नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बारे में कथित टिप्पणी को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ दायर मानहानि मामले में अंतरिम रोक लगा दी है.
जस्टिस विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने गांधी की याचिका पर सुनवाई करते हुए मानहानि कार्यवाही पर रोक लगाई. यह याचिका गांधी ने हाई कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ दायर की थी, जिसमें उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया था.
बीजेपी कार्यकर्ता नवीन झा ने 2019 में गांधी के खिलाफ यह मामला दर्ज किया था.
गांधी की ओर से वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील दी कि मानहानि के मामले किसी और के माध्यम से दायर नहीं किए जा सकते और केवल “पीड़ित व्यक्ति” ही ऐसे मामले दर्ज कर सकता है.
क्या है मामला
यह मानहानि का मामला 18 मार्च 2018 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के पूर्ण सत्र के दौरान राहुल गांधी द्वारा की गई टिप्पणियों से संबंधित है.
अपने भाषण में गांधी ने कथित बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह को एक हत्या मामले में संलिप्त बताया था. शिकायतकर्ता नवीन झा, जो छत्तीसगढ़ के बीजेपी नेता हैं, ने कहा कि ये टिप्पणियां शाह, बीजेपी और उसके समर्थकों के लिए मानहानि करती हैं.
आरोपों के अनुसार, गांधी ने बीजेपी नेतृत्व को “सत्ता के नशे में झूठे” बताते हुए पार्टी पर “हत्या के आरोपी” को अध्यक्ष के रूप में स्वीकार करने का आरोप लगाया.
गांधी ने इसकी तुलना कांग्रेस से की और कहा कि कांग्रेस ऐसा व्यक्ति कभी स्वीकार नहीं करेगी.
झा ने दावा किया कि इन टिप्पणियों से बीजेपी और उसके नेताओं की छवि और चरित्र को नुकसान पहुंचा है.
कानूनी यात्रा और निचली अदालत के आदेश
एक मजिस्ट्रेट की अदालत ने शुरुआत में गांधी के खिलाफ नवीन झा का मुकदमा खारिज कर दिया था. इसके बाद झा ने रांची के न्यायिक आयुक्त के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिन्होंने मजिस्ट्रेट कोर्ट के फैसले को पलट दिया और उसे निर्देश दिया कि “रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों की दोबारा जांच करें” और मामले में आगे बढ़ने के लिए नया आदेश जारी करें जिसमें यह देखा जाए कि कोई आधार बनता है या नहीं.
इसके बाद मजिस्ट्रेट अदालत ने एक नया आदेश पारित किया, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 500 (मानहानि) के तहत प्रारंभिक मामला सही पाया. गांधी ने झारखंड हाईकोर्ट में न्यायिक आयुक्त के 15 सितंबर 2018 के आदेश की “कानूनी वैधता, शुद्धता और उचितता” को चुनौती दी.
हालांकि, हाईकोर्ट ने उनके मामले को रद्द करने की याचिका खारिज कर दी और कहा कि उनकी टिप्पणी प्रारंभिक रूप से मानहानिकारक है. अदालत ने यह भी कहा कि उसे न्यायिक आयुक्त और मजिस्ट्रेट अदालत के नए आदेश में कोई अवैधता नहीं मिली.
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सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
गांधी ने ट्रायल की कार्यवाही से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और झारखंड हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें उनकी मानहानि मामले को रद्द करने की याचिका खारिज कर दी गई थी.
गांधी ने अपनी याचिका में कई तर्क पेश किए.
उन्होंने कहा कि जहा, जो भाजपा सदस्य हैं, को मानहानि शिकायत दर्ज करने की कानूनी क्षमता नहीं है क्योंकि ऐसे मामले केवल “पीड़ित व्यक्ति” द्वारा ही दर्ज किए जा सकते हैं. इसके अलावा, ये बयान राजनीतिक थे और भारतीय संविधान के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से संरक्षित हैं.
स्पेशल लीव पिटिशन (एसएलपी) में गांधी ने न्यायिक आयुक्त के हस्तक्षेप को चुनौती दी और दलील दी कि मानहानि का मुकदमा गलत तरीके से किसी तीसरे पक्ष द्वारा दायर किया गया है.
गांधी की अपील में एक मुख्य बिंदु यह था कि शिकायतकर्ता “पीड़ित व्यक्ति” के रूप में परिभाषित नहीं होता है, जैसा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 199(1) में वर्णित है. शिकायतकर्ता यह साबित नहीं कर पाया कि वह भाजपा का सदस्य है.
शिकायत में खुद को “कार्यकर्ता/समर्थक” बताया गया है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है कि वह पार्टी का आधिकारिक सदस्य है. इसके अलावा, शिकायत के बाद भी, सीआरपीसी की धारा 202 के तहत जांच कार्यवाही के दौरान उसकी सदस्यता स्थापित करने का कोई सबूत नहीं है.
गांधी की याचिका में दलील दी गई कि उप-मंडलीय न्यायिक मजिस्ट्रेट का 2018 का आदेश, जिसने जांच के बाद याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई मामला नहीं पाया, उचित और तर्कसंगत था और इसे पलटा नहीं जाना चाहिए था.
याचिका में कहा गया कि अदालतों ने “प्रारंभिक आधार” शब्द की अनुपस्थिति पर गलत ध्यान दिया और साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करने में विफल रहीं, जिससे केवल “संदेह” पैदा हुआ, न कि “गंभीर संदेह.”
याचिका में कहा गया कि शिकायत में वर्णित कथन संविधान के राजनीतिक भाषण के अधिकार द्वारा संरक्षित हैं, जो उन्हें मानहानि कानूनों से छूट देता है.
गांधी ने कहा कि इस तरह की कार्यवाही को जारी रखना कानूनी संसाधनों का दुरुपयोग होगा और सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की मांग की, ताकि कार्यवाही को रद्द किया जा सके, क्योंकि यह अपर्याप्त साक्ष्यों पर आधारित है और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती है.
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