उत्तर प्रदेश में पिछले एक पखवाड़े में दो बड़ी घटनाएं हुईं. पहले सोनभद्र में आदिवासियों की जमीन कब्ज़ा करने गए पास के गांव के मुखिया ने गोलियां चलवा दीं, जिसमें दस लोग मारे गए. फिर, उन्नाव की उस युवती की गाड़ी पर ट्रक चढ़ा दिया गया (चढ़ गया), जिसके बलात्कार का आरोप भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर है. इस घटना में दो लोगों की मौत हो गई और पीड़ित लड़की और उसके वकील की हालत बेहद नाजुक है.
सोनभद्र में विरोध का जिम्मा प्रियंका पर
कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी सोनभद्र पीड़ितों से मिलने जाते हुए हिरासत में ले ली गईं. इससे पहले तक प्रदेश की किसी पार्टी का कोई बड़ा नेता मौके पर नहीं पहुंचा था. समाजवादी पार्टी ने अपना जांच दल भेजा तो था, पर न तो अखिलेश यादव मौके पर गए और न ही लखनऊ में सपा ने कोई बड़ा धरना प्रदर्शन किया. मायावती तो ऐसी घटनाओं में मौके पर कम ही जाती हैं. सोनभद्र की घटना से कांग्रेस और प्रियंका गांधी चर्चा में आ गईं और सपा-बसपा की राजनैतिक जमात ने निंदा की.
दूसरी घटना के समय समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव सतर्क थे. उन्होंने लोकसभा में भी यह मामला उठाया और पीड़ित युवती से मिलने अस्पताल भी गए. इससे पहले तक कोई भूतपूर्व मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री इस पीड़ित युवती से मिलने नहीं गया था. अखिलेश के जाने से पहले समाजवादी पार्टी की छात्र युवा शाखा ने प्रदर्शन भी किया. यह उदाहरण है कि किस तरह मैदान की राजनीति हारते जीतते सीखी जाती है.
अखिलेश यादव की बढ़ती मुश्किलें
अखिलेश यादव के कमान थामने के बाद समाजवादी पार्टी लगातार हार रही है. वे बहुत-सी गलतियां करते रहे हैं, जिनका खामियाजा उन्हें भुगतना भी पड़ा. पर ऐसा लगता है वे अब इन गलतियों से सीख भी रहे हैं. अब लोग उन्हें जुझारू विपक्षी नेता के रूप में देखना चाहते हैं. लोग उनसे उम्मीद कर रहे हैं कि वे सड़क पर भी उतरें तथा जनता के सवालों को उठाएं.
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जब अखिलेश सत्ता में थे तो लैपटाप, मेट्रो और एक्सप्रेस-वे को बड़ा एजेंडा मानकर चल रहे थे. तब मोदी गांव-गांव में रसोई गैस, शौचालय और आयुष्मान योजना को फैला रहे थे. इन योजनाओं पर कितना अमल हुआ, यह विवाद का विषय हो सकता है पर हिंदू राष्ट्रवाद के आवरण में इन जैसी कई योजनाओं की मोदी ने आम लोगों के बीच अच्छे से मार्केटिंग कर ली. मोदी के हिंदू राष्ट्रवाद ने अहीर, कुर्मी, कोइरी से लेकर दलित तक को भाजपा के पाले में कर दिया. जातीय गोलबंदी टूटी और भाजपा ठीक से जीत भी गई.
पार्टी संगठन की अहमियत
यह सब बहुत योजनाबद्ध ढंग से किया गया. दिमाग का भी इस्तेमाल हुआ तो रणनीति के साथ पैसे का भी खूब प्रयोग हुआ. क्षेत्रीय दल भाजपा की रणनीति के आगे नहीं टिक पाए. अखिलेश यादव ने जो काम किए भी वे गांव समाज तक नहीं पहुंच पाए. सिर्फ विज्ञापन से कोई सरकार अपनी योजनाओं का प्रचार नीचे तक नहीं कर पाती. इसके लिए एक बड़ा तंत्र विकसित करना पड़ता है और रणनीति भी बनानी पड़ती है.
ऐसा नहीं कि अखिलेश यादव को इसकी भनक कभी न लगी हो. वर्ष 2016 में अखिलेश यादव बुंदेलखंड में हमीरपुर के एक गांव में किसान की मौत के बाद उसके परिवार वालों को सात लाख रुपए की मदद देने गए. यह राज्य सरकार की योजना थी कि किसान की ख़ुदकुशी जैसे मामले में फसल बीमा योजना के पांच लाख के मुआवजे में दो लाख और जोड़कर सात लाख रुपए किसान के परिवार को दिया जाए. सात लाख रुपए का चेक देते समय अखिलेश यादव ने उस बूढ़ी औरत से पूछा कि क्या वह जानती है कि यह पैसा उन्हें कौन दे रहा है? उस औरत का जवाब था कि ये तो तहसीलदार साहब दिलवा रहे हैं. वह तो न तो मुख्यमंत्री को जानती थी न समाजवादी पार्टी को.
यह घटना बताती है कि अगर आपकी पार्टी का तंत्र नीचे तक नहीं हो तो आपके और आपके काम के बारे में लोगों को पता ही नहीं चल पाता. संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं के तंत्र की बदौलत केंद्र सरकार अपनी योजनाओं को पार्टी और नेता के नाम के साथ नीचे तक पहुंचा पाई. साथ में उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद से भी लोगों को लैस कर दिया.
मुलायम सिंह की अलग कार्यशैली
मुलायम सिंह ने अपने समय में गांवों को लेकर कई योजनाएं शुरू कीं और उसका असर भी वे जानते समझते रहे. जैसे ग्रामीण अंचलों में लड़कियों का स्कूल खुलवाना, उन्हें सरकारी मदद दिलवाना, उर्वरक, सिंचाई से लेकर अस्पताल जैसी सुविधाएं मुहैया करना. वे इस बारे में खोज खबर भी रखते थे और इसके लिए वे लोगों से मिलते-जुलते भी थे. उनका अपना एक तंत्र था, जो जनता की प्रतिक्रियाओं से उन्हें अवगत रखता था. उनके मुकाबले अखिलेश यादव ने मध्य वर्ग को लुभाने वाली योजनाओं पर ज्यादा फोकस किया और वे चर्चा भी इन्हीं की ज्यादा करते रहे. लोहिया आवास योजना की चर्चा उन्होंने न के बराबर की, जिसमें हर घर की लागत तीन लाख रुपये थी. इसमें दो कमरे, बाथरूम और सोलर वाला पंखा भी था. इसी तरह ग्रामीण महिलाओं को पांच सौ रुपए महीने की पेंशन थी. ऐसी और भी योजनाएं थीं, जिसकी न पार्टी ने कोई ज्यादा चर्चा की न ही नेताओं ने.
अखिलेश यादव ने मेट्रो और एक्सप्रेस-वे को चुनावी जीत का मंत्र मान लिया था. ये दोनों योजनाएं गांव कस्बों के लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं रखती थीं. गांव के लोगों को लेकर समाजवादी पार्टी यह मानकर चल रही थी कि पिछड़े और मुस्लिम उसे ही वोट देंगे. इसमें पिछड़े इस बार हिंदू वोटर बन गए.
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हालांकि, गठबंधन का प्रयोग महत्वपूर्ण था, जिसने दोनों दलों की इज्जत बचा ली. लेकिन गठबंधन का पूरा लाभ इन दलों को नहीं मिल पाया. जमीनी स्तर पर दोनों दलों के बीच कोई सामंजस्य नहीं बन पाया, न ही कोई साझा रणनीति बन पाई. कुछ जगहों पर सपा और बसपा के स्थानीय नेताओं की पुरानी अदावत ने भी खेल बिगाड़ा.
अखिलेश यादव के लिए आगे का रास्ता
अखिलेश यादव को अभी बहुत कुछ सीखना भी है. जैसे दिसंबर में जब सैफई महोत्सव होता था, तो वही समय था जब कड़ाके की ठंड से प्रदेश में लोग मरते थे. अख़बार मरने वालों की खबर के साथ सैफई में नाच गाने के कार्यक्रम की खबर को जोड़कर इनके खिलाफ माहौल बनाते थे. सपा ने सैफई महोत्सव बंद कर दिया तो ऐसी नकारात्मक खबरें छपनी बंद हो गईं. मीडिया छवि गढ़ता है तो तोड़ता भी है. जैसे टोंटी चोरी को लेकर मीडिया, खासकर सोशल मीडिया ने सपा मुखिया की छवि ध्वस्त करने का भी प्रयास किया.
इसके अलावा एक समस्या अखिलेश यादव का खुद को पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूरी बनाकर रखना भी है. गोरखपुर के समाजवादी कार्यकर्ता अरुण श्रीवास्तव ने कहा कि आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मिलना आसान है, पर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलना संभव नहीं. मैंने नहीं सुना कि वे कभी लेखकों, कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों के साथ बैठकर किसी मुद्दे पर चर्चा करते हों. देश के सभी बड़े नेता इस तरह का संवाद करते हैं. अखिलेश यादव के लिए यूपी की राजनीति में संभावनाएं हैं. लेकिन रास्ता आसान नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .यह लेख उनका निजी विचार है)