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Tuesday, 4 February, 2025
होममत-विमतगंदगी के लिए सिर्फ सरकार को दोष मत दीजिए, नागरिकता की भावना कानून से नहीं जगाई जा सकती

गंदगी के लिए सिर्फ सरकार को दोष मत दीजिए, नागरिकता की भावना कानून से नहीं जगाई जा सकती

यह समस्या केवल भारत में सीमित नहीं है, उन देशों में भी है जहां भारतीय लोग जा बसे हैं. लंदन में गुटके की थूकों के चारों तरफ फैले दाग से छुटकारा पाने के लिए अधिकारियों को पूरे इलाकों में नई रंगाई-पुताई करवानी पड़ी.

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यह समस्या केवल भारत में सीमित नहीं है, उन देशों में भी है जहां भारतीय लोग जा बसे हैं. लंदन में गुटके की थूकों के चारों तरफ फैले दाग से छुटकारा पाने के लिए अधिकारियों को पूरे इलाकों में नई रंगाई-पुताई करवानी पड़ी.

भारत में प्रायः शासन की टैक्स नीतियों की आलोचना की जाती है जिनमें जीएसटी, इनकम टैक्स और दूसरे कई टैक्स शामिल हैं, लेकिन लोगों की नाराज़गी की वजह तमाम तरह के टैक्स से ज्यादा यह है कि वह जो टैक्स भरते हैं उनका उचित लाभ उन्हें नहीं मिलता. जीवनयापन के घटते स्तर और लोगों में नागरिकता की भावना के घोर अभाव ने जनअसंतोष के दुष्चक्र का निर्माण कर दिया है. व्यवस्था की विफलता सरकार की नाकामी, लोगों द्वारा अनुशासन और बुनियादी नागरिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा का मिलाजुला परिणाम होती है.

भारत में बुनियादी नागरिक सुविधाओं की हालत और लोगों के आचार-व्यवहार देश-विदेश की नज़र में आते रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में कुप्रबंध, कूड़े-कचरे के फैलाव से लेकर सार्वजनिक स्थलों पर असामाजिक आचरणों तक तमाम मसलों को लेकर आलोचना होती रहती है. जातिवाद आदि आम मसलों के कारण ये आलोचनाएं अक्सर बड़े विवाद का रूप ले लेती हैं, लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रायः इन सबकी जड़ें जाहिर हकीकतों से जुड़ी हैं.

नागरिक उपेक्षा और चोरी

गुटका-पान का इस्तेमाल और उसके साथ जुड़ी जहां-तहां थूकने या सार्वजनिक दीवारों, फूटपाथों, रेलवे स्टेशनों को गंदा करने की आदत एक स्थायी समस्या बन गई है. यह समस्या केवल भारत में सीमित नहीं है, उन देशों में भी है जहां भारतीय लोग जा बसे हैं. ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ अखबार की 2014 की एक रिपोर्ट बताती है कि लंदन के ब्रेंट उपनगर में गुटके की थूकों के चारों तरफ फैले दाग हाइ-प्रेसर वाली सफाई तकनीक से धोने में नाकाम रहने के बाद अधिकारियों को पूरे इलाकों में नई रंगाई-पुताई करवानी पड़ी.

इस तरह के आचरण से दुनिया में भारत की छवि खराब होती है और उसके बारे में पहले से बनी धारणाएं मजबूत होती हैं. सड़कों की हालत भी अच्छी नहीं है. ट्रैफिक के नियमों, लेन में चलने के अनुशासन का निरंतर उल्लंघन, लापरवाही से ओवरटेक करना, सिग्नलों की अनदेखी आदि के कारण रोज़ाना की आवाजाही तनावपूर्ण और खतरनाक हो गई है. इन समस्याओं के साथ भारत में कचरा जहां-तहां फेंकने और उसके निबटारे के संकट को भी जोड़ लीजिए, जो जनस्वास्थ्य के लिए गंभीर जोखिम पैदा करता है. ध्वनि प्रदूषण इस समस्या का एक और पहलू है. सार्वजनिक वाहनों पर बजाए जाने वाले कानफाडू हॉर्न या राजनीतिक रैलियों से लेकर धार्मिक जुलूसों और शादी-ब्याह में ऊंची आवाज़ में बजाए जाने वाले डीजे दूसरों की असुविधा का कोई ख्याल नहीं करते.

भारत में खुले में शौच भी एक गहरी समस्या बन गई है, जो बुनियादी सुविधाओं के अभाव को ही नहीं बल्कि नागरिकों में नागरिकता की चेतना की भारी कमी को भी उजागर करती है. सतत जारी इस कुप्रथा ने एक हानिकारक वैश्विक धारणा को मजबूत किया है, जो अक्सर रूढ़ धारणा एवं नस्लवादी उपहास की रूप ले लेती है जो इस समस्या की जटिलता पर पर्दा डाल देता है.

‘स्वच्छ भारत अभियान’ का मुख्य लक्ष्य तो खुले में शौच की समस्या का समाधान और भारतीयों की कचरा फैलाने की आदत को बदलना था, लेकिन शौचालयों के निर्माण के सिवा इसने इस्स बुरी आदत पर कोई असर नहीं डाला. यहां तक कि इन शौचालयों का इस्तेमाल भी घट रहा है. फिर भी, बेहतर यही होगा कि ऐसे और शौचालयों का निर्माण किया जाए.

ज़रूरत सामाजिक आचार-व्यवहार और तौर-तरीकों में बुनियादी परिवर्तन लाने की है. ऐसी समग्र पहल से ही हम खुले में शौच की कुप्रथा को बंद कर सकते हैं और भारत पर लगे कलंक को दुनिया भर की नजरों से मिटा सकते हैं.

मेरे एक युवा साथी ने इस साल गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान ‘कर्तव्य पथ’ का अपना एक तीखा अनुभव मुझसे साझा किया. सुबह में वहां देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और सैन्य शक्ति के प्रदर्शन ने उन्हें गर्व से भर दिया था, लेकिन उस पथ से बाहर निकलते हुए उनका गर्व निराशा में बदल गया. निकास के रास्ते कचरे से पटे थे, जिन्हें देखकर वे काफी शर्म और निराशा में डूब गए. यह याद दिला रहा था कि हममें नागरिकता की भावना और सार्वजनिक स्थानों के प्रति सम्मान के भाव की कितनी कमी है.

मानो यही काफी नहीं था, उन्होंने पाया कि दिल्ली के महात्मा गांधी रोड पर नारायणा के पास लगाई गईं नई लाइट्स चुरा ली गई थीं. यह कोई अकेली घटना नहीं है, यह उस बड़ी समस्या का ही एक रूप है जिससे हमारा अक्सर सामना होता रहता है.

जांच करने पर मैंने पाया कि इस तरह की चोरी खतरनाक रूप से आम हो चुकी है. प्रगति मैदान की आसपास लगाए गए सामान — पेंच, सजावटी लैंप, एलईडी की लड़ी, बिजली के खंभे, मीटर के बक्से आदि — की चोरी की गई. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी 2023 के बाद से ऐसे मामलों से संबंधित 50 से ज्यादा शिकायतें पुलिस में दर्ज कराई गई हैं.

बात यहीं तक आकर नहीं रुकती. जिन प्रीमियम ट्रेनों को हम बड़े गर्व से प्रचारित करते हैं उनके शौचालयों में आप पाएंगे कि उनमें इस्तेमाल के सामान को चोरी से बचाने के लिए जंजीरों से बांध दिया गया है. वातानुकूलित कोचों से कंबल-चादर गायब पाए जाते हैं, डिब्बे के अंदर यात्रियों द्वारा बेलिहाज थूकने की खबरें मिलती रहती हैं. ‘तेजस’ ट्रेन की उदघाटन यात्रा के दौरान उसमें यात्रियों के मनोरंजन के लिए लगाए गए कई हेडफोन यात्रा समाप्त होने तक रहस्यमय तरीके से गायब हो गए.

नस्लवाद या हकीकत?

पश्चिमी देशों में आजकल एक नया शगल शुरू हुआ है — ‘गूगल मैप्स गार्बेज़ गेम’. इसके नियम सरल हैं. इसमें आपको गूगल मैप्स के ज़रिए भारत में आप कितने ऐसे स्थान तक जा सकते हैं जहां आपको कचरा मिल जाए. यह नस्लवादी लग सकता है, लेकिन यह हमारा सामना इस चिंताजनक हकीकत से कराता है कि भारत की नागरिक समस्याएं पूरी दुनिया में उजागर हैं. हमें इन बातों की प्रामाणिकता को लेकर चिंतित होना चाहिए. बेशक इसके पीछे पूर्वाग्रह भी होता है, लेकिन कचरे के अपर्याप्त निबटारे और सार्वजनिक सेवा की कमी से जुड़े सवालों की उपेक्षा मुश्किल है. भारत को इन समस्याओं का समाधान ईमानदारी और रचनात्मक रूप से करना होग, न कि रक्षात्मक मुद्रा में.

भारत में लोगों के तौर-तरीकों और पालिकाओं के इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए दोहरी रणनीति की ज़रूरत है. लोगों को अपने आचरण की ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी और सरकार को स्वास्थ्यसेवा, शिक्षा और स्वच्छता जैसी आवस्यक सेवाओं को प्राथमिकता देनी होगी. नागरिकता की भावना कानून के जरिए पैदा नहीं की जा सकती; इसे शिक्षा, जागरूकता और सामुदायिक गतिविधियों में भागीदारी के जरिए ही जगाया जा सकता है.

सरकार को कचरा प्रबंधन की मजबूत व्यवस्था बनानी होगी, ट्रैफिक के नियमों का सख्ती से पालन करवाना होगा और जन जागरूकता अभियान चलाने होंगे. हर व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा. नागरिकता की भावना बच्चों में स्कूल के स्तर से ही जगानी होगी और समुदायों को अपने सदस्यों को बताना होगा कि वह एक बेहतर नागरिक कैसे बन सकते हैं. आचरण में परिवर्तन आने में लंबा समय लगता है, लेकिन सदभावनापूर्ण समाज बनाने के लिए यह ज़रूरी है. इसकी शुरुआत किसी की निगरानी में न होने पर उठाए जाने वाले हमारे कदमों से होती है.

ये तमाम बातें अपने राष्ट्र के लिए हमारे गर्व और अपने सार्वजनिक स्थानों तथा सुविधाओं के प्रति हमारे व्यवहार में अंतर को उजागर करती हैं. एक नागरिक के रूप में हमारे अधिकारों के साथ हमारी जो जिम्मेदारियां जुड़ी हैं उनकी उपेक्षा करके हम इस महान देश की उपलब्धियों का जश्न कैसे मना सकते हैं?

बात केवल अपनी सड़कों-गलियों को साफ-सुथरा रखने या सार्वजनिक संपत्तियों की रक्षा करने की नहीं है. असली चीज़ है — सम्मान. हम जिन स्थानों का साझा उपयोग करते हैं उनके लिए सम्मान; उनके निर्माण और रखरखाव के प्रयासों के लिए सम्मान और अंत में, एक-दूसरे के लिए सम्मान!

(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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