नई दिल्ली: दिल्ली की एक अदालत ने मंगलवार को कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को 1984 सिख विरोधी दंगों के दौरान सरस्वती विहार इलाके में पिता-पुत्र की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई. पूर्व कांग्रेस सांसद सज्जन कुमार को 12 फरवरी को इस हत्याकांड में दोषी ठहराया गया था.
विशेष न्यायाधीश कावेरी बवेजा ने सज्जन कुमार को हत्या (धारा 302) और गैरकानूनी भीड़ (धारा 149) के तहत दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई. इसके अलावा, उन्हें संपत्ति को आग से नष्ट करने (धारा 436) और गैरकानूनी भीड़ (धारा 149) के तहत भी उम्रकैद की सजा दी गई. उन्हें अन्य आरोपों में भी सजा सुनाई गई है, जिनमें वे दोषी पाए गए थे.
राउज एवेन्यू कोर्ट ने 21 फरवरी को सज्जन कुमार की सजा पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था. दंगा पीड़ितों ने उनके लिए फांसी की सजा की मांग की थी. सज्जन कुमार पहले से ही 2018 में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा एक अन्य सिख विरोधी दंगा मामले में सुनाई गई उम्रकैद की सजा काट रहे हैं.
वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फूलका, जो 1984 दंगा पीड़ितों की ओर से ऑनलाइन पेश हुए, ने अदालत में अपनी लिखित दलीलें देते हुए सज्जन कुमार के लिए फांसी की सजा की मांग की.
17 फरवरी को अभियोजन पक्ष ने भी सज्जन कुमार के लिए मौत की सजा की मांग की थी. अतिरिक्त लोक अभियोजक (एपीपी) मनीष रावत ने इस संबंध में लिखित दलीलें दाखिल की थीं. उन्होंने कहा कि निर्भया मामले और अन्य मामलों की गाइडलाइंस के अनुसार, इस केस को “सबसे दुर्लभ से दुर्लभ” मामलों में गिना जाना चाहिए.
अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि इस मामले में एक समुदाय विशेष को बिना किसी उकसावे के निशाना बनाया गया था, जिससे सामाजिक ताना-बाना और आपसी विश्वास को गहरा आघात पहुंचा.
यह मामला 1 नवंबर 1984 को सरस्वती विहार इलाके में जसवंत सिंह और उनके बेटे तरूणदीप सिंह की हत्या से जुड़ा है.
सज्जन कुमार के वकील अनिल शर्मा ने दलील दी कि उनके मुवक्किल का नाम शुरू में कहीं नहीं था और गवाह ने 16 साल बाद उनका नाम लिया. उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सज्जन कुमार को दोषी ठहराए जाने वाला मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में अपील में लंबित है.
वहीं, अभियोजन पक्ष ने दलील दी कि गवाह को पहले सज्जन कुमार की पहचान की जानकारी नहीं थी, लेकिन बाद में जब उन्हें पता चला, तो उन्होंने बयान में उनका नाम लिया.
वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फूलका ने दलील दी कि पुलिस जांच में हेरफेर किया गया था ताकि आरोपियों को बचाया जा सके. उन्होंने यह भी कहा कि यह केवल एक हत्या का मामला नहीं है, बल्कि बड़े पैमाने पर हुए नरसंहार का हिस्सा है. दिल्ली हाई कोर्ट ने 1984 के कैंट मामले में इन दंगों को “मानवता के खिलाफ अपराध” करार दिया था.
उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानून और जेनेवा कन्वेंशन का भी हवाला दिया और बताया कि सज्जन कुमार के खिलाफ 1992 में चार्जशीट तैयार की गई थी, लेकिन इसे अदालत में दाखिल नहीं किया गया, जिससे यह साफ होता है कि पुलिस उन्हें बचाने की कोशिश कर रही थी.
क्या है मामला
31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या के बाद, दिल्ली समेत पूरे देश में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे, जिनमें सिर्फ राष्ट्रीय राजधानी में ही कम से कम 2,800 लोग मारे गए थे.
इस मामले में शुरुआत में पंजाबी बाग पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज की गई थी. बाद में, न्यायमूर्ति जीपी माथुर समिति की सिफारिश पर गठित विशेष जांच दल (SIT) ने इसकी दोबारा जांच की और चार्जशीट दायर की. समिति ने 114 मामलों को फिर से खोलने की सिफारिश की थी, जिनमें से यह मामला भी एक था.
SIT का आरोप है कि सज्जन कुमार इस हिंसक भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे और उनकी उकसावे वाली भाषणबाजी के कारण भीड़ ने दो लोगों को जिंदा जला दिया, उनके घर को आग के हवाले कर दिया और लूटपाट की.
अदालत के दस्तावेजों के अनुसार, जांच के दौरान अहम गवाहों के बयान दर्ज किए गए, जिनमें एक महिला गवाह ने 23 नवंबर 2016 को पुलिस को बताया कि उनके पति और बेटे को भीड़ ने बेरहमी से मार डाला था. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने पहली बार सज्जन कुमार की तस्वीर एक मैगजीन में देखी थी, जिसके करीब डेढ़ महीने बाद उन्होंने उन्हें पहचाना.
इस ऐतिहासिक फैसले के साथ, 1984 सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों को दशकों बाद न्याय की एक और उम्मीद मिली है.
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