scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिश्रावण मास : पशुओं संग पर्वतों पर पूजा करते है पाडर के लोग

श्रावण मास : पशुओं संग पर्वतों पर पूजा करते है पाडर के लोग

श्रावण मास में पर्वतों पर प्रवास के दौरान उन पशुओं का दूध तक भी नही पिया जाता जो पशु समूह के लोग अपने साथ लेकर आते हैं.

Text Size:

श्रावण मास के दौरान श्री अमरनाथ यात्रा, कांवड़ यात्रा सहित कईं अन्य यात्राओं का आयोजन होता हैं. मंदिरों में इन दिनों खूब रौनक रहती है और श्रद्धालु मंदिरों में उमड़ पड़ते हैं.

मगर इस सबसे ठीक विपरीत जम्मू कश्मीर के किश्तवाड जिले के पाडर क्षेत्र में श्रावण मास में मंदिरों के किवाड़ बंद कर दिए जाते हैं और एक ऐसी यात्रा पर ऊंचे पर्वतों की ओर स्थानीय लोग निकल पड़ते हैं जिसमें कड़े अनुशासन और सात्विक दिनचर्या का पालन करना पहली शर्त है. एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इस यात्रा में स्थानीय लोग अपने साथ अपने पालतू जानवर भी ले जाते हैं.

श्रावण मास पाडर क्षेत्र के लोगों के लिए आत्मशुद्धी का महीना है. यह महीना उनके लिए समर्पण का है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भी यही समय है और श्रावण मास ही इस क्षेत्र के लोगों के लिए आत्ममंथन और आत्मानुभूति का भी समय है.

पूरी पाडर घाटी का इस दौरान वातावरण भक्तिमय हो जाता है. दूर ऊंचे पर्वतों से भजन कीर्तन की स्वर-लहरियां गूंजती रहती हैं और बीच-बीच में स्थानीय लोकगीत व लोकनृत्य की थाप भी सुनाई पड़ती है.

massu village101
आस्था से जुड़ा मस्सु गांव- फोटो-मनु श्रीवत्स

पाडर घाटी के सीधे-साधे, भोले-भाले लोग सदियों से श्रावण मास के दिनों में इस परंपरा को निभाते चले आ रहे हैं. स्थानीय लोगों का ऐसा मानना है कि है कि श्रावण मास आने पर देवता दूर-दुर्गम पर्वतों पर चले जाते हैं. दूर चले गए देवताओं को वापिस लाने के लिए पाडर घाटी के लोग पूरे श्रावण मास में कठिन तप व पूजा अर्चना में लीन रह कर देवताओं को वापिस लौट आने का आग्रह करते हैं. जैसे ही हर साल श्रावण मास का महीना दस्तक देता है पाडर क्षेत्र के लोग पूरी तरह से भक्ति में डूब जाते हैं.

श्रावण मास की पहली संक्रान्ति से शुरू होकर इस अनोखी व अनूठी परंपरा की समाप्ति भादों (भाद्रपद) मास की पहली संक्रान्ति को होती है.

देवताओं को ‘मनाने’ पर्वतों की ओर निकल पड़ते हैं लोग

श्रावण मास की पहली संक्रान्ति को दूर ऊंचे पर्वतों पर चले गए देवताओं को ‘मनाने’ और वापिस लौटा लाने के लिए पाडर के हर घर से एक पुरुष सदस्य पर्वतों की ओर निकल पड़ता है. क्षेत्र के हर घर से पर्वतों की ओर जाने वाला पुरुष सदस्य अपने साथ अपने पशु-मवेशियों को भी पर्वतों पर ले जाता है.

पाडर घाटी के प्रत्येक घर से एक-एक पुरुष और पशुओं का यह समूह गांव से दूर अति दुर्गम ऊंचे पर्वतों पर ‘ढोक’ या ‘पोहाली’ का निर्माण कर उसमें डेरा जमाता हैं.

उल्लेखनीय है कि ‘ढोक’ या ‘पोहाली’ को मिट्टी, पत्थरों और घास-फूस से तैयार किया जाता है. पहाड़ों पर प्रवास के लिए अक्सर ख़ानाबदोश लोग ‘ढोक’ या ‘पोहाली’ का ही इस्तेमाल करते हैं.

ऊंचे पर्वतों पर प्रवास के दौरान पर्वतों पर स्थित प्राकृतिक गुफ़ाओं का भी इस्तेमाल किया जाता है और इन प्राकृतिक गुफ़ाओं में साथ लाए गए जानवरों को रखा जाता है.

peddar temple-1
पाडर मंदिर के बंद कपाट- फोटो- मनु श्रीवत्स

श्रावण मास में पर्वतों पर प्रवास करने वालों को ‘पोहाल’ या फिर ‘पोहाली’ भी कहा जाता है. ऐसा उन्हें प्रवास के दौरान ‘ढोक’ या ‘पोहाली’ में रहने की परंपरा के कारण कहा जाता है.

समूह के सभी सदस्यों के लिए बसेरा तैयार हो जाने पर शुरू होता है ‘रूठे’ देवताओं को मनाने का सिलसिला. पूरा समूह पूजा में लीन हो जाता है. पूरे एक महीने तक ऊंचे व दुर्गम पर्वतों पर ही रह कर पूजा-अर्चना, भजन-कीर्तन किया जाता है.
इस दौरान कड़े अनुशासन का पालन करते हुए सात्विक भोजन ग्रहण किया जाता है. पर्वत पर प्रवास के दौरान सादगी का पूरी तरह से पालन करते हुए शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है.

समूह में से बारी-बारी से कोई एक सदस्य शेष सभी सदस्यों के लिए भोजन तैयार करता है.

पर्वतों पर प्रवास के दौरान अगर किसी कारणवश या मजबूरी में समूह के किसी सदस्य को पर्वतों से नीचे आना पड़े तो भी अमुक व्यक्ति अपने घर में प्रवेश नहीं कर सकता.

श्रावण मास में पर्वतों पर प्रवास के दौरान उन पशुओं का दूध तक भी नही पिया जाता जो पशु समूह के लोग अपने साथ लेकर आते हैं. प्रवास के दौरान पशुओं को दुहा तो ज़रूर जाता है मगर दूध को पीने की जगह उसका घी बनाकर रख लिए जाता है. प्रवास के दौरान तैयार किए गए घी का भी इस्तेमाल नही किया जाता.

समूह के सभी सदस्य पर्वतों से घर वापसी पर तैयार किए गए घी को अपने साथ लेकर आते हैं. बाद में इस घी का इस्तेमाल भादों (भाद्रपद) की संक्रान्ति के अवसर पर होने वाले उत्सव में किया जाता है. किश्तवाड के पत्रकार बलबीर सिंह का कहना है कि देश भर में कईं ऐसी परंपराएं और मान्यताएं है जो बेशक जुड़ी तो धर्म से हैं पर वह अपने साथ गूढ़ मतलब लिए हुए है.

श्रावण मास में बंद रहते हैं मंदिरों के किवाड़ 

ऊंचे पर्वतों की ओर पाडर क्षेत्र के लोगों के समूह की रवानगी के साथ ही पीछे पूरे क्षेत्र के मंदिरों के किवाड़ बंद हो जाते है.किवाड़ बंद रहने पर किसी भी मंदिर में पूजा-अर्चना नही की जाती.

पर्वतों पर गया समूह भादों (भाद्रपद) मास की पहली संक्रान्ति को लौटता है और ठीक उसी दिन तमाम मंदिरों के किवाड़ आम लोगों के लिए खोल दिए जाते हैं. उस दिन पूरे क्षेत्र में उत्सव व उल्लास का माहौल होता है और लोग पर्वतों से लौटे लोगों का भव्य स्वागत करते हैं.

पाडर घाटी की ख़ूबसूरती को लंबे समय से अपने कैमरे में कैद करते आ रहे जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ फ़ोटोग्राफ़र चन्नी आनंद का कहना है, ‘अपनी परंपरा और मान्यताओं को निभाने में जिस तरह के अनुशासन का परिचय पाडर के लोग देते हैं वह अपने आप में एक बड़ी मिसाल है.’

चन्नी आनंद कहते हैं, ‘पूरी तरह से कड़े अनुशासन में बंध कर शांत मन से कैसे ईश्वर की भक्ति की जा सकती है यह पाडर घाटी के लोगों से ही सीखा जा सकता है.’

peddar temple-2
फोटो- मनु श्रीवत्स

लंबे समय तक फ़ोटोग्राफ़ी के सिलसिले में पाडर में प्रवास कर चुके चन्नी आनंद कहते हैं, ‘श्रावण मास में पाडर के लोगों द्वारा समर्पण के भाव से की जाने वाली पूजा-अर्चना उन लोगों की आंखें खोलने के लिए भी पर्याप्त है जो धर्म के नाम पर दिखावे और शोर-शराबे से भरी भक्ति में यकीन रखते हैं.’

बेशकीमती ‘नीलम’ के लिए मशहूर है पाडर घाटी

जम्मू कश्मीर के किश्तवाड जिले में स्थित ख़ूबसूरत पाडर घाटी ‘नीलम’ रत्न की खानों के लिए प्रसिद्ध है. समुद्र तल से लगभग 15000 फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित यहां की खानों में पाए जाने वाले ‘नीलम’ रत्न को उच्च गुणवत्ता के लिए जाना जाता है. यहां के ‘नीलम’ की बाज़ार में भारी मांग रहती है. पाडर के ‘नीलम’ रत्न की मांग और गुणवत्ता का अंदाज़ा यहीं से लगाया जा सकता है कि 2013 में जिनेवा में यहां का मात्र एक रत्न लगभग 22 करोड़ में बिका था.

पाडर घाटी के पूर्व में हिमाचल प्रदेश की पांगी घाटी पड़ती है जबकि उत्तर पूर्व दिशा में लद्दाख का ज़ांसकर क्षेत्र जुड़ता है. इस क्षेत्र में बौद्ध भी बड़ी संख्या में रहते हैं.

संभागीय मुख्यालय जम्मू से पाडर लगभग 280 किलोमीटर है. पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण जम्मू से पाडर सात से आठ घटों में पहुंचा जा सकता है. जबकि ज़िला मुख्यालय किश्तवाड से पाडर की दूरी 70 किलोमीटर है.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

share & View comments