शिमला: एक ऐतिहासिक फैसले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) अदालत ने 2017 के कोटखाई बलात्कार-हत्या मामले के आरोपी सूरज सिंह की हिरासत में मौत के मामले में पुलिस महानिरीक्षक जहूर हैदर जैदी और सात अन्य पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई.
अदालत ने 18 जनवरी को पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) मनोज जोशी, उपनिरीक्षक राजिंदर सिंह, सहायक उपनिरीक्षक दीप चंद शर्मा और कॉन्स्टेबल मोहन लाल, सूरत सिंह, रफी मोहम्मद और रंजीत सटेटा को दोषी ठहराया. हालांकि, पूर्व पुलिस अधीक्षक दंडूब वांगियाल नेगी को अपर्याप्त सबूतों के कारण बरी कर दिया गया.
सीबीआई के लोक अभियोजक अमित जिंदल ने अपराध की गंभीरता पर जोर दिया और कड़ी सज़ा की मांग की. विशेष न्यायाधीश अलका मलिक ने आठ दोषी अधिकारियों को साजिश, हिरासत में यातना और सबूतों को नष्ट करने में संलिप्तता का हवाला देते हुए उम्रकैद की सज़ा सुनाई.
अदालत के आदेश में आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की कई धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं, जिनमें 120-बी (आपराधिक साजिश), 302 (हत्या), 330 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाकर कबूलनामा करवाना), 348 (गलत तरीके से बंधक बनाना), 195 (साक्ष्य गढ़ना) और 218 (सरकारी कर्मचारी द्वारा गलत रिकॉर्ड तैयार करना) शामिल हैं.
फोन पर दिप्रिंट से बात करते हुए सूरज सिंह की पत्नी ममता ने कहा, “मैं उन सभी की आभारी हूं जिन्होंने न्याय दिलाने में मेरी मदद की. केवल ये पुलिसकर्मी ही नहीं, जो किसी के पति, पिता, बेटे की हत्या करता हो, उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए. इसमें सालों लग गए, लेकिन आखिरकार न्याय मिला. इस मामले में फैसला इस बात का संकेत है कि एक गरीब प्रवासी मज़दूर को भी न्याय मिल सकता है.”
हालांकि, उन्होंने कहा कि वे नहीं चाहतीं कि अधिकारियों को मौत की सज़ा मिले. उन्होंने कहा, “मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं. उनके भी परिवार हैं. मैं किसी अपने, साथी के बिना जीने का दर्द जानती हूं. मैं नहीं चाहती कि उनके परिवारों को भी वही दर्द सहना पड़े. हालांकि, अपराधियों को अपने कृत्य की गंभीरता का एहसास होना चाहिए. उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए और उन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.”
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क्या था पूरा मामला
4 जुलाई, 2017 को शिमला से 56 किलोमीटर दूर शांत शहर कोटखाई में 16-वर्षीय स्कूली छात्रा लापता हो गई, जिसका शव 2 दिन बाद हलैला के जंगलों में मिला. छात्रा के शरीर पर यौन उत्पीड़न और हिंसा के स्पष्ट निशान थे. इस क्रूर अपराध के कारण हिमाचल प्रदेश में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और नागरिकों ने तुरंत न्याय की मांग की.
इसके जवाब में, तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जैदी के नेतृत्व में एक विशेष जांच दल (SIT) का गठन किया. SIT ने नेपाल के मज़दूर सूरज सिंह सहित छह संदिग्धों को गिरफ्तार किया. हालांकि, 18 जुलाई, 2017 की रात को कोटखाई पुलिस स्टेशन में हिरासत में रहते हुए सूरज की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई.
SIT की जांच पर बढ़ते सार्वजनिक संदेह के बीच, उसी महीने हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने मामले को CBI को सौंप दिया, जिसने पाया कि सूरज को जबरन कबूलनामा करवाने के लिए हिरासत में प्रताड़ित किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उसे घातक चोटें आईं.
आगे की जांच में सीबीआई को एक अन्य संदिग्ध अनिल कुमार उर्फ नीलू चरणी की पहचान करने में मदद मिली, जिसे एसआईटी ने नज़रअंदाज़ कर दिया था. कुमार को बलात्कार और हत्या के लिए 2021 में दोषी ठहराया गया और उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई. इस बीच, सूरज और बाकी पांच आरोपियों के खिलाफ आरोप हटा दिए गए.
ज़ैदी की कार्रवाई
सूरज की मौत के बाद, शिमला की तत्कालीन एसपी सौम्या संबासिवन ने दावा किया कि उन पर शव का जल्द से जल्द अंतिम संस्कार करने का बहुत दबाव था. हालांकि, उन्होंने इसका विरोध किया और शव को सीबीआई जांच के लिए सुरक्षित रख लिया, जिसमें बाद में हिरासत में यातना के संकेत मिले.
2018 में चंडीगढ़ में सीबीआई की विशेष अदालत में की गई शिकायत में, संबासिवन ने विस्तार से बताया कि कैसे ज़ैदी ने उन पर अपना बयान बदलने के लिए दबाव डाला. उन्होंने गवाही दी कि ज़ैदी ने बार-बार उन पर दबाव डाला और ऐसा न करने पर कानूनी परिणाम भुगतने की धमकी दी.
इसके अलावा, सीबीआई के अनुसार, डीएसपी मनोज जोशी और सब-इंस्पेक्टर राजिंदर सिंह ने एक कहानी गढ़कर घटना को छिपाने की कोशिश की कि सूरज की मौत बंदियों के बीच झगड़े में हुई थी. एकमात्र प्रत्यक्षदर्शी कॉन्स्टेबल दिनेश ने इस झूठी कहानी का समर्थन करने से इनकार कर दिया. इसके बजाय, उसे निलंबन की धमकी देकर एक मनगढ़ंत शिकायत पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया.
मामले ने निर्णायक मोड़ तब लिया जब सीबीआई ने ज़ैदी का फोन जब्त किया, जिसमें दिनेश के मूल बयान की एक वीडियो रिकॉर्डिंग मिली, जिसे आधिकारिक जांच से हटा दिया गया था. यह रिकॉर्डिंग महत्वपूर्ण सबूत बन गई, जिसने ज़ैदी और अन्य आरोपियों को फंसाया.
ज़ैदी को सीबीआई ने 29 अगस्त, 2017 को गिरफ्तार किया था.
मामले की संवेदनशीलता और न्याय में बाधा डालने के प्रयासों के कारण, सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्ष कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए 2019 में मुकदमे को चंडीगढ़ स्थानांतरित कर दिया.
फैसला सुनाते हुए न्यायाधीश अलका मलिक ने न्याय बरकरार रखने के लिए काम करने वाले कानून प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा शक्ति और विश्वास के दुरुपयोग की निंदा की.
उन्होंने दोषियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाते हुए कहा, “हिरासत में हिंसा एक बड़ी चिंता का विषय है और सभ्य समाज में सबसे बुरे अपराधों में से एक है. यह कानून के शासन और आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रशासन की विश्वसनीयता को प्रभावित करता है. इस मामले में, एक उग्र भीड़ ने पुलिस स्टेशन को आग लगा दी, जहां संदिग्ध व्यक्ति की हिरासत में मौत हो गई. पुलिस की शक्ति का दुरुपयोग चिंता का विषय है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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