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Friday, 22 November, 2024
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पहले नतीजों के बाद छोड़ा साथ, अब मायावती ने की सपा का कोर वोटबैंक तोड़ने की तैयारी

मायावती ने लोकसभा दल नेता व संगठन में अहम बदलाव करते हुए सपा के जातिगत समीकरणों को तोड़ने की तैयारी शुरू कर दी है.

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लखनऊ : लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती ने अचानक सपा से नाता तोड़ लिया और अब निगाहें सपा के वोटबैंक को तोड़ने पर भी है. बीते बुधवार मायावती ने संगठन में अहम बदलाव किए. उन्होंने मुस्लिम कार्ड चलते हुए मुनकाद अली को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया. वहीं यादव वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए नौकरशाह से सांसद बने श्याम सिंह यादव को लोकसभा में दल नेता नियुक्त किया है. बसपा में ये नए बदलाव साफ इशारा कर रहे हैं कि बसपा की नजर सपा का कोर वोटबैंक माने जाने वाले मुस्लिम+यादव वोटर्स पर है.

बड़ा संदेश देने की कोशिश

जेडीएस से बसपा में आए दानिश अली की जगह जिस तरह से मायावती ने जौनपुर के श्याम सिंह यादव को नेता बनाया है, उससे उन्होंने यादव वोटरों में यह संदेश देने की कोशिश की है बीएसपी का जुड़ाव यादव वोटरों के प्रति भी है. यही नहीं मायावती ने लोकसभा चुनाव के बाद जब सपा से नाता तोड़ा तो ये भी कि यादव वोटरों पर अब सपा का होल्ड नहीं रह गया है. अब वह इन वोटरों को साधने की कोशिश कर रही हैं.

एक दौर था जब यूपी में सपा मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी हुआ करती थी. धीरे-धीरे ये वोट बैंक उससे छिटकने लगा. अब बसपा मुसलमानों को अपना कोर वोटर बनाने के प्रयास में है. यही कारण है आरएस कुशवाहा की जगह मुनकाद अली को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. वहीं मुनकाद वेस्ट यूपी में ज्यादा प्रभावी नाम हैं. माना यह भी जा रहा है कि मायावती अपना दखल वेस्ट यूपी के मुसलमानों में ज्यादा मजबूत करना चाहती हैं. यूपी में लगभग 19 प्रतिशत मुस्लिम हैं और कई विधानसभा सीटें मुस्लिम बाहुल्य भी मानी जाती हैं.


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ओबीसी वोटर्स पर भी नजर

केवल यादव ही नहीं बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग को साधने के लिए प्रदेश अध्यक्ष आरएस कुशवाहा को प्रमोट कर राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. यूपी में 40 प्रतिशत से अधिक ओबीसी वोटर हैं. एक दौर में यूपी में मुलायम सिंह यादव को पिछड़े वर्गा का सबसे बड़ा नेता कहा जाता था लेकिन सपा की कमजोर होती पकड़ को ध्यान में रखते हुए बसपा भी इस वर्ग को लुभाने में जुट गई है.

लोकसभा में भी ब्राह्मण चेहरे को तरजीह

सोशल इंजीनियरिंग की मजबूती के लिए रितेश पांडेय को लोकसभा में उपनेता बनाया. वह अंबेडकरनगर से सांसद हैं. मायावती यूपी की राजनीति में ब्राह्मणों को लुभाने में भी कसर नहीं रखना चाहती. 2007 विधानसभा चुनाव में दलित+मुस्लिम+ब्राह्मण फैक्टर ने ही उन्हें सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी. राज्यसभा में जहां ब्राह्मण चेहरे के तौर पर सतीश चंद्र मिश्र हैं, वहीं लोकसभा में रितेश पांडेय को डिप्टी लीडर बनाकर मायावती ने साफ कर दिया है कि उनके एजेंडे से ब्राह्मण बाहर नहीं हैं.

बदलाव के कारण

बसपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो अनुच्छेद 370 पर मायावती ने जिस तरह से भाजपा का साथ दिया, उससे कहीं न कहीं मायावती को डर सता रहा है कि कहीं मुसलमान उनसे छिटक न जाएं. लिहाजा जहां अनुच्छेद 370 समाप्त करने का मायने उन्होंने लद्दाख में बौद्ध अनुयायियों के हक की जीत बताया था, वहीं अब उन्होंने मुस्लिम प्रदेश अध्यक्ष देकर इस समीकरण को बैलेंस करने की कोशिश की है. वहीं सपा के कई वरिष्ठ नेताओं ने हाल ही में पार्टी छोड़ी है जिसके कारण पार्टी में असमंजस की स्थिति बन गई है. बसपा इस पर भी नजर बनाए हुए है.

पाॅलिटिकल साइंस के प्रोफेसर कविराज की मानें तो 2019 लोकसभा चुनाव में गठबंधन से सपा को जितना बड़ा नुकसान हुआ उतना बसपा को नहीं. बल्कि 2014 में शून्य सीटें पाने वाली बसपा इस बार 10 सीटों तक पहुंच गई. इससे बसपा में ये भी उम्मीद जग गई कि विधानसभा चुनाव में भी वे सपा को पीछे छोड़ सकती है. नवंबर में 13 सीटों पर होने वाले उपचुनाव इस बात का लिटमस टेस्ट होगा कि दोनों दलों में अलग-अलग चुनाव लड़ने पर कौन ताकतवर है.


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लोकसभा चुनाव में लड़े थे साथ

बीते लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा एक साथ लड़े थे जिसे दोनों दलों ने इसे ‘महागठबंधन’ करार दिया था लेकिन नतीजों के बाद ये गठबंधन टूट गया. सपा महज 5 सीटें ही हासिल कर पाई वहीं बसपा ने 10 सीटें जीती. यादव परिवार की बहू डिंपल यादव भी चुनाव हार गईं. मायावती ने खराब नतीजों का ठीकरा सपा के माथे फोड़ दिया जिसके बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी रास्ते अलग होने की बात स्वीकारी थी. अब मायावती ने सपा का कोर वोट बैंक तोड़ने की तैयारी भी शुरू कर दी है.

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