सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ की दिशा में दो बिल संसद में पेश कर चुकी है, ऐसे में सबसे बड़ा सवाल जो सबके दिमाग में है, वह यह है: क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वही कर पाएंगे जो लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी नहीं कर सके?
आखिरकार, ‘एक देश, एक चुनाव’ की वापसी का प्रस्ताव 42 सालों से चल रहा है – सितंबर 1982 से जब भारत निर्वाचन आयोग ने इसे प्रस्तावित किया था.
वाजपेयी ने 2003 तक विपक्ष के साथ इसे बढ़ाने के लिए बातचीत की और फिर आडवाणी ने भी 2010 तक कांग्रेस के नेतृत्व से इसकी चर्चा की. मोदी, जिन्होंने अपने मुख्यमंत्री रहते हुए ‘एक देश, एक चुनाव’ का समर्थन किया था, अब इस मामले में गंभीर नजर आ रहे हैं. यह इन दो बिलों से स्पष्ट है.
पीएम मोदी के शब्द और ‘एक देश, एक चुनाव’
यहां कुछ लोग सवाल खड़ा कर सकते हैं: क्या मतलब है अब ‘गंभीर’ नज़र आ रहे हैं?
क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस प्रक्रिया को शुरू करने में नौ साल से ज्यादा समय लग गया, जब उन्होंने सितंबर 2023 में रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति बनाई. पीएम मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दिखाने के कई मौकों को खो दिया. मिसाल के तौर पर, वे 2022 में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में एक साथ विधानसभा चुनाव करवा सकते थे – दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार थी. 2024 में हरियाणा और महाराष्ट्र के लिए भी यह कदम उठाया जा सकता था, क्योंकि ये दोनों राज्य 21 अक्टूबर 2019 को एक साथ चुनाव में गए थे.
इसके अलावा, प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा चुनाव को कुछ महीने पहले भी करवा सकते थे, ताकि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनावों को नवंबर 2023 में साथ मिलाया जा सके. या फिर, NDA-शासित महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा को कुछ महीने पहले भंग करवा सकते थे ताकि उनका चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के साथ करवा लिया जाता. बीजेपी के लिए केंद्र या कुछ राज्यों में छह महीने की सत्ता का त्याग इतना बड़ा जोखिम नहीं होता.
इससे पीएम मोदी को ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर नैतिक तौर ऐसी ऊंचाई पर आ जाते कि विपक्ष दबाव में आ जाता और संभव है कि समर्पण कर देता. लेकिन मोदी ने ऐसा कुछ नहीं किया.
इसके अलावा, अगर पीएम मोदी को ‘एक देश, एक चुनाव’ इतना राष्ट्रीय हित में लगता है, तो उन्होंने इसके लागू होने के लिए 2034 क्यों तय किया, जैसा कि कोविंद-नेतृत्त्व वाली समिति ने सुझाव दिया है? इसे लागू करने का तरीका क्यों नहीं तैयार करते जब तक आप सत्ता में हैं? क्यों इतने बड़े कदम को अपने उत्तराधिकारी पर छोड़ रहे हैं?
यह ठीक वैसे ही है जैसे लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के आरक्षण के साथ है. जब तक वह सत्ता में हैं, यह लागू नहीं होगा. क्योंकि इसे जनगणना और सीमांकन प्रक्रिया से जोड़ा गया है. कोई नहीं जानता कि जनगणना कब होगी और क्या 2029 के आम चुनावों से पहले सीमांकन होगा या नहीं, खासतौर से दक्षिणी राज्यों के विरोध के कारण — जिसमें बीजेपी की अहम सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी भी शामिल है, जो जनसंख्या को इसके आधार के रूप में मानने का विरोध करती है.
पीएम मोदी ने राजनीति में पितृसत्ता के खिलाफ एक और संभावित विवादास्पद कदम अपने उत्तराधिकारी पर छोड़ दिया है.
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‘एक देश, एक चुनाव’ पर सरकार का कदम
‘एक देश, एक चुनाव’ पर लौटते हैं, ये दो ड्राफ्ट बिल इस समय बस एक ट्रायल जैसे लगते हैं. इनमें से एक संवैधानिक संशोधन है. NDA के पास इतने सांसद नहीं हैं कि इसे पास करा सके. इसलिए इसे एक संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजने का फैसला किया गया है. इसका उद्देश्य सिर्फ प्रक्रिया की शुरुआत करना और सही समय का इंतजार करना है, ताकि इसे लागू किया जा सके. लेकिन इन दो बिलों से ‘एक देश, एक चुनाव’ लागू नहीं हो सकता. इसके लिए और संवैधानिक संशोधन लाने होंगे, जिनमें कुछ को राज्यों से मंजूरी भी चाहिए. अगर विपक्ष इन बिलों को रोकने में सफल हो जाता है, तो भी कोई बात नहीं. पीएम मोदी के पास विपक्ष के खिलाफ बोलने के लिए एक और मुद्दा होगा. और अगर अमित शाह अपनी जादुई छड़ी से विपक्ष को तोड़ने में सफल हो जाते हैं, तो फिर क्या बात है. इस स्थिति में मौजूदा नेतृत्व इसका श्रेय ले लेगा, और इसके लागू करने की जटिलताएं उनके उत्तराधिकारी संभालेंगे.
‘एक देश, एक चुनाव’ नागरिकों के लिए बुरा क्यों है?
‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थक और विरोधी दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन कोई भी उस मुद्दे पर चर्चा नहीं कर रहा है जो बहुत अहम है, यानी नागरिकों के अधिकारों के बारे में क्या होगा. क्या चुनावों का समय एक साथ करने से जो आर्थिक फायदे दिखाए जा रहे हैं, वे नागरिकों के अधिकारों और अवसरों की बलि देने के लायक हैं? अगर नेताओं को पांच साल का सुरक्षित कार्यकाल मिल जाए, तो देखिए वे अगले चार सालों तक अपने वोटरों से कैसे मुंह मोड़ लेते हैं.
2016 में नोटबंदी की मिसाल लें. जब लाखों लोग बैंकों के बाहर लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, तो सरकार को जल्दी में आकर उनकी समस्याओं को हल करना पड़ा. ऐसा इसलिए था क्योंकि दो महीने बाद पांच राज्यों में चुनाव होने थे. इसी तरह, 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद, जब कुछ लोगों ने असंतोष और गुस्सा जताया, तो सरकार को जल्दी-जल्दी कदम उठाने पड़े, क्योंकि कुछ महीने बाद हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव थे.
मैं यहां नोटबंदी और जीएसटी के फायदे या नुकसान की चर्चा नहीं कर रहा हूं, या यह कि चुनावों में किस पार्टी को फायदा हुआ और किसे नुकसान. मेरा तात्पर्य यह है कि ‘एक देश, कई चुनाव’ से नागरिकों को यह अवसर मिलता है कि वे नेताओं और उनकी पार्टियों को बार-बार सबक सिखा सकें अगर वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरें. यही तरीका है जिससे लोग उनकी नीतियों और राजनीति का मूल्यांकन करते हैं और शासन में अपनी भागेदारी सुनिश्चित करें. अगर नेताओं को हर पांच साल में एक बार ही लोगों के पास आना पड़े, तो वे जवाबदेही को भूल जाएंगे. यही वजह है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ एक बुरा विचार है.
‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में दो मुख्य तर्क दिए जाते हैं. पहला, यह चुनावों के बार-बार होने से होने वाली अनावश्यक खर्चों को बचाएगा और दूसरा, यह जीडीपी वृद्धि को बढ़ावा देगा, जो कि बार-बार चुनाव आचार संहिता (MCC) के लागू होने के कारण प्रभावित होती है. लेकिन सच यह है कि न तो सरकार और न ही कोविंद समिति ने समान चुनावों से बचने वाली खर्चों का कोई विस्तृत ब्यौरा दिया है. समिति ने भारतीय चुनाव आयोग का हवाला देते हुए समान चुनावों की लागत को 4,500 करोड़ रुपये बताया है. अलग-अलग चुनावों की लागत कितनी है, इसकी कोई स्पष्टता नहीं है.
यह आंकड़ा 2015 में एक संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में आया था. 2017 में नीति आयोग के बिबेक देबरोय और किशोर देसाई ने 2014 में चुनाव की लागत 3,870 करोड़ रुपये बताई थी.
अगर आप समान और अलग चुनावों की लागत को एक दशक पहले के आंकड़ों से जोड़ें, तो अंतर 800 करोड़ रुपये का होगा. क्या 800 करोड़ रुपये हमारे जैसे देश के लिए इतनी बड़ी रक़म है कि नागरिकों के अधिकारों का बलिदान कर दिया जाए, वो अधिकार जिससे वह नेताओं को नियमित अंतराल पर पुरस्कृत या दंडित करते हैं?
2015 में चुनाव आयोग ने बताया था कि समान चुनाव कराने के लिए अतिरिक्त EVM (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) और पेपर-ट्रेल मशीनों की खरीद पर 9,300 करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह एक बार का खर्च नहीं है, क्योंकि एक EVM की उम्र सिर्फ 15 साल होती है, यानी हर चुनाव पर औसतन 3,100 करोड़ रुपये का खर्च आएगा. अगर इसे ध्यान में रखा जाए, तो समान चुनावों के खर्च और लाभ का हिसाब और भी गड़बड़ दिखाता है.
हमारे पास 2019 के लोकसभा चुनाव और 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों की कुल लागत के बारे में कोई आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं, जो हमें खर्चों के हिसाब से इस लागत-लाभ विश्लेषण को समझने में मदद कर सकें. और, ज़ाहिर है, हमारे पास यह आंकड़े भी नहीं हैं कि आज के समय में समान चुनावों से हमें कितनी बचत होगी. यह सब सिर्फ मेरी बात बनाम आपकी बात जैसा हो गया है.
कोविंद-नेतृत्व वाली समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि समान चुनाव GDP वृद्धि को बढ़ावा देंगे. यह सुझाव दिया गया है कि बार-बार चुनावों की वजह से सरकार राजस्व खर्च (जैसे मुफ्त सुविधाएं) बढ़ाती है, जबकि पूंजीगत खर्चों पर ध्यान नहीं देती. यह तर्क सही है, लेकिन आज हर पार्टी ‘रेवड़ी’ (मुफ्त सुविधाएं) का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रही है. क्या उन्हें हर पांच साल में इसे एक दूसरे ही स्तर पर बढ़ाने से कोई रोक सकता है? यह वैसे ही है जैसे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण यह तर्क देती हैं कि जुलाई-सितंबर 2024 के दौरान GDP वृद्धि में सात तिमाही का सबसे निचला स्तर चुनावों की वजह से था, क्योंकि पूंजीगत खर्चों पर ध्यान नहीं दिया गया था. इस तर्क के बारे में क्या कह सकते हैं? अगर हम उनके तर्क को मानें, तो यह Q1 तक ही सीमित होना चाहिए था. क्या यह चुनाव का असर था जिससे दूसरी तिमाही में विकास दर धीमी हो गई?
एक और तर्क है कि चुनावी आचार संहिता (MCC) शासन में रुकावट डालती है. लेकिन सच तो यह है कि यहां कोई भी सरकार को अपनी योजनाओं और खर्चों को लागू करने से नहीं रोकती.
हां, अगर पूरी सरकार चुनावों में व्यस्त हो जाए, तो शासन प्रभावित हो ही जाता है. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और अन्य मंत्री को हर विधानसभा से नगरपालिका चुनाव तक प्रचार करने की जरूरत है क्या? अगर आचार संहिता समस्या है, तो इसे कम समय के लिए लागू किया जा सकता है, या फिर इसे खत्म भी किया जा सकता है, क्योंकि वैसे भी अब यह प्रभावी नहीं रही है.
विपक्ष और ‘मोदी फोबिया’
आइए, विपक्ष के ‘एक देश, एक चुनाव’ के खिलाफ रुख पर नज़र डालते हैं. वे संघीय सिद्धांतों, लोगों की इच्छा के उल्लंघन, और क्षेत्रीय मुद्दों के राष्ट्रीय मुद्दों में समाहित हो जाने जैसे तर्क प्रस्तुत करते हैं. आप हमेशा इनके तर्कों के फायदे और नुकसान पर बहस कर सकते हैं.
चलिए, मैं आखिरी बात से शुरू करता हूं क्योंकि कई क्षेत्रीय पार्टियां इसे बीजेपी की एक साजिश मानती हैं, जिसका मकसद उनका फायदा छीनना है. असल में, ममता बनर्जी ने बार-बार बीजेपी को हराया है, जो पश्चिम बंगाल में मोदी को चेहरा बनाकर और राष्ट्रीय मुद्दों के साथ हर एक चुनाव लड़ती है. अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में बीजेपी के हमलों का विधानसभा चुनावों में सफलतापूर्वक मुकाबला किया है. हेमंत सोरेन ने भी हाल ही में झारखंड में यही किया. और हम तो दक्षिण भारत के क्षेत्रीय पार्टियों की बात भी नहीं कर रहे.
फिर भी, उनकी चिंताएं पूरी तरह गलत नहीं हैं. देखिए, कैसे ‘मोदी लहर’ ने बीजेपी-एनडीए को एक समय 21 राज्यों में सत्ता में ला दिया था. लेकिन मोदी जैसी लहर बहुत कम ही आती है.
आमतौर पर चुनावों में, हम देख चुके हैं कि लोग राष्ट्रीय और विधानसभा चुनावों को अलग-अलग देखने लगे हैं और अलग-अलग वोट देते हैं. ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि वे समन्वित चुनावों में भी ऐसा ही करेंगे.
विपक्ष का एक बड़ा डर है, जो वे खुलकर नहीं कहते—यह डर है कि ‘मोदी लहर’ बीजेपी को बहुत फायदा दे सकती है, जिससे वह सभी चुनाव जीत सकती है और विपक्ष को कम से कम पांच साल तक बेरोजगार कर सकती है. चूंकि कोविंद समिति ने 2034 तक इस सिस्टम को लागू करने का सुझाव दिया है, इसलिए विपक्ष को मोदी फोबिया छोड़ देना चाहिए—जब तक कि भविष्य में कोई और बीजेपी नेता ऐसा असर न डाल सके.
मान लीजिए अगर 2024 में एक साथ चुनाव हो रहे होते, तो शायद विपक्ष आज उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, और हरियाणा जैसे राज्यों में सत्ता में होता, है ना? और वह भी मोदी को बीजेपी का चेहरा मानकर. खैर, यह उनके लिए सकारात्मक बने रहने का एक अच्छा कारण होना चाहिए. उन्हें ‘मोदी फोबिया’ के कारण नहीं, बल्कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ का विरोध करना चाहिए. उनका विरोध इस बात के लिए होना चाहिए कि लोग अपने नेताओं को नियमित रूप से चुनावों के जरिए जवाबदेह बना सकें.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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