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Wednesday, 15 January, 2025
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भारत में पुलिस, अस्पताल और अदालतों से बचे रहना एक आशीर्वाद क्यों है?

भारत की तीन सबसे डरावनी संस्थाएं—पुलिस, अस्पताल और अदालतें—अपनी क्षमता के लिए पहचानी जाती हैं, जो रक्षकों को पीड़ित बना देती हैं.

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भारत विरोधाभासों का देश है, जहां इसके नागरिकों के लिए जीवन कई तरह की उलझनों से भरा हुआ है. एक तरफ यह समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, तो दूसरी तरफ यहां ऐसी गहरी समस्याएं हैं जो आम लोगों के जीवन को मुश्किल बना देती हैं. जिन अनेक चुनौतियों का सामना इसके लोगों को करना पड़ता है, उनमें पुलिस, अस्पताल और अदालतें—ये तीन सबसे डरावनी संस्थाएं—विशेष रूप से इस कारण से खड़ी हैं कि ये रक्षक से भक्षक बनने की क्षमता रखती हैं. इस संदर्भ में, इन संस्थानों के साथ बातचीत करने से बच जाना किसी आशीर्वाद की तरह महसूस हो सकता है.

यहीं पर प्रक्रिया सजा बन जाती है. इन क्षेत्रों के साथ बातचीत करने से भारत की टूटी हुई व्यवस्था और जवाबदेही की पूरी कमी उजागर होती है. नागरिकों की सेवा करने का विचार इन संस्थानों के लिए मानो अपरिचित है.

पुलिस-हिरासत में यातना और दुर्व्यवहार

पुलिस बल, जिसे कानून-व्यवस्था बनाए रखने और नागरिकों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार बनाया गया है, आज डर का पर्याय बन चुका है. हिरासत में यातना, थर्ड-डिग्री पूछताछ और हिरासत में मौतों जैसी घटनाओं ने भारत में कानून प्रवर्तन की छवि को बुरी तरह धूमिल कर दिया है. जवाबदेही की कमी के चलते पुलिस अधिकारी अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं और अक्सर उन्हीं लोगों को शिकार बनाते हैं, जिन्हें वे बचाने के लिए नियुक्त किए गए हैं.

पुलिस प्रणाली में सुधार के प्रयास अब तक प्रभावी नहीं रहे हैं, जिससे नागरिक डर और उत्पीड़न के शिकार बने रहते हैं. इस व्यवस्था में पारदर्शिता और निगरानी का अभाव है, जिससे यह सवाल उठता है: “कौन करेगा पहरेदारों की निगरानी?”

बहुत से लोगों के लिए पुलिस स्टेशन जाना एक भयावह अनुभव बन जाता है, जहां उन्हें अवैध हिरासत, उत्पीड़न और मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है. जो लोग रिश्वत या व्यक्तिगत लाभ देने में असमर्थ होते हैं, उनके लिए पुलिस स्टेशन किसी “डरावने कक्ष” से कम नहीं होता. इससे भी बुरी बात यह है कि असली समस्याओं को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे यह संस्थान आम नागरिकों के लिए अप्रभावी बन जाता है.

असफल स्वास्थ्य सेवा प्रणाली

भारत में स्वास्थ्य सेवा नागरिकों के लिए एक और गंभीर हकीकत है. सार्वजनिक अस्पताल, जिनमें बजट की कमी, भीड़भाड़ और अपर्याप्त सुविधाएं हैं, जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने काबिल नहीं हैं. वहीं, निजी अस्पताल मुनाफा कमाने वाली संस्थाओं की तरह काम करते हैं, जहां मरीजों की देखभाल से ज्यादा राजस्व बढ़ाने को प्राथमिकता दी जाती है. ये अस्पताल ऊंची कीमतों पर भी सामान्य सेवाएं देते हैं.

स्वास्थ्य सेवाओं के कमर्शियलाइजेशन ने कई लोगों को समय पर और प्रभावी मेडिकल इलाज से वंचित कर दिया है. जो लोग निजी उपचार का खर्च उठा सकते हैं, वे भी अनियमित कीमतों का सामना करते हैं, जबकि अधिकांश लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की खामियों को झेलने पर मजबूर होते हैं. यहां तक कि सामान्य इलाज के लिए भी लागत इतनी बढ़ गई है कि यह परिवारों पर भारी आर्थिक बोझ डाल देती है, खासकर उन पर जिनके पास पर्याप्त बीमा कवर नहीं है.

देरी हुई और न्याय नहीं मिला

न्यायपालिका, जिसे न्याय की रक्षा का जिम्मा सौंपा गया है, आम आदमी के लिए एक डराने वाली संस्था बन गई है. प्रक्रिया में देरी, अत्यधिक कानूनी खर्च और मामलों की भारी पेंडेंसी के चलते लाखों लोग न्याय की प्रतीक्षा में रहते हैं. “विलंबित न्याय, अन्याय के समान है” एक दर्दनाक सच्चाई बन जाती है, खासकर तब जब मामले अक्सर सालों तक नहीं सुलझते.

इसके अलावा, न्यायपालिका अक्सर अमीर लोगों के पक्ष में दिखती है, जो अच्छे वकील रखने का खर्च उठा सकते हैं. भ्रष्टाचार, नौकरशाही की अक्षम्यताएं और जटिल कानूनी प्रक्रियाएं खुद अपना पक्ष रखने वाले वादियों को हतोत्साहित करती हैं. वकील अक्सर न्याय के बजाय अपने निजी लाभ को प्राथमिकता देते हैं, और कानूनी सहायता प्रणाली, जो मौजूद तो है, गरीबों के लिए वास्तविक सहायता प्रदान करने में विफल रहती है. यह अधिकतर उभरते वकीलों के लिए व्यावसायिक विकास का साधन बन जाती है.

दुर्भाग्यवश, भारत में न्यायपालिका को अक्सर निर्दोषों के उत्पीड़न में सहभागी माना जाता है. राजनीतिक प्रतिशोध यहां तक कि उच्चतम न्यायालयों को भी प्रभावित कर सकते हैं, जिससे सत्तारूढ़ ताकतों के विरोधी न्यायिक पूर्वाग्रह के शिकार हो जाते हैं.

न्यायपालिका की छवि, जिसे निष्पक्षता और न्याय की रक्षा के लिए बनाया गया है, इन चुनौतियों के कारण धूमिल हो जाती है.

न्याय को सुलभ बनाने के लिए क्रांतिकारी सुधारों की आवश्यकता है. कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाना, पारदर्शिता सुनिश्चित करना और वकीलों और अधिकारियों को जवाबदेह ठहराना न्यायपालिका में विश्वास बहाल करने में मदद कर सकता है.

भारत में रहना: आम आदमी के लिए एक संघर्ष

भारत में जीवन कई लोगों के लिए एक कठिन संघर्ष है, जहां सिस्टम की कमज़ोरियों के कारण बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। साफ हवा, पीने का पानी, और अच्छे सफाई के इंतजाम बड़ी संख्या में लोगों के लिए नहीं मिल पाते. महंगाई और बढ़ती खाद्य कीमतें औसत आय से अधिक हैं, जिससे रोटी, कपड़ा, मकान जैसे आवश्यक सामान भी प्राप्त करना मुश्किल हो रहा है. भारतीय रुपया की गिरावट से खरीदारी की क्षमता और भी कमजोर हो रही है, जिससे वित्तीय अस्थिरता बढ़ रही है.

सार्वजनिक सेवाएं भारी करों के बावजूद भी निचले स्तर पर हैं, जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा अब ऐसे क्षेत्र बन गए हैं, जहां पैसे का लाभ सबसे पहले आता है. परिवहन की अक्षमता और उच्च यात्रा लागत रोज़ की परेशानी को बढ़ाती है. खराब कार्य वातावरण और लगातार बेरोजगारी असमानताओं को और ज्यादा बढ़ाते हैं. इन स्पष्ट समस्याओं के बावजूद, सरकार की प्राथमिकताएं कहीं और हैं, जिससे नागरिकों को एक उदासीन प्रणाली से जूझना पड़ रहा है.

आभार की प्रार्थना

साधारण भारतीय के लिए, जीवन कई समस्याओं से भरा हुआ है, जिनसे जूझते हुए पुलिस, अस्पताल और अदालतें सबसे बड़ी मुश्किलें बन जाती हैं. इन संस्थाओं से सामना करने से बचना अक्सर किसी आशीर्वाद से कम नहीं लगता.

हालांकि इन प्रणालीगत समस्याओं को हल करने के लिए सुधार आवश्यक हैं, ये अभी भी दूर की इच्छाएं हैं. फिलहाल, आम आदमी के पास इन संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली पीड़ा का सामना न करने के लिए आभार के अलावा और कुछ नहीं है. जब हम भारत में जीने की कठिनाइयों को स्वीकार करते हैं, तो यह आवश्यक है कि हम ऐसे भविष्य की दिशा में काम करें जहां ये संस्थाएं अपनी निर्धारित भूमिकाएं निभाएं—रक्षा, इलाज और न्याय प्रदान करें. तब तक, इन कठिनाइयों से बचने के लिए आभार ही शायद बहुतों के लिए एकमात्र सांत्वना हो.

कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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