर, प्रस्तावों को पढ़िए. बस तीन मिनट लगेंगे. उनमें कहीं भी आज़ादी को एक विकल्प नहीं बताया गया है. विकल्प दो ही हैं- भारत या पाकिस्तान!
पाकिस्तान कश्मीर की ‘आज़ादी’ को जो कथित समर्थन दे रहा है वह एक फरेब है, लेकिन इसे थोड़ी गोएबल्सवादी कामयाबी इस धोखे के रूप में मिली है कि पाकिस्तानी लोग कश्मीरियों की आज़ादी का समर्थन करते हैं. पाकिस्तान ने 70 वर्षों से यह फरेब अपने कब्जे वाले कश्मीर को ‘आज़ाद कश्मीर’ बताकर बनाए रखा है. चूंकि वह पूरे कश्मीर पर दावा करता है, तो क्या उसे इसे अपना जम्मू-कश्मीर सूबा नहीं कहना चाहिए? नहीं. क्योंकि तब ‘आज़ादी’ के नाम पर इलाके पर कब्जा बनाए रखने के उसके ढोंग का पर्दाफाश हो जाएगा. जरा गूगल करके पता लगा लीजिए कि नाम के किसी पाकिस्तानी नेता ने ऐसा कोई बयान दिया है क्या, जिसमें आज़ादी को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया हो. मुझे तो ऐसा कोई बयान नहीं मिला. अगर आप आज़ादी वाली कपोल-कल्पना को ही पालना चाहते हैं तो पाले रखिए, इसे शेष भारत के गले के नीचे नहीं उतार पाएंगे.
3. क्या आप किसी क्षेत्र या वहां के लोगों को फौजी ताकत के बल पर अपने हिस्से में बनाए रख सकते हैं?
इसका जवाब एक सवाल में ही दिया जा सकता है. क्या आप किसी क्षेत्र और उसके लोगों को किसी देश से फौजी ताकत के बल पर अलग करके अपने कब्जे में ले सकते हैं? पाकिस्तान ने इसी की कोशिश की. दो बार-एक बार 1947-48 में और फिर 1965 में सीधी फौजी आक्रमण करके और 1989 के बाद से तो वह परोक्ष युद्ध चलाता रहा है. 1999 में भी उसने थोड़ा पागलपन किया था. ये सारे तथ्य हैं. 1953 के बाद नेहरू भी संयुक्त राष्ट्र वाले प्रस्ताव से अलग क्यों हो गए, इसे भी समझना होगा. शीतयुद्ध उस समय परवान चढ़ रहा था और कश्मीर के भूगोल ने एक अनोखी चिमटी की तरह इसे पकड़ लिया, जहां यह बड़ा खेल खत्म नहीं हुआ और शीतयुद्ध जारी रहा. संकट को भांप कर नेहरू ने 1953 में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके कश्मीर को भारत में समाहित कर लेने का कदम उठाया.
इसके बाद अगले दो साल में पाकिस्तान अमेरिकी नेतृत्व वाली बग़दाद संधि ‘सीटो’ आदि में शामिल हो गया. इसने अगले दशक में सैन्य संतुलन पाकिस्तान के पक्ष में कर दिया. अंततः नेहरू की फौरी कार्रवाई ने कश्मीर को फौजी कब्जे (जनमत-संग्रह के जरिए नहीं) से बचा लिया. पाकिस्तान ने तब तक इंतज़ार किया जब तक कि उसे भरोसा नहीं हो गया कि वह काफी फौजी बढ़त ले चुका है, उसने भारत को तब दबोचा जब वह 1962 के चीनी हमले के बाद कमजोर हो गया था और अपनी फौजी ताकत जुटाने में लगा था, नेहरू के निधन से एक रिक्तता बन गई थी, देश में खाद्य संकट था. यानी भारत को कमजोर समझकर पाकिस्तान ने अमेरिका से हासिल सारे हथियारों और उसके द्वारा प्रशिक्षित फौज का इस्तेमाल करते हुए कश्मीर को जीतने की कोशिश की मगर नाकाम रहा. यह आखिरी मौका था जब वह सीधी फौजी कार्रवाई के बूते कश्मीर को कब्जे में कर सकता था और उसने अपने टैंक और अपनी फौज इसलिए नहीं भेजी थी कि कश्मीरी लोग आज़ादी हासिल कर सकें.
ये तीन बातें कश्मीर की कहानी के शिमला समझौते तक के पहले दौर (1947-72) में आए तमाम मोड़ों और पेंचों का बहुत हद तक खुलासा करती हैं, बेशक डिजिटल गति के फास्ट फॉरवर्ड वाले तरीके से. ये हमें चौथी बात तक पहुंचाती हैं-:
4. मोदी सरकार कश्मीर का समाधान शिमला समझौते के तहत क्यों नहीं करती, जबकि आज इमरान खान भी इसकी बात कर रहे हैं?
इसका भी जवाब वही है- शिमला समझौते को पढिए. इसका शाब्दिक अर्थ तो यह है कि भारत-पाकिस्तान के सारे मसले अब द्विपक्षीय हो गए हैं. इसका अर्थ है- अब संयुक्त राष्ट्र का कोई प्रस्ताव नहीं लागू होगा. इस समझौते की भावना यह थी कि दोनों देश यह मानते हैं कि कोई भी देश किसी क्षेत्र पर जबरन कब्जा नहीं कर सकता. इसलिए, युद्धविराम रेखा (सीएफएल) को नियंत्रण रेखा (एलओसी) नाम दीजिए और अपने-अपने लोगों को यह समझा दीजिए कि अब वे इसे ही सीमा रेखा मान लें. इस बात को साफ-साफ क्यों नहीं कहा गया, यह पहेली किसी गंभीर विद्वान के लिए ‘शिमला के लिए दोषी भारतीय (केवल मर्द नहीं)’ शीर्षक से किताब लिख डालने का शानदार विषय हो सकती है.
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लेकिन, शिमला वाली भावना युद्धबंदियों की वापसी के साथ ही हवा हो गई. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो अपने मुल्क का इस्लामिकरण करने में जुट गए (हां, वे ही, ज़िया नहीं) और लाहौर में इस्लामी मुल्कों के संगठन (ओआइसी) की शिखर बैठक बुलाई ‘इस्लामी बम’ की खातिर पैसे जुटाने के लिए अपने क्रिकेट स्टेडियम का नाम मुअम्मर कज्जाफ़ी के नाम पर रख दिया और शिमला की ठंडी हवा तभी तक बही जब तक यह बम तैयार नहीं हो गया. 1989 तक पाकिस्तान फिर ‘ऐक्शन’ में आ गया और कश्मीर पर फिर जबरन कब्जा करने की मुहिम में जुट गया. बेशक उसने सीधी टक्कर लेने से परहेज किया क्योंकि उसे मालूम था कि इसमें वह मुंह की खा जाएगा. शिमला समझौते को तोड़ा गया, केवल पाकिस्तान के द्वारा.
5. जो भी हो, कश्मीरी लोग आपके साथ नहीं रहना चाहते. तो आप क्या करेंगे?
इस सवाल का जवाब भी एक सवाल ही है- पहले यह बताइए कि कश्मीरी कौन हैं? दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी जब यह कहते हैं कि घाटी के मात्र 10 ज़िले पूरे सूबे की आवाज़ नहीं हो सकते, तो वे असली पेंच को पकड़ नहीं पाते. क्योंकि वे 10 ज़िले ही सूबे के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते हैं. उदारवादियों का तर्क ज्यादा कमजोर लगता है. अगर घाटी के मुसलमानों का बहुमत सूबे के अच्छे-खासे आकार के अल्पसंख्यकों पर हावी हो सकता है, तो बाकी 99.5 प्रतिशत भारत की आवाज़ का क्या करेंगे? बहुमत की आवाज़ मान्य करने का लोकतांत्रिक तर्क एक जगह के लिए चलेगा और दूसरी जगह के लिए नहीं चलेगा, यह कैसे हो सकता है?
आप नरेंद्र मोदी को पसंद करें या न करें, उन्होंने शिमला समझौते के बाद से जारी यथास्थिति को तोड़ दिया है. अर्ध-सैनिक कारवाई करने का रास्ता पाकिस्तान के लिए बंद हो गया है. कोई भी राजनीतिक दल अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने पर नहीं, सिर्फ उसके लिए अपनाए गए तरीके पर सवाल उठा रहा है.
अब नई यथास्थिति है. पाकिस्तान इसे तोड़ने का खतरा उठाने की कोशिश कर सकता है. कश्मीर में समस्या है, आक्रोश है, अलगाव है, हिंसा है, मानवाधिकारों का उल्लंघन है और इन सबसे निबटने की जरूरत है. इसकी शुरुआत इस स्वीकृति से हो सकती है कि आज जो सीमा रेखा है, वही भारत-पाकिस्तान की स्थायी सीमारेखा है. हमें इसकी जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि बिल क्लिंटन यहां आएं और हमें यह बताएं कि इस क्षेत्र के नक्शे अब खून से नहीं बदले जा सकते. इस हकीकत को अगर आप मान लेते हैं, तभी आप भविष्य के बारे में बात कर सकते हैं.
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