हामिद उल हक की हत्या तक पहुंचने वाली लंबी कहानी लगभग दो शताब्दी पहले हुई एक लड़ाई से शुरू होती है.
नदी पर स्थित मदरसा
एक रात, दिसंबर 1826 में, 900 लोग लोंडे (स्थानीय रूप से काबुल नदी के नाम से जानी जाती है) के किनारे बढ़े और सिख कमांडर बुध सिंह के कैंप पर हमला कर दिया. हमलावरों में अकौरा खट्टक जनजाति के सरदार अमीर खान खट्टक के करीब 700 अनुयायी, कंधार से आए 100 स्वयंसेवक और बिहार व बंगाल के मैदानों से आए कुछ अन्य लोग शामिल थे. उन्होंने छापामार युद्धनीति अपनाई, जिससे बुध सिंह को अटॉक के पास शैदू की ओर पीछे हटना पड़ा. सैयद अहमद के ज्यादातर अनगढ़ जिहादियों के लिए यह जीत ईश्वर का संकेत लगी होगी.
इतिहासकार मुईन-उद-दीन खान ने इस जीत के तुरंत बाद लिखे एक पत्र में जिक्र किया कि इसने लोंडे नदी के किनारे बसे पश्तून समुदायों के नए स्वयंसेवकों के लिए रास्ते खोल दिए.
भारत छोड़कर विभाजन के समय एक शरणार्थी के रूप में गए मौलवी अब्दुल हक अकोरवी ने 1947 में दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना की. उनका उद्देश्य अफगान-पाकिस्तान सीमा पर देवबंद की महान धार्मिक परंपराओं को जीवित रखना था, जहां उन्होंने अध्ययन किया था. अब्दुल हक के नेतृत्व में दारुल उलूम हक्कानिया इस क्षेत्र का प्रमुख धार्मिक संस्थान बन गया. विद्वान डॉन रासलर और वाहिद ब्राउन लिखते हैं कि 1966 से 1988 के बीच, देवबंदी विचारधारा के एक तिहाई पाकिस्तानी मौलवी इसी मदरसे से पढ़कर निकले.
यह मदरसा जल्द ही उन जिहादियों का केंद्र बन गया, जो पेशावर आकर वामपंथी झुकाव वाली दाऊद खान की सरकार के खिलाफ लड़ाई के लिए यहां से संचालित होते थे. 1973 से, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने अफगान इस्लामवादियों को हथियार और प्रशिक्षण देना शुरू किया, जिसकी देखरेख फ्रंटियर कोर के इंस्पेक्टर जनरल ब्रिगेडियर नसीरुल्लाह बाबर कर रहे थे. यह युद्ध पहली लड़ाई की ही तरह एक अजीब रास्ते पर चला—धार्मिक जुनून से लेकर निराशा और मौत तक.
जिहाद का फलना-फूलना
चार प्रमुख सूफी सिलसिलों की रहस्यमयी दुनिया में लंबे समय तक डूबे रहने और रहस्यात्मक अनुभवों में लीन रहने वाले सैयद अहमद—जिसे उनके औपनिवेशिक आलोचकों ने मिर्गी का परिणाम बताया—ने धीरे-धीरे यह निष्कर्ष निकाला कि इस्लाम की रक्षा के लिए केवल भक्ति पर्याप्त नहीं है. 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, दो बड़ी शक्तियों, ब्रिटिश साम्राज्य और सिखों ने उन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था, जिन्हें वह इस्लामिक जमीन मानते थे. कुछ समय तक, सैयद अहमद ने अपने सिलसिले तरीक़ा-ए-मुहम्मदिया (मुहम्मद का मार्ग) के प्रचार-प्रसार में ही संतोष किया, इस उम्मीद में कि इससे इस्लामी परंपराओं में सुधार होगा.
हालांकि, 1823 में हज यात्रा के लिए मक्का जाने के बाद, सैयद अहमद ने तलवार के रास्ते पर चलने का फैसला किया. अपने अनुयायियों के साथ, उन्होंने हिजरत (धार्मिक प्रवास) करने का निर्णय लिया और अफगान-पाकिस्तान सीमा पर चले गए. वहां से उन्होंने उन जनजातियों पर इस्लामी शासन स्थापित करने के लिए संघर्ष शुरू किया, जो महाराजा रणजीत सिंह के अधीन थीं.
उनका कारवां रायबरेली से ग्वालियर, फिर टोंक, सिंध और बलूचिस्तान होते हुए कंधार पहुंचा—हजारों किलोमीटर की यह असाधारण यात्रा उन्होंने सिखों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों से बचने के लिए की. सैयद अहमद को युद्ध की कोई जानकारी नहीं थी. हालांकि, इतिहासकार मुईन-उद-दीन खान लिखते हैं कि उन्होंने मुगल सेनानायक अमीर खान की सेना में सेवा की थी, लेकिन वहां भी उन्होंने अधिकतर समय प्रार्थना और ध्यान में ही बिताया.
विश्वास और विश्वासघात अकौरा खट्टक में टकराने वाले थे, और इससे आने वाले युद्ध की दिशा तय होनी थी. कंधार की कई जनजातियों के नेता सैयद अहमद के साथ जुड़ने को तैयार थे—कुछ सिखों के खिलाफ जिहाद के विचार से प्रेरित थे, तो कुछ लूटपाट की संभावनाओं को देखकर शामिल हुए. अमीर खान खट्टक को उम्मीद थी कि जनजातीय लड़ाके और सैयद अहमद के बिहार और बंगाल से आए अनुयायी, उसके विद्रोही भतीजे ख्वास खान को हराने में उसकी मदद करेंगे.
दूसरी ओर, जनरल बुध सिंह के पास करीब 5,000 प्रशिक्षित सैनिक थे, और उसे खैराबाद के पुलिस प्रमुख ख्वास खान और पेशावर के पश्तून शासक यार मुहम्मद खान का समर्थन था. अकौरा खट्टक में पहला संघर्ष कोई बड़ी लड़ाई नहीं थी.
इस शक्तिशाली साम्राज्यवादी सेना का पीछे हटना यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त था कि रहस्यवादी संत के पक्ष में ईश्वर खड़ा था. बंगाल और बिहार से नए अनुयायी आने लगे, ताकि युद्ध में मारे गए लड़ाकों की जगह ली जा सके. बाद में, सैयद अहमद ने बुखारा के अमीर को पत्र लिखकर लिखा:
“मुझे ईश्वर के वचन को ऊंचा उठाने, सुन्नत (पैगंबर मुहम्मद की परंपराओं) को पुनर्जीवित करने और विद्रोही काफिरों को समाप्त करने का आदेश दिया गया है.”
एक सदी से अधिक समय बाद, जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में दखल किया, तब दारुल उलूम हक्कानिया में तैयार हुए जिहादी भी खुदा की मदद से जीतते हुए लग रहे थे. इस्लामी दुनिया से भारी संख्या में स्वयंसेवक आने लगे, और अमेरिका की ओर से मिले बड़े पैमाने पर सैन्य समर्थन के कारण, सोवियत सेना लड़खड़ा गई और अंततः पीछे हट गई. 1979 में शुरू हुए इस युद्ध के दस साल के भीतर, दारुल उलूम हक्कानिया के पूर्व छात्रों ने काबुल पर शासन स्थापित कर लिया.
1980 के दशक में अब्दुल हक के बेटे, समीउल हक ने इस मदरसे की बागडोर संभाली और अपने पिता द्वारा पाकिस्तानी राज्य को दी गई सेवाओं का लाभ उठाया. वह मौलवियों की सबसे बड़ी पार्टी जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम का नेतृत्व करते हुए पाकिस्तान की सीनेट तक पहुंचे. 9/11 के बाद जब तालिबान ने फिर से सत्ता में वापसी की, तो दुनिया भर के राजदूत और उच्च अधिकारी अकौरा खट्टक पहुंचने लगे, इस उम्मीद में कि समीउल हक अपने तालिबानी शिष्यों—जो अब अफगानिस्तान के शासक बन चुके थे—को राजी कर सकेंगे.
एक सपने का अंत
1996 में उभरे तालिबान अमीरात की तरह, सैय्यद अहमद द्वारा पंजतर से अंब तक बनाया गया इस्लामी राज्य भी कोई वादा किया हुआ स्वर्ग नहीं था. इतिहासकार आयशा जलाल लिखती हैं कि इस सूफी संत की धार्मिक मान्यताएं स्थानीय पश्तून परंपराओं से टकरा गईं. नदी में नग्न स्नान करने की प्रथा पर सख्त प्रतिबंध लगा दिया गया था, और नियम तोड़ने वालों को कोड़े मारने के साथ-साथ जुर्माना भी भरना पड़ता था. जो लोग अंब छोड़कर चले गए, उनकी ज़मीनें जिहादियों को दे दी गईं. एक बार तो सैय्यद अहमद ने एक ज़नाना (महिलाओं के लिए सुरक्षित क्षेत्र) में जाकर एक महिला को कोड़े लगवाए, क्योंकि वह अपने पति को छोड़ना चाहती थी.
स्थानीय पश्तून कबीलों में असंतोष बढ़ता गया, जब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने एक साम्राज्यवादी शासक से छुटकारा पाकर एक ऐसे शासक को स्वीकार कर लिया था, जो उनके स्वतंत्र रीति-रिवाजों पर अपने धार्मिक नियम थोपने को उतारू था.
चित्राल और कवाई के शासकों के प्रोत्साहन पर, सैय्यद अहमद ने कश्मीर पर कब्जा करने की योजना बनाई. लेकिन इस बार सब कुछ योजना के मुताबिक नहीं हुआ. अंब के शासक पैंदा खान ने जिहादियों को अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति देने से इनकार कर दिया. युद्ध में जिहादियों ने जीत हासिल की, लेकिन पैंदा खान ने सिखों से गठबंधन कर उन्हें चारों ओर से घेर लिया. सैय्यद अहमद की सेना बिखर गई और आगे बढ़ने में असमर्थ हो गई.
आखिरकार 1831 में, सैय्यद अहमद ने बलाकोट में सिखों के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ी—यही वह स्थान है जहां 2019 में भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के एक मदरसे पर बमबारी की थी. अपने सबसे करीबी अनुयायी शाह इस्माइल के साथ, सय्यद अहमद ने तकबीर (ईश्वर की महिमा की घोषणा) पढ़ी और युद्ध में कूद पड़े। अंततः उनका सिर काट दिया गया और उनकी सेना पूरी तरह बिखर गई.
दारुल उलूम हक्कानिया भी लंबे समय तक पतन के दौर में चला गया। यहां तक कि जब तालिबान को फिर से काबुल में सत्ता दिलाने की वार्ता चल रही थी, तब संस्थान के प्रमुख समीउल हक की हत्या कर दी गई—एक रहस्यमयी हत्या, जिसका आज तक कोई समाधान नहीं हुआ. अटकलें लगाई गईं कि यह हत्या व्यक्तिगत प्रतिशोध का नतीजा हो सकती है, जिसमें उनके कुछ विवादास्पद यौन व्यवहार की भी चर्चा हुई, जिसके कारण आलोचक उन्हें “मौलाना सैंडविच” कहने लगे थे.
हालांकि 2021 में तालिबान की जीत से हमीद उल हक को जबरदस्त प्रभावशाली बनना चाहिए था, लेकिन उनकी स्थिति जल्द ही भीषण हिंसा और आंतरिक गुटबाजी से कमजोर हो गई—चाहे वह तालिबान के भीतर हो या फिर तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच.
शायद सितारों ने मोमिन के लिए सही भविष्यवाणी की थी: उनकी शायरी आज भी याद की जाती है, लेकिन अगर उन्होंने शहादत की अपनी इच्छा पूरी करने का रास्ता अपनाया होता, तो यह केवल एक निरर्थक मौत होती.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. वे एक्स पर @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं.
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