दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समागम और हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक महाकुंभ मेला, हर 144 साल में एक बार आयोजित किया जाता है और वर्तमान में यह उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहा है. तीन नदियों, गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम की ओर बढ़ते भक्तों का नज़ारा देखने लायक होता है — नंगे पांव तीर्थयात्री मीलों तक चलते हैं, भस्म लगाए साधु आस्था में लीन रहते हैं, परिवार अपना कुछ सामान और कपड़े गट्ठर में लपेटे हुए जा रहे हैं.
हवा में शंख और मंत्रों की ध्वनि गूंज रही है और महाकुंभ मेले में जिस तरह की ऊर्जा है, उससे यह तो स्पष्ट है कि यह केवल एक समागम नहीं है — यह आस्था, भक्ति है, जहां करोड़ों लोग पवित्र स्नान करने और हज़ारों एकड़ में फैले टेंट सिटी में रहने के लिए इकट्ठा होते हैं.
भारत में पले-बढ़े होने की सबसे बड़ी खुशियों में से एक इसकी आस्था की विविधता का अनुभव करना था. बतौर एक मुसलिम, मैंने हमारी ज़िंदगी में हज यात्रा के महत्व को समझा, लेकिन मैंने हिंदू तीर्थयात्राओं से जुड़ी गहरी भक्ति और भावनाओं को भी देखा. लोगों के जीवन पर उनके प्रभाव को देखकर मुझे न केवल उनका धार्मिक महत्व समझ में आया, बल्कि उनमें निहित भावनाओं और उद्देश्य की भावना भी समझ में आई.
आधुनिक भारतीय कुंभ मेले की आलोचना क्यों करते हैं
कुंभ मेला — ऐसा समागम, जहां पवित्र जल में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है और लोग ईश्वर के करीब पहुंचते हैं — कुछ ऐसा है जिसे राजनीति से परे रखा जाना चाहिए, लेकिन यह असलियत नहीं है, मैं भूल नहीं सकती कि कैसे, 2001 में, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का कुंभ स्नान केवल एक धार्मिक कार्य से अधिक हो गया था. उस वक्त यह एक राजनीतिक तमाशा बन गया.
कुछ लोगों ने इसे भाजपा की हिंदुत्व वाली राजनीति के ब्रांड का मुकाबला करने के उनके प्रयास के रूप में देखा, जबकि अन्य ने सोचा कि यह उनके विदेशी मूल होने के बारे में कानाफूसी को शांत करने का एक तरीका था और ईमानदारी से, आज भी इसमें बहुत बदलाव नहीं आया है. कुंभ मेले की पवित्रता, जो आस्था और आध्यात्मिकता में इतनी गहराई से निहित है, अभी भी कभी-कभी राजनीतिक नैरेटिव में उलझ जाती है.
ये बातें हिंदू और मुसलमानों के बारे में नहीं हैं, ये हमारे मूल, हमारे देश और हमारी सभ्यता की बातें हैं. इसमें कोई हिंदू या मुस्लिम नहीं है, अगर आप मानते हैं कि आप भारतीय हैं, तो आपको सब कुछ महसूस करना चाहिए
— कबीर खान, फिल्म निर्माता
जबकि राजनेताओं का ऐसा करना समझ में आता है, लेकिन जो बात असल में मेरा ध्यान खींचती है, वह है कुंभ मेले की आधुनिक भारतीयों द्वारा की जाने वाली आलोचना. कुप्रबंधन के बारे में शिकायतें एक बात है, लेकिन सबसे बड़ी बात है खुद इस आयोजन का विरोध. ‘सुरक्षा मुद्दों’ से लेकर ‘फिज़ूल खर्च’ और अंधविश्वास को बढ़ावा देने के आरोपों तक — आलोचना अक्सर व्यावहारिक चिंताओं से परे होती है.
कुछ लोग तर्क देते हैं कि हमें इनोवेशन और तकनीक को अपनाते हुए आगे बढ़ने की ज़रूरत है और पुरानी परंपराओं और प्रथाओं को पीछे छोड़ना चाहिए. इस नज़रिए से कुंभ को इनोवेशन और वैज्ञानिक प्रगति को एक बाधा की तरह पेश किया जाता है, जैसे कि यह कुछ ऐसा है जिसे “आधुनिक” भारत के लिए रास्ता बनाने के लिए त्याग दिया जाना चाहिए.
कुंभ मेला: भारत की जीवंत सांस्कृतिक विरासत
यह तर्क कि कुंभ मेला प्रगति में बाधा है, कई स्तरों पर दोषपूर्ण है. सबसे पहले, यह आयोजन के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को नज़रअंदाज़ करता है, जो लाखों लोगों की ज़िंदगी में गहराई से जुड़ा हुआ है. यह सिर्फ हिंदुओं का इतिहास नहीं है, बल्कि भारत का भी इतिहास है. यह प्राचीन भारत की इस तरह के विशाल आयोजन को आयोजित करने और योजना बनाने तथा विरासत को आगे बढ़ाने की क्षमता का प्रमाण है.
आलोचक अक्सर इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि लाखों हिंदुओं के लिए कुंभ मेला सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि इससे उनके आध्यात्मिक अनुभव भी जुड़े हैं, जो ईश्वर के साथ उनके संबंध को मज़बूत करता है. यह आस्था का एक ऐसा क्षण है, जहां भक्त सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं, बल्कि साझा मान्यताओं और परंपराओं से बंधे एक विशाल वैश्विक हिंदू समुदाय के हिस्से के रूप में एक साथ आते हैं.
धार्मिक पहलू से परे, यह इतिहास का एक जीवंत प्रमाण भी है — एक परंपरा जो सदियों से चली आ रही है, जो भारत के विकसित होते सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ताने-बाने को आकार दे रही है और आकार ले भी रही है. कुंभ मेले को पुराना मानकर खारिज करना लोगों की ज़िंदगी में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को नज़रअंदाज़ करना है, जो उन्हें अपनेपन, भक्ति और अपनी विरासत के साथ निरंतरता की भावना प्रदान करता है. अगर कुछ भी हो, तो यह एक अनुस्मारक है कि प्रगति का मतलब हमेशा समाज के लिए सार्थक चीज़ों को पीछे छोड़ना नहीं होता है — इसका मतलब अतीत का सम्मान करने और उसका जश्न मनाने के तरीके से विकसित होना भी हो सकता है.
इसके अलावा, जबकि यह आस्था के बारे में है, यह हमारी सभ्यता के बारे में भी है. इस कुंभ मेले को मेरे लिए और भी सराहनीय बनाने वाली बात इसकी समावेशिता है जहां कोई भी अपनी पहचान की परवाह किए बिना भाग ले सकता है. जैसा कि हाल ही में महाकुंभ मेले का दौरा करने वाले फिल्म निर्माता कबीर खान ने कहा, “ये बातें हिंदू और मुसलमानों के बारे में नहीं हैं, ये हमारे मूल, हमारे देश और हमारी सभ्यता की बातें हैं. इसमें कोई हिंदू या मुस्लिम नहीं है, अगर आप मानते हैं कि आप भारतीय हैं, तो आपको सब कुछ महसूस करना चाहिए.”
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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