नई दिल्ली: जनसंघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने 1958 में दूसरी पंचवर्षीय योजना के शुरू होने के तुरंत बाद अपनी किताब द टू प्लान्स: प्रॉमिस, परफॉरमेंस एंड प्रॉस्पेक्ट्स में लिखा था, “निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की सापेक्ष भूमिका का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए…ऐसी कई योजनाएं हैं जिन्हें सुरक्षित रूप से निजी क्षेत्र को सौंपा जा सकता है”.
उन्होंने कहा, चीनी, कपड़ा, साबुन, सीमेंट, चीनी मिट्टी, कागज़, चीनी मिट्टी, चमड़ा — इनमें से किसी को भी सार्वजनिक क्षेत्र के दायरे में आने की ज़रूरत नहीं है. “सार्वजनिक क्षेत्र को उस बोझ से कुछ राहत मिलनी चाहिए जो उसने अनावश्यक रूप से अपने ऊपर ले लिया है.”
उन्होंने कहा कि सिविल सेवाओं को सभी औद्योगिक मामलों को संभालने की ज़रूरत नहीं है — सरकार अगर निजी प्रबंधकीय और संगठनात्मक प्रतिभा का सहयोग लेती तो पहली पंचवर्षीय योजना में बहुत सारा पैसा और कोशिश बचा सकती थी.
छह दशक से अधिक समय बाद 2021 में निजी क्षेत्र के समर्थन और संसद में आईएएस की समान रूप से निंदा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “सब कुछ बाबू ही करेंगे. आईएएस बन गए मतलब वो फर्टिलाइज़र का कारखाना भी चलाएगा, केमिकल का कारखाना भी चलाएगा, आईएएस हो गया तो वो हवाई जहाज भी चलाएगा. ये कौनसी बड़ी ताकत बना कर रख दी है हमने? बाबुओं के हाथ में देश दे करके हम क्या करने वाले हैं? हमारे बाबू भी तो देश के हैं, तो देश का नौजवान भी तो देश का है.”
मोदी का यह बयान उनकी सरकार द्वारा अभूतपूर्व रूप से निजी क्षेत्र से लोगों को सरकार में शामिल करने के लिए संस्थागत लैटरल एंट्री शुरू करने के दो साल बाद आया है और कुछ दिनों पहले ही एक नई सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम (पीएसई) नीति की घोषणा की गई, जिसके तहत कम चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का निजीकरण किया जाएगा.
उपाध्याय और मोदी की बयानबाजी के बीच समानताएं अनदेखी नहीं की जा सकतीं — निजी क्षेत्र को राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण मानना, सार्वजनिक क्षेत्र के एकाधिकार के प्रति तिरस्कार और सभी आर्थिक मामलों को संभालने वाले आईएएस अधिकारियों की निंदा.
पहली बार पढ़ने पर ऐसा लगेगा कि मोदी सरकार वास्तव में अपना आर्थिक दर्शन उपाध्याय से लेती है, जिनके एकात्म मानववाद को 1985 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के आधिकारिक दर्शन के रूप में अपनाया था.
2014 से जब भाजपा सत्ता में आई, उपाध्याय को गांधी के स्तर पर लाने के लिए ठोस प्रयास किए गए हैं.
ऑर्गनाइजर के पूर्व संपादक आर. बालाशंकर ने कहा, “दीनदयाल उपाध्याय भाजपा के लिए वही हैं जो मोहनदास करमचंद गांधी कांग्रेस के लिए थे.”
दीन दयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना जैसी योजनाओं का नाम उनके नाम पर रखने से लेकर नई दिल्ली में भाजपा कार्यालय के सामने उनकी 72 फीट ऊंची बड़ी प्रतिमा लगाने तक; 2017 में उनकी जन्म शताब्दी मनाने के लिए राष्ट्रव्यापी समारोह आयोजित करने से लेकर उन्हें पार्टी के मार्गदर्शक के रूप में संदर्भित करने तक — उपाध्याय ने पिछले 10 साल में पार्टी और सरकार के भाषणों में एक जबरदस्त वैचारिक उपस्थिति दर्ज कराई है.
फिर भी, एकात्म मानववाद से परे, उपाध्याय के आर्थिक दर्शन के बारे में बहुत कम जानकारी है. वे किस राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ में लिख रहे थे? क्या वे निजी क्षेत्र का समर्थन करते थे? क्या वे पूंजीवाद विरोधी थे या वे छोटे पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करते थे? स्वदेशी का उनका ब्रांड गांधी के ब्रांड से किस तरह अलग था? क्या वह एक आर्थिक विचारक या एक राजनीतिक अभिनेता के रूप में अधिक लिख रहे थे? क्या उनके आर्थिक दर्शन और पिछले 10 साल में मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के बीच कोई समानता है? और अंत में, क्या वे समानताएं वैचारिक, बयानबाजी या विशुद्ध रूप से संयोग हैं?
मोदी सरकार ने सत्ता में 10 साल पूरे कर लिए हैं और अपना 12वां बजट पेश करने जा रही है. दिप्रिंट आपको बता रहा है कि यह अपने घोषित विचारक के आर्थिक दर्शन का किस हद तक पालन करती है.
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पूंजीवाद, समाजवाद — पश्चिमी जाल
एक बार एक प्रमुख राजनेता ने उपाध्याय को सुझाव दिया कि कांग्रेस के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाए. राजनेता का मज़ाक उड़ाते हुए उपाध्याय ने उनसे पूछा कि मोर्चे का कार्यक्रम क्या होगा. उन्होंने पूछा, “इसकी आर्थिक नीति क्या होगी?”
उपाध्याय ने राजनेता के कथन को याद किया, “उनकी चिंता मत करो. जो भी तुम्हें पसंद हो, तुम अपना सकते हो. हम चरम मार्क्सवादी से लेकर पूरी तरह पूंजीवादी कार्यक्रम तक किसी भी चीज़ का समर्थन करने के लिए तैयार हैं.”
21 साल की उम्र से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े उपाध्याय के लिए यह देश के सामने मौजूद समस्या का मूल कारण था. जैसा कि उन्होंने 1960 में अपनी लेक्चर सीरीज़ में कहा था, जिसे जनसंघ के आधिकारिक सिद्धांत एकात्म मानववाद में संकलित किया गया था, “भारत के सामने आने वाली समस्याओं का मूल कारण इसकी राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा है.” उन्होंने तर्क दिया कि भारत का बौद्धिक वर्ग पश्चिम द्वारा बनाए गए समाजवाद और पूंजीवाद जैसी बौद्धिक श्रेणियों से ऊपर नहीं उठ सकता.
उपाध्याय दोनों के विरोधी थे.
पूंजीवाद और समाजवाद एक दूसरे के प्रति प्रतिक्रिया थे और उन्होंने कहा कि दोनों ही मानवीय दुखों का कारण बने.
उपाध्याय ने एकात्म मानववाद में कहा है, “राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, समाजवाद या समानता (समाजवाद के मूल में समानता है — समानता समता से भिन्न है), इन तीनों सिद्धांतों ने यूरोपीय सामाजिक और राजनीतिक सोच पर अपना दबदबा कायम रखा है.” उन्होंने कहा कि ये सभी अच्छे आदर्श हैं जो मानव जाति की उच्च आकांक्षाओं को दर्शाते हैं, लेकिन व्यवहार में ये सभी एक दूसरे के विरोधी हैं.
उन्होंने तर्क दिया कि सबसे पहले राजनीतिक अधिकारों के लिए एक आंदोलन चला, जिसके चश्मे से मनुष्य को “राजनीतिक प्राणी” के रूप में देखा गया. उसे संतुष्ट करने के लिए उसे वोट देने का अधिकार दिया गया, लेकिन जैसे ही उसे वोट देने का अधिकार मिला, अन्य अधिकार कम होते गए. उपाध्याय के “राजनीतिक व्यक्ति” ने कहा, “अगर मुझे भोजन नहीं मिला तो मैं राज्य के साथ क्या करूंगा? मुझे इस वोटिंग अधिकार का कोई फायदा नहीं है. मुझे पहले रोटी चाहिए.”
जवाब में कार्ल मार्क्स आए, जिन्होंने “मनुष्य को मुख्य रूप से शरीर से बना हुआ देखा, जिसे रोटी चाहिए”, लेकिन उपाध्याय ने कहा कि मार्क्स का अनुसरण करने वालों को न तो रोटी मिली और न ही वोटिंग अधिकार.
यूएस का पूंजीवाद, उपाध्याय के लिए, दूसरे छोर पर था. उन्होंने कहा कि वहां मनुष्य के पास रोटी और वोट का अधिकार दोनों हैं, लेकिन उसके पास शांति या खुशी नहीं है. उन्होंने कहा, अब, वह शांतिपूर्ण नींद चाहता है.
यहां उन्होंने दुख के चक्र को इस तरह समझाया है, “लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा इसका उपयोग शोषण और एकाधिकार के लिए किया जाता है. समाजवाद शोषण को समाप्त करने के लिए लाया गया था, लेकिन इसने व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को नष्ट कर दिया.”
इसके अलावा, पूंजीवाद और समाजवाद दोनों विशिष्ट स्थानों और विशिष्ट संदर्भों में उत्पन्न हुए — दोनों में से कोई भी ज़रूरी नहीं कि सार्वभौमिक हो. उपाध्याय ने लिखा, “वे उन विशेष लोगों और उनकी संस्कृति की सीमाओं से मुक्त नहीं हो सकते हैं, जिन्होंने इन वादों को जन्म दिया.”
उन्होंने कहा कि अपनी विशिष्ट संस्कृति वाले भारतीय लोगों को अपने स्वयं के “वाद” की ज़रूरत होगी.
आत्मनिर्भरता, आयुष्मान भारत, मनरेगा — उपाध्याय का ‘धर्म के शासन’ का विचार
उपाध्याय ने द टू प्लान्स में लिखा है कि योजना आयोग के पास कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है और प्रधानमंत्री तथा अन्य कैबिनेट मंत्रियों के इसके सदस्य होने का कोई कारण नहीं है.
किताब की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि आयोग का अस्तित्व “दिखाता है कि हमारा मानसिक दृष्टिकोण अभी भी राजनीतिक आंदोलनकारी और हवा-हवाई आदर्शवादी का है, न कि व्यावहारिक योजनाकार का, जो बेहतर लेकिन वास्तविक जीवन के लिए समान रूप से दृढ़ संकल्प के साथ योजना बनाते हुए और उसका अनुसरण करते हुए जीवन की कठोर वास्तविकताओं को अनदेखा नहीं करने के लिए दृढ़ संकल्पित है.”
नेहरूवादी अर्थशास्त्र के प्रबल आलोचक उपाध्याय ने कहा, “पूरी योजना मशीनरी में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है.”
2014 में प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले स्वतंत्रता दिवस भाषण में, मोदी, जिनका गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए योजना आयोग के साथ अच्छे रिश्ते नहीं रहे थे, ने इसके उन्मूलन की घोषणा की.
लेकिन यह एकमात्र ऐसा कदम नहीं था जो मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद उठाया, जो कम से कम बयानबाजी के लिहाज़ से उपाध्याय के आर्थिक विश्वदृष्टिकोण के अनुरूप है.
निम्नलिखित मामलों पर उपाध्याय के विचारों पर विचार करें:
भोजन का जन्मसिद्ध अधिकार : “हमारा नारा होना चाहिए कि जो कमाएगा, वह खिलाएगा और हर व्यक्ति को पर्याप्त भोजन मिलेगा. भोजन का अधिकार जन्मसिद्ध अधिकार है. कमाने की क्षमता शिक्षा और प्रशिक्षण का परिणाम है. समाज में, जो लोग कमाते नहीं हैं, उन्हें भी भोजन मिलना चाहिए” — उपाध्याय, एकात्म मानववाद
काम न करने वालों को पर्याप्त भोजन मिले, यह सुनिश्चित करने के सामाजिक दायित्व पर उनके विचार मोदी के कल्याणवाद के अपने ब्रांड में स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होते हैं, जिसका सबसे अच्छा उदाहरण सरकार की मुफ्त राशन योजना है, जो मोदी की कल्याणकारी राजनीति की आधारशिला बन गई है.
सबके लिए स्वास्थ्य सेवा : “बच्चों और बूढ़ों, बीमारों और अपाहिजों, सभी की देखभाल समाज को करनी चाहिए…अगर कोई व्यक्ति किसी बीमारी का शिकार हो जाता है, तो समाज को उसके इलाज और भरण-पोषण की व्यवस्था करनी चाहिए” — उपाध्याय, एकात्म मानववाद
यहां, वे तर्क देते हैं कि जब राज्य अपने सभी लोगों के लिए भोजन, कपड़े, मकान और स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकता है, तभी इसे धर्म का शासन कहा जा सकता है. अन्यथा, उन्होंने कहा, यह “अधर्म का शासन” होगा. सबके लिए स्वास्थ्य सेवा के उनके विचार की छाया फिर से मोदी की लोकप्रिय आयुष्मान भारत योजना में देखी जा सकती है.
स्वदेशी : “स्वदेशी की अवधारणा को पुराने जमाने का और प्रतिक्रियावादी कहकर उपहास किया जाता है. हम सोच, प्रबंधन, पूंजी, उत्पादन के तरीकों, तकनीक आदि से लेकर उपभोग के मानकों और रूपों तक हर चीज़ में विदेशी सहायता का गर्व से उपयोग करते हैं. यह प्रगति और विकास का मार्ग नहीं है. हम अपनी व्यक्तिगत पहचान भूल जाएंगे और एक बार फिर से आभासी गुलाम बन जाएंगे. स्वदेशी की सकारात्मक सामग्री का उपयोग हमारी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की आधारशिला के रूप में किया जाना चाहिए” — उपाध्याय, एकात्म मानववाद
1950 और 1960 के दशक में लिखते और सोचते समय उपाध्याय पर भारत की नई-नई प्राप्त संप्रभुता को खोने का डर हावी था. गांधी की तरह ही, उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक संप्रभुता के बीच संबंध को स्पष्ट करने का प्रयास किया. उन्होंने विदेशी मशीनरी के आयात को नए राष्ट्र के लिए खुद को नुकसान पहुंचाने वाला भी माना, क्योंकि इससे उसके विशाल कार्यबल के लिए रोज़गार के अवसर खत्म हो जाएंगे. इसलिए, भारत को “भारतीय प्रौद्योगिकी” की ज़रूरत थी, जो न केवल भारतीय कार्यबल के लिए प्रतिस्पर्धी हो, बल्कि देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के साथ भी टकराव न करे.
भले ही राजनीतिक संप्रभुता के लिए खतरा अब मंडरा नहीं रहा है, लेकिन मोदी ने राष्ट्रीय और सांस्कृतिक गौरव के लिए एक उपकरण के रूप में “आत्मनिर्भरता” का भी आह्वान किया है. इसलिए, राजनीतिक लक्ष्य संप्रभुता या गौरव — के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता का विचार दोनों के लिए समान रहा है.
सभी के लिए रोज़गार : “…बेरोज़गार लोगों को भोजन उपलब्ध कराना होगा, जो संसाधनों पर एक निरंतर और अंतहीन बोझ है, जिसका उपभोग दोगुनी गति से किया जा रहा है. इसलिए, ‘हर मज़दूर को भोजन मिलना चाहिए’ के सामान्य आह्वान के बजाय, हमें ‘हर खाने वाले को काम मिलना चाहिए’ के बारे में सोचना चाहिए, जो हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है” — उपाध्याय, एकात्म मानववाद
2015 में मोदी ने यूपीए द्वारा तैयार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) का माखौल बनाया था और इसे पिछली सरकार के ‘गरीबीवाद’ का अवशेष बताया था. उन्होंने कहा कि यह योजना उनकी सरकार के तहत जारी रहेगी, लेकिन यह “कांग्रेस की विफलताओं का एक जीवित स्मारक” होगी. हालांकि, एक साल के भीतर, केंद्र ने इस योजना पर यू-टर्न ले लिया, इसे “राष्ट्र का गौरव” कहा, और महामारी के बाद भी साल-दर-साल इसके लिए आवंटित धन में उल्लेखनीय वृद्धि की.
राजकोषीय रूढ़िवादिता : “अगर सरकारें सार्वजनिक धन को विनियोग और व्यय करने तथा व्यय को सीमा के भीतर रखने की सामान्य दिनचर्या का भी पालन करें, तो कम से कम 70 से 80 करोड़ रुपए की बचत हो सकती है” — उपाध्याय, द टू प्लान्स
चाहे वह वाजपेयी की सरकार के दौरान हो या मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों के दौरान, राजकोषीय घाटे के प्रबंधन के प्रति उल्लेखनीय दृढ़ता रही है. भले ही मोदी सरकार अपने ऑफ-बजट उधारी के विस्तार के समय इस सिद्धांत से कुछ समय के लिए दूर चली गई थी, लेकिन जल्द ही वह राजकोषीय समेकन के रास्ते पर लौट आई.
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लघु-स्तरीय, विकेंद्रीकृत उद्योग
2016 में अपनी सरकार के प्रमुख स्मार्ट सिटी मिशन के तहत परियोजनाओं के शुभारंभ के बाद पुणे में एक सभा में पीएम मोदी ने कहा था कि भारत में एक समय था जब शहरीकरण को “एक बड़ी समस्या” माना जाता था.
उन्होंने कहा, “लेकिन, मैं अलग तरह से सोचता हूं. हमें शहरीकरण को एक समस्या के जैसा नहीं, बल्कि एक मौके की तरह देखना चाहिए.”. “आर्थिक क्षेत्र के लोग शहरों को विकास केंद्र के रूप में देखते हैं…अगर किसी चीज़ में गरीबी को कम करने की क्षमता है तो वह हमारे शहर हैं. यही कारण है कि गरीब इलाकों से लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं, क्योंकि उन्हें वहां मौके मिलते हैं.”
गरीबी के समाधान के रूप में शहरीकरण का यह विचार उपाध्याय के विचार से बिल्कुल अलग है. उनके लिए जैसा कि इतिहासकार आदित्य बालासुब्रमण्यम ने paper A More Indian Path to Prosperity में लिखा है, शहरीकरण से शहरों में जनसंख्या विस्फोट, झुग्गी-झोपड़ियां, बीमारियां होती हैं, ग्रामीण इलाकों में हुनर का हनन होता है और लोगों का संस्कृति से दूर रहना पड़ता है. उपाध्याय के अपने शब्दों में शहरीकरण “श्रमिकों को उनके परिवार, जाति और गांव समुदाय से उखाड़ फेंकता है और उन्हें बिना किसी मानवीय मूल्यों के एक नए, काम-उन्मुख परिवेश में रखता है”.
स्पष्ट रूप से यह एक पूरी तरह से अलग आर्थिक दर्शन है, जबकि मोदीनॉमिक्स के कई घटक उनकी पार्टी और उसके पूर्ववर्ती के मूल विचारक से लिए गए प्रतीत हो सकते हैं, उपाध्याय के आर्थिक विश्वदृष्टिकोण पर बारीकी से नज़र डालने पर मोदी के आर्थिक विश्वदृष्टिकोण से बहुत अलग दिखाई देते हैं.
जब उपाध्याय लिख रहे थे, तब 1950 और 1960 के दशक का आर्थिक विमर्श अमेरिकी पूंजीवाद और सोवियत समाजवाद के दो ध्रुवों के बीच झूल रहा था, आरएसएस प्रचारक दो भारतीय अर्थशास्त्रियों — एम. विश्वेश्वरैया और सी.एन. वकील से बहुत प्रभावित थे, जिन्होंने औद्योगीकरण के युद्ध-पूर्व जापानी अनुभव से एक आदर्श आर्थिक मॉडल की प्रेरणा ली, सुब्रमण्यन ने नोट किया.
मीजी पुनरुद्धार (1868) से लेकर प्रथम विश्व युद्ध (1919) के अंत तक आर्थिक विकास के जापानी अनुभव में निम्नलिखित बातें महत्वपूर्ण थीं — यह प्रक्रिया छोटे पैमाने के निजी उद्यमों द्वारा संचालित थी, न कि सार्वजनिक उद्यमों द्वारा, जिसमें व्यापारियों, थोक विक्रेताओं और स्थानीय उद्यमियों द्वारा स्थापित छोटी फर्में शामिल थीं; भारी उद्योगों के सोवियत मॉडल के विपरीत हल्के, श्रम-गहन उद्योग या उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों पर जोर; छोटे खेतों के माध्यम से कृषि समृद्धि जहां छोटी मशीनरी और औज़ारों का उपयोग खेत मजदूरों के काम को पूरा करने के लिए किया जाएगा, न कि उन्हें बदलने के लिए.
उपाध्याय इन सभी को किसी न किसी रूप में प्रस्तावित करते थे.
उनके लिए जापानियों की तरह, औद्योगीकरण का नेतृत्व निजी क्षेत्र द्वारा किया जाना था, न कि सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा, जिसके खिलाफ उन्होंने खूब लिखा. यह मोदी की आर्थिक नीति के अनुरूप प्रतीत होता है, लेकिन निजी उद्यम के पैमाने में अंतर के कारण दोनों इसे पसंद करते हैं.
उपाध्याय के आर्थिक मॉडल के अनुसार, यह एक विकेन्द्रीकृत निजी उद्यम होगा जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है. उन्होंने टू प्लान्स में लिखा, “औद्योगीकरण की योजना में विकेंद्रीकृत लघु उद्योग को भी पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए. लघु और बड़े उद्योगों के बीच क्षेत्रों का सीमांकन होना चाहिए. कताई मिलों को सारा सूत और हथकरघा तथा पावरलूम को सारा कपड़ा कम से कम आंतरिक खपत के लिए उत्पादित करने दें.”
उन्होंने लिखा कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, कई लघु उद्योगों ने इस मौके का लाभ उठाया और रक्षा या अन्य वस्तुओं की मांग को पूरा किया जिन्हें आयात नहीं किया जा सकता था. उन्होंने लिखा, “लघु उद्यमियों ने इस कमी को पूरा किया और अगर सरकार ने उनके प्रति थोड़ी अधिक सहानुभूतिपूर्ण नीति अपनाई होती तो वे देश के औद्योगिक ढांचे के लिए एक मजबूत और स्थिर आधार प्रदान कर सकते थे. अगर उनमें से कुछ बच गए हैं और अभी भी सक्रिय हैं, तो यह सरकार की उदासीनता और संगठित निजी क्षेत्र की दुश्मनी के बावजूद है.”
सुब्रमण्यन के अनुसार, उपाध्याय का आर्थिक मॉडल पूरी तरह से छोटे पैमाने के, श्रम-प्रधान विकेंद्रीकृत उद्योग और कृषि पर आधारित है. सुब्रमण्यन ने कहा, “उनके लिए अगर विकास रोज़गारविहीन था, तो इसका कोई फायदा नहीं था. मशीनरी के सवाल पर भी, वे गांधी की तरह मशीनों के विरोधी नहीं थे, जब तक कि वे रोज़गार को खत्म न करें.”
इस प्रकार उपाध्याय का आर्थिक मॉडल छोटे उद्योग और छोटी पूंजी के विचार पर आधारित था.
वास्तव में, एकात्म मानववाद में, उपाध्याय लोकतंत्र और एकाधिकार या क्रोनी कैपिटलिज्म के बीच संबंध को भी नोट करते हैं.
उन्होंने कहा, “लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान करता है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा इसका उपयोग शोषण और एकाधिकार के लिए किया जाता है.” जबकि पूंजीवाद की उनकी सबसे बड़ी आलोचनाओं में से एक श्रमिकों का शोषण था, जिसे “पूंजीवादी व्यवस्था में सामान्य और स्वाभाविक” माना जाता था, जब एकाधिकार स्थापित होता है, तो प्रतिस्पर्धा की जांच भी काम करना बंद कर देती है.
उन्होंने कहा, “ऐसी स्थिति में प्रतिस्पर्धा से मिलने वाला प्रोत्साहन अब उपलब्ध नहीं है. कीमतें मनमाने ढंग से तय की जाती हैं और उत्पादों की गुणवत्ता खराब होती है.”
उपाध्याय का मॉडल मोदी से बिल्कुल अलग है, जिनके खिलाफ विपक्ष का सबसे स्थायी हमला क्रोनी कैपिटलिज्म है. हालांकि, मोदी सरकार ने एमएसएमई क्षेत्र की वित्तीय परेशानियों को कम करने के लिए कई नीतियां पेश की हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटलीकरण, महामारी के कारण लॉकडाउन आदि के कारण इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है.
दरअसल, उपाध्याय न केवल लघु उद्योग का समर्थन करते हैं, बल्कि उन्हें बढ़ाने का भी विरोध करते हैं. उन्होंने इंटीग्रल ह्यूमैनिज्म में लिखा, “आमतौर पर, इच्छा, वांछित चीज़ों का उत्पादन करने के प्रयास से पहले होती है, लेकिन अब स्थिति उलट है. पहले, उत्पादन मांग के बाद होता था; अब मांग, उत्पादन के बाद होती है.”
मांग के अभाव में बड़े पैमाने पर किए जाने वाले उत्पादन को “विनाश” कहते हुए उन्होंने तर्क दिया कि इससे न केवल पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, बल्कि आर्थिक मंदी भी आती है. उन्होंने कहा कि महामंदी ठीक इसीलिए आई क्योंकि बाज़ार में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध वस्तुओं का उपभोग करने वाला कोई नहीं था — जिसके कारण फैक्ट्रियां बंद हो गईं, दिवालियापन और बेरोज़गारी फैल गई.
‘मेक इन इंडिया’ जैसी योजनाओं और भारत को विनिर्माण केंद्र बनाने के सरकार के घोषित उद्देश्य के साथ, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार और पार्टी के विचारकों के बीच मतभेद अधिक स्पष्ट नहीं हो सकता.
न तो वाजपेयी और न ही मोदी
उनका आर्थिक मॉडल भारत की सरल पारंपरिक घरेलू संस्कृति का लाभ उठाकर बचत को बढ़ावा देने और नेहरूवादी समय की विशेषता वाले बेकार सार्वजनिक व्यय को कम करने पर आधारित था.
उन्होंने कहा, “अगर सरकार इन पारंपरिक गुणों को देश की आर्थिक ज़रूरतों से जोड़ सके, तो बचत बढ़ सकती है.”
उन्होंने तर्क दिया कि इससे यह सुनिश्चित होगा कि देश के आर्थिक विकास में हर कोई भाग ले. उन्होंने कहा, “आर्थिक विकास को एक राष्ट्रीय ‘यज्ञ’ माना जाना चाहिए, जिसमें हर किसी को अपनी आहुति देनी होगी.”
लोगों की भागीदारी उपाध्याय के अर्थशास्त्र का मूल थी — यहां तक कि विनिवेश जैसे बड़े पैमाने के सरकारी फैसलों में भी.
उपाध्याय विनिवेश के समर्थक थे. इसलिए, यह तथ्य कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार ने कम चलने वाले सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण करने के लिए विनिवेश विभाग की स्थापना की, कोई हैरानी की बात नहीं है. यह एक ऐसा लक्ष्य है जिसे मोदी सरकार ने भी हासिल करने की कोशिश की है. हालांकि, इसके नतीजे निराशाजनक रहे हैं.
लेकिन उपाध्याय का विनिवेश का विचार भाजपा के दो प्रधानमंत्रियों से बिल्कुल अलग था. उन्होंने लिखा, “अभी तक सरकार ने जनता से ऋण के रूप में पैसा उधार लिया है. यह वांछनीय होगा अगर राज्य उपक्रमों के शेयर सदस्यता के लिए पेश किए जाएं. सरकार नियंत्रक शेयर अपने पास रख सकती है और बाकी शेयर जारी कर सकती है.”
उन्होंने तर्क दिया कि इससे “निवेश करने वाली जनता को प्रोत्साहन मिलेगा.” उन्होंने तर्क दिया कि “इस तरह से लोगों का नियंत्रण संसद द्वारा बहस और चर्चा के माध्यम से नियंत्रण करने से अधिक प्रभावी हो सकता है.”
यह एक ऐसा विचार था जिसे एकात्म मानववाद में दोहराया गया था. उन्होंने कहा कि पूंजीवादी और समाजवादी व्यवस्था में अधिशेष मूल्य उद्योगपति या राज्य द्वारा बनाए रखा जाता है. दोनों प्रणालियों में, संपूर्ण उत्पादन श्रमिकों के बीच वितरित नहीं किया जाता है, जिससे वे अपने काम से विमुख और हतोत्साहित हो जाते हैं. उन्होंने तर्क दिया कि अधिशेष मूल्य को श्रमिकों के बीच वितरित किया जाना चाहिए, जिससे उन्हें “अतिरिक्त मूल्य या पूंजी के प्रबंधन में प्रत्यक्ष भागीदारी की भावना” मिले.
उद्योग की तरह ही कृषि के मुद्दे पर भी उपाध्याय छोटे पैमाने के समर्थक थे. उस समय के नेहरूवादी अर्थशास्त्र द्वारा प्रस्तुत विशालता के विपरीत और उसके प्रबल विरोधी, उपाध्याय का आर्थिक विकास का मॉडल छोटे पैमाने पर उत्पादन की बड़ी मात्रा पर आधारित था.
सुब्रमण्यन ने लिखा, इसके अलावा, उपाध्याय की वैकल्पिक अर्थव्यवस्था मूल रूप से कृषि आधारित थी. “उनका मानना था कि छोटे पैमाने पर, पारिवारिक खेती सबसे अच्छा काम करती है और उन्होंने सुझाव दिया कि देश को छोटे मालिक-आधारित खेती की अवधारणा के आधार पर एकल भूमि-पट्टा प्रणाली को अपनाना चाहिए.”
यहां भी, उपाध्याय का कृषि मॉडल मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के बिल्कुल विपरीत होगा, जिन्हें किसानों के लगातार विरोध के कारण 2021 में वापस ले लिया गया था.
अलग भाजपा, अलग भारत
जब पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की सहायता से उदारीकरण सुधारों की घोषणा की, तो भाजपा मुश्किल में पड़ गई.
विनय सीतापति ने जुगलबंदी: मोदी से पहले की भाजपा में लिखा है कि पार्टी की पहेली यह थी: “उनकी (लालकृष्ण आडवाणी) पार्टी का व्यापारी वर्ग अपने स्वयं के व्यवसायों पर प्रतिबंध हटाने के पक्ष में था, लेकिन वे विदेशी कंपनियों और पूंजी से प्रतिस्पर्धा को सीमित करना चाहते थे.”
राजनीतिक रूप से कहें तो यह वही मतदाता वर्ग था, जो व्यापार करने में आसानी और विदेशी पूंजी से प्रतिस्पर्धा से सुरक्षा दोनों चाहता था, जिनके हितों की रक्षा उपाध्याय के आर्थिक दर्शन ने 1960 के दशक में की थी.
1991 में सुधारों पर प्रतिक्रिया देते हुए वाजपेयी ने संसद में कहा, “केबल टीवी, स्टार टीवी आ रहे हैं-आ चुके हैं. वे विलासिता की वस्तुएं बेचेंगे. लोग उन्हें अपनी झोपड़ियों में देखेंगे. भले ही बच्चों के पास पीने के लिए दूध न हो, लेकिन शैम्पू खरीदा जाएगा.”
कुछ ही वर्षों में वे प्रधानमंत्री के रूप में देश के दूसरे पीढ़ी के आर्थिक सुधारों की अध्यक्षता करने लगे.
क्या बदल गया था? भारत और भाजपा का चुनावी आधार दोनों.
सुब्रमण्यन ने कहा, “जब वे (उपाध्याय) लिख रहे थे, तब भारत किस आर्थिक मॉडल को अपनाएगा, इस बारे में बहुत से सवाल हल नहीं हुए थे. जब तक वाजपेयी सत्ता में आए, तब तक राजनीतिक आम सहमति उदारीकरण के पक्ष में हो चुकी थी और वे नई आम सहमति के अनुसार काम कर रहे थे.”
इसके अलावा, उपाध्याय और मोदी के चुनावी दर्शकों में भी अंतर है, नाम न बताने की शर्त पर भाजपा के एक नेता ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि दीनदयाल उपाध्याय जो प्रस्ताव दे रहे थे, वह अर्थशास्त्र का एक अनूठा मॉडल था, लेकिन उस समय जनसंघ भी छोटे, शहरी व्यापारियों और पूंजीपतियों की पार्टी थी…इसलिए, एकाधिकार रहित विकेन्द्रीकृत निजी क्षेत्र के लिए उनका समर्थन भी राजनीतिक रूप से समझ में आता था, भले ही यह नैतिक अर्थशास्त्र पर पूरी तरह आधारित था.”
उन्होंने कहा, “जब 2014 में मोदी सत्ता में आए, तब समाजवाद और पूंजीवाद, यूएसए और यूएसएसआर आदि के बीच बहस अतीत की बात हो चुकी थी. भारत में उदारीकरण को एक दशक से भी ज़्यादा हो चुका था और यह मत भूलिए कि मोदी सिर्फ उदारीकरण के बाद के भारत की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर रहे थे, बल्कि वे प्रभावी रूप से इसका प्रतिनिधित्व भी कर रहे थे.”
उन्होंने कहा, “दीनदयाल उपाध्याय और मोदी के अर्थशास्त्र के बीच बयानबाज़ी से परे कोई वास्तविक मेल संभव नहीं है.”
सुब्रमण्यन इस बात से सहमत थे.
उन्होंने कहा कि स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) और भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) — दोनों की स्थापना आरएसएस प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने की थी, जिन्होंने उपाध्याय से अपना आर्थिक दर्शन लिया था — भाजपा से कहीं ज़्यादा उपाध्याय के आर्थिक दर्शन का अनुसरण करते हैं.
उदाहरण के लिए स्वदेशी जागरण मंच और सरकार के बीच जो तनाव दिखाई देता है, वही तनाव उपाध्याय और मोदी के अर्थशास्त्र के बीच भी है.
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