जल्द ही 3 मई 2023 की उस भयावह रात को दो साल हो जाएंगे, जब मणिपुर की ज़िंदगी बिखर गई थी. यह शुरूआत में अपने घर छोड़कर सुरक्षित जगह तलाशने के लिए परिवारों का पलायन था, वह जल्द ही एक कभी न खत्म होने वाले संकट में बदल गया, जिसमें 60,000 से ज़्यादा लोग विस्थापित हो गए.
जैसे-जैसे दिन बीते और महीने गुजरते गए, सच्चाई और भी कड़वी होती गई—जो खो गया, वह शायद कभी वापस न आए. और अगर सरकार के वादों के मुताबिक वापसी संभव भी है, तो सवाल यह है कि उसमें और कितना वक्त लगेगा?
मई में भड़की कुकी-जो और मीती समुदायों के बीच झड़प कोई अचानक हुई घटना नहीं थी. यह लंबे समय से चल रहे गहरे जातीय तनाव का परिणाम था, जिसे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने और भड़का दिया था.
सरकार की कई दखलअंदाज़ियों, समितियों और जांचों के बावजूद, संकट और गहराता गया. आज भी शांति और न्याय की उम्मीद दूर की कौड़ी बनी हुई है.
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समितियां, जांच
हिंसा के तुरंत बाद, जून 2023 में एक शांति समिति का गठन किया गया, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन राज्यपाल अनुसुइया उइके को सौंपी गई. इस समिति का उद्देश्य कुकी-जो और मीती समुदायों के बीच संवाद को बढ़ावा देना था. इसके सदस्यों में राजनेता, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और सामाजिक नेता शामिल थे, जिन्हें संघर्षरत समूहों के बीच मध्यस्थता करने में सक्षम माना गया.
हालांकि, यह पहल ज्यादा प्रभावी नहीं हो सकी. मुख्य विवाद का कारण मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की इसमें मौजूदगी थी, जिससे इस प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे. शांति की दिशा में कदम बढ़ाने के बजाय, यह समिति सरकार की इस संकट की गहराइयों को समझने में नाकामी को उजागर कर रही थी.
इसके बाद जुलाई 2023 में अजय लांबा, पूर्व मुख्य न्यायाधीश (गुवाहाटी हाईकोर्ट), की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया गया. इसका उद्देश्य हिंसा के मूल कारणों की जांच करना, प्रशासन की विफलताओं का पता लगाना और यह समझना था कि ऐसी स्थिति को बढ़ने से रोकने में सरकार और कानून व्यवस्था क्यों असफल रही.
इस आयोग को सरकार और कानून प्रवर्तन एजेंसियों की जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी भी दी गई थी, ताकि कोई पहलू अनदेखा न रहे. लोगों को उम्मीद थी कि यह प्रक्रिया दोषियों की पहचान कर उन्हें जवाबदेह ठहराने की दिशा में एक ठोस कदम साबित होगी.
जो जांच नवंबर 2024 तक पूरी होनी थी, वह अब मई 2025 तक टाल दी गई है। इससे मणिपुर की लंबे समय से चली आ रही निराशा और भी बढ़ गई है. जैसे-जैसे समय सीमा आगे बढ़ती जा रही है, ठोस प्रगति की कमी और भी स्पष्ट होती जा रही है.
इन देरी ने न केवल प्रशासनिक अक्षम्यताओं को उजागर किया है, बल्कि यह भी दिखाया है कि एक गंभीर मुद्दे को प्राथमिकता देने के बजाय इसे हाशिये पर डाल दिया गया है. अगर यह जांच इतनी जटिल थी, तो इसे तेज़ी से पूरा करने के लिए कोई विशेष व्यवस्था क्यों नहीं की गई? इससे साफ ज़ाहिर होता है कि इस मामले को नजरअंदाज किया जा रहा है.
मुआवज़ा संबंधी भ्रम
अगस्त में, एक तीन-सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जब महिलाओं को नग्न परेड कराए जाने का वीडियो सामने आया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने “गंभीर रूप से चिंताजनक” बताया.
इस विशेष समिति को हिंसा के पीड़ितों के लिए राहत, पुनर्वास और मुआवजे की देखरेख की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इसका नेतृत्व गीता मित्तल, पूर्व मुख्य न्यायाधीश (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट), कर रही थीं. मानवाधिकार से जुड़े मामलों में उनके व्यापक अनुभव, विशेष रूप से संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में, ने लोगों को उम्मीद दी थी. उनके साथ न्यायाधीश पुष्पा वी. गनेडिवाला और न्यायाधीश अंजना प्रकाश भी शामिल थीं, जो कानूनी विशेषज्ञता लेकर आईं.
मणिपुर के लोगों ने इस पहल से राहत और न्याय की उम्मीद की थी. हालांकि, समिति के अथक प्रयासों के बावजूद, राहत प्रक्रिया में भारी देरी हुई. प्रशासनिक अड़चनों और मुआवजे के मानकों को लेकर असमंजस ने इस प्रक्रिया को और धीमा कर दिया.
जहां समिति का गठन एक महत्वपूर्ण कदम माना गया, वहीं इसकी धीमी कार्यवाही ने कई पीड़ितों को अभी भी न्याय और राहत के इंतजार में छोड़ दिया.
निराशा को और बढ़ाने वाला एक बड़ा कारण यह था कि नुकसान का आकलन और मुआवजे की गणना कैसे की जाए, इस पर स्पष्टता नहीं थी. विनाश की भयावहता इतनी बड़ी थी कि वास्तविक क्षति का सही आकलन करना लगभग असंभव था. एक घर, एक समुदाय, या रातोंरात उजड़ गई ज़िंदगी को संख्याओं में कैसे गिना जा सकता है? किसी भी प्रशासनिक प्रणाली के पास इसका जवाब नहीं था.
और भावनात्मक पीड़ा का मूल्यांकन कैसे किया जाए—गहरे रिश्तों के टूटने, सैकड़ों परिवारों की बिखरी हुई ज़िंदगियों के आघात को कैसे मापा जाए? एक और व्यावहारिक चुनौती थी—कौन मुआवजे के योग्य होगा और राहत के लिए क्या मानदंड होंगे?
हर नुकसान की कीमत समान नहीं होती. बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की हानि की तुलना छोटे घरों से कैसे की जाए? पांच-मंजिला इमारत का नुकसान एक साधारण मकान की हानि से कैसे आंका जाए? इसके अलावा, पीछे छूट गई नकदी, सोना और अन्य कीमती सामान का मूल्यांकन कैसे किया जाए?
समिति का उद्देश्य नेक था, लेकिन ये जटिलताएं उसकी राह में रुकावट बन गईं. नतीजतन, मणिपुर के लोग एक बार फिर अधूरी उम्मीदों और टूटे हुए वादों के बीच फंसकर रह गए. इस समिति से जो उम्मीदें थीं, वे धीरे-धीरे गहरी निराशा में बदल गईं. सरकार अपने वादों को पूरा करने में असफल रही.
गहरी होती निराशा
दिसंबर 2024 में, राजनीतिक नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया, जिसने उम्मीद की एक हल्की किरण जगाई. पूर्व केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला को नए राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया, जिसके बाद तरह-तरह की अटकलें लगाई गईं. लोगों को उम्मीद थी कि उनकी प्रशासनिक विशेषज्ञता ठोस कार्रवाई सुनिश्चित करेगी. क्या उनका नेतृत्व आखिरकार वर्षों से चली आ रही अप्रभावी शासन प्रणाली को तोड़ पाएगा और मणिपुर को वह बदलाव देगा जिसकी उसे सख्त जरूरत है?
अगस्त 2023 में, इस बात की व्यापक चर्चा थी कि क्या राष्ट्रपति शासन लागू किया जाएगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे “कानून-व्यवस्था की पूरी तरह से विफलता” करार दिया था. लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई, जिससे लोग सदमे और अविश्वास की स्थिति में आ गए.
फिर भी, अब एक सतर्क आशावाद की भावना है. मणिपुर के लोग अभी भी उम्मीद करते हैं कि भल्ला वह व्यक्ति साबित हो सकते हैं जो राज्य को इस संकट से बाहर निकाल सकते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों को संभालने में उनका पिछला अनुभव और गृह मंत्रालय में उनकी भूमिका इस धारणा को जन्म देती है कि वह इस संकट का व्यावहारिक और संतुलित समाधान निकाल सकते हैं.
लेकिन क्या एक व्यक्ति, चाहे उसके पास कितना भी अनुभव हो, उन गहरे जड़ें जमाए हुए मुद्दों का समाधान कर सकता है, जिन्होंने मणिपुर में इतना दर्द और पीड़ा पैदा की है? चुनौती बहुत बड़ी लगती है, और संदेह अब भी बना हुआ है. आखिरकार, भल्ला उसी व्यापक प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं, जिसने वर्षों तक मणिपुर को विफल किया है.
हिंसा और उथल-पुथल से थके हुए मणिपुर के लोग सोच रहे हैं कि क्या भल्ला का नेतृत्व सरकारी उपेक्षा के इतिहास से अलग साबित होगा. उनकी निराशा तब और बढ़ जाती है जब वे अपने सवालों के जवाब पाने के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं.
वह निर्वाह भत्ता कहां है जो तुरंत दिया जाना चाहिए था? क्या सरकार ने उन लोगों की सही संख्या का पता लगाने की कोई सक्रिय कोशिश की जो भागने को मजबूर हुए? क्या किसी ने यह समझने की कोशिश की कि वे उत्तर-पूर्व के बाहर दूर-दराज के शहरों में हर दिन कैसे जी रहे हैं? क्या मानसिक आघात से चुपचाप जूझ रहे लोगों की पहचान के लिए कोई प्रणाली बनाई गई थी?
इन बुनियादी सहायता प्रणालियों के अभाव में, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो उत्तर-पूर्व के बाहर विस्थापित हो गए, लोग घर, रोजगार और स्थिर आय के बिना छोड़ दिए गए हैं. यहां तक कि उनके बुनियादी मानवाधिकारों की भी अनदेखी की जा रही है. मणिपुर के लोगों के लिए, यह एक कड़वी सच्चाई को उजागर करता है—वे केंद्र सरकार के लिए कोई प्राथमिकता नहीं हैं.
हालांकि, यह निष्क्रियता केवल विस्थापितों तक ही सीमित नहीं है. उतने ही जिम्मेदार वे राजनीतिक नेता भी हैं, जिन्होंने लगातार अपने ही लोगों की जरूरतों की अनदेखी की है. दशकों की उपेक्षा, कुप्रशासन और केवल इम्फाल-केंद्रित विकास—जिसमें पहाड़ी इलाकों के लिए बहुत कम बचा—ऐसे गहरे मुद्दे हैं जिन पर शायद ही कभी चर्चा होती है.
इसके अलावा, जब केंद्र सरकार शांति वार्ता की बात करती है, तो वह इस सच्चाई को नजरअंदाज कर देती है कि ये वार्ताएं हिंसा के इस स्तर तक पहुंचने से बहुत पहले हो जानी चाहिए थीं. सरकार का यह प्रतिक्रियात्मक रुख इस बात का प्रतीक है कि उसने स्थिति की गंभीरता को कभी पूरी तरह से नहीं समझा.
सरकार का पाखंड
केंद्र सरकार द्वारा समानता के वादों और अपने ही नागरिकों के प्रति उसके व्यवहार के बीच का यह विरोधाभास भी उतना ही चिंताजनक है. भारत ने हाल के वर्षों में दिव्यांगजनों की सुविधा के लिए कई कदम उठाए हैं, जैसे कि 2016 के दिव्यांग अधिकार अधिनियम के तहत हवाई अड्डों को अधिक समावेशी बनाना. फिर भी, मई 2023 से इम्फाल हवाई अड्डा कूकी जो समुदाय के लोगों के लिए बंद है. पूरी कूकी जो आबादी को भारत के बाकी हिस्सों तक पहुंचने के लिए मिजोरम के रास्ते 15 घंटे की कठिन सड़क यात्रा करनी पड़ती है.
यह विडंबना—जहां समानता के वादों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है—मणिपुर में सरकार की व्यापक विफलता को उजागर करती है.
और फिर वे आवाज़ें हैं जो यह दावा करती हैं कि मणिपुर के संघर्षरत समुदायों को अपने मतभेद खुद सुलझाने चाहिए. अगर यही समाधान होता, तो यह संकट इतनी भयावह स्थिति तक नहीं पहुंचता. मणिपुर के लिए एक निष्पक्ष और प्रतिबद्ध मध्यस्थ की सख्त जरूरत है. इस मुद्दे पर निरंतर और केंद्रित ध्यान दिया जाना चाहिए.
इन समितियों, जांचों और उच्चस्तरीय नियुक्तियों के बीच एक भयावह प्रश्न उठता है: क्या सरकार बस इंतजार कर रही है कि मणिपुर के लोग विरोध करने से थक जाएं? क्या रणनीति केवल यही है कि हिंसा के पीड़ितों की मांगों को समय के साथ धीमे-धीमे समाप्त होने दिया जाए?
लेकिन पीड़ा के सामने चुप्पी शांति नहीं होती. यह सुलह भी नहीं होती. यह केवल निराशा होती है. मणिपुर के लोग भले ही थक चुके हों, लेकिन उनकी यह थकान सामान्य स्थिति की ओर लौटने का संकेत नहीं है. यह आशा के क्षरण को दर्शाती है—एक ऐसा खतरनाक शून्य जिसे किसी भी भौतिक पुनर्निर्माण से कहीं अधिक भरना मुश्किल होगा.