हम वाशिंगटन डीसी में सुबह होने का सांस रोके इंतजार करते हैं ये देखने के लिए कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप आगे क्या करेंगे. क्या वह अपने दावे को आगे बढ़ाएंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता करने के लिए कहा था? क्या वह इस बात पर गुस्सा जताएंगे कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने उनको टैग करते हुए, फिर उसी बात को संसद में दोहरा कर, उन्हें एक तरह से झूठा करार दिया है.
We have seen @POTUS's remarks to the press that he is ready to mediate, if requested by India & Pakistan, on Kashmir issue. No such request has been made by PM @narendramodi to US President. It has been India's consistent position…1/2
— Raveesh Kumar (@MEAIndia) July 22, 2019
हमने प्रेस में अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान को देखा है कि यदि भारत और पाकिस्तान आग्रह करे, तो वह कश्मीर मसले पर मध्यस्थता के लिए तैयार हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति से ऐसा कोई आग्रह नहीं किया है. यह भारत की स्थापित राय है.
हमारे लिए दो बातें तो बिल्कुल स्पष्ट हैं: पहली बात, अगला कोई विवाद सामने आते ही यह प्रकरण पृष्ठभूमि में चला जाएगा और दूसरी बात, इज़रायल, सऊदी अरब और क़तर के सिवाय किसी भी देश के पास ट्रंप से निपटने का कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है. ये भी स्पष्ट है कि मोदी ने ट्रंप या किसी अन्य बाहरी मध्यस्थ से द्विपक्षीय मसलों में हस्तक्षेप का आग्रह कभी नहीं किया है. मोदी नियमानुसार चलने वालों में से हैं और अपने नौकरशाहों द्वारा तैयार ब्रीफ का पूरी तरह पालन करते हैं. ट्रंप भी कहीं से बुद्धू नहीं हैं, भले ही डेमोक्रेट्स आपसे ऐसा मानने की अपेक्षा करते हों. ट्रंप को बुद्धू मानना सबसे बड़ी भूल होगी, पर ये बात 2016 राष्ट्रपति चुनाव में मुंह की खाने के बाद भी डेमोक्रेट्स को समझ में नहीं आई है.
इसलिए, इस बात में संदेह नहीं कि ट्रंप झूठ बोल रहे हैं (मोदी ने क्या कहा या नहीं कहा, ये समझने में उनसे कोई भूल नहीं हुई है, वह जानबूझ कर झूठ बोल रहे हैं). सवाल है क्यों? उन्होंने क्या कहा हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए (भारतीय अभी यही कर रहे हैं), बल्कि ‘क्यों’ कहा इस पर विचार करना चाहिए. मैंने वृहत कारणों की यहां चर्चा की है, पर हमें अब ये समझने की ज़रूरत है कि यह प्रकरण आगे क्या रूप लेगा.
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हमें इस बात पर संदेह नहीं करना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ रखी है और ये भारत का जाना-पहचाना रवैया है कि हम स्वदेश में शुतुरमुर्ग की तरह व्यवहार करते हैं और विदेशों में पीड़ित की तरह. वास्तव में, घरेलू नीतियों को लेकर हमारी विफलता के चलते हमारे राजनयिकों के पास बहुत कम विकल्प रह जाता है. जिनमें से व्यवहार्य कोई भी नहीं है. पर इस बात को माफ नहीं किया जा सकता है कि या तो वे समय रहते संकेतों को पहचानने में नाकाम रहे या फिर शीर्ष स्तर पर उनकी बात नहीं सुनी गई.
बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल (2012-16) से ही अमेरिका के भारत से ऊबने के लक्षण स्पष्टतर होते जा रहे हैं, अब मामला पेटेंट का हो या कोई अन्य मामला. ट्रंप ने बस इस ऊब को अधिक स्पष्ट करने और उसके असर को तेज़ करने का काम किया. सबसे पहले, उन्होंने पूर्वव्यस्तता का बहाना कर गणतंत्र दिवस समारोहों के लिए भारत आने से मना किया उनके भारत के आमंत्रण को ठुकराने में महीने भर का समय लगाने से साफ है कि बात पहले से तय प्रतिबद्धताओं की नहीं, बल्कि दूसरी उच्चतर प्राथमिकताओं की थी.
वह सऊदी अरब गए और सऊदियों से अपनी नफरत को मानो अचानक भूल गए. सऊदियों को तत्काल प्रभाव से हथियारों की खरीद का 110 अरब डॉलर का समझौता करना पड़ा. साथ ही सऊदी अरब ने अगले 10 वर्षों में अमेरिका से कुल 350 अरब डॉलर की खरीदारी की प्रतिबद्धतता जताई. इसके बाद ट्रंप ने क़तर को निशाने पर लिया, ये कहते हुए कि वह ‘बड़े ऊंचे स्तर पर आतंकवाद का वित्तपोषण कर रहा है.’ क़तरियों को आसन्न संकट को टालने के लिए कुछ महीनों के भीतर अरबों डॉलर के सौदे की प्रतिबद्धता जतानी पड़ी, हथियारों की खरीद में या तेलशोधन में. इन तीनों घटनाओं– भारत के आमंत्रण को ठुकराना, सऊदी अरब का दौरा, और क़तर को पहले निशाने पर लेना और फिर उसे छोड़ना. इसके बाद भारत को सतर्क हो जाना चाहिए था.
इसके बावजूद, भारत ने क्या किया? इसने इवांका ट्रंप को एक लीडरशिप सम्मेलन में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. भारत की ये सोच कि खाली तारीफों से वह एक राष्ट्रपति को खुश कर देगा, स्पष्ट कर देती है कि हम अपने आकलन में कितना गलत रहे हैं. फिर भी, हम कोई सीख लेने को तैयार नहीं हैं. दोनों देशों रक्षा और विदेश मंत्रियों की आरंभिक 2+2 बैठक को जाहिर तौर पर स्थगित किया गया था, एक बार फिर पूर्व की प्रतिबद्धताओं के नाम पर.
इसके बाद, 2+2 को जारी रखने के उद्देश्य से, भारत अमेरिका के साथ कॉमकासा और लेमोआ समझौते करने पर बाध्य होता है. लेकिन एक बार फिर, इन बुनियादी समझौतों से अमेरिका को कोई ठोस फायदा नहीं हुआ. इसी कारण हमें एक बार फिर सीमा शुल्क को लेकर भारत के खिलाफ ट्रंप का ट्वीट देखने को मिला. पहली बार उन्होंने 2017 के अपने स्टेट ऑफ द यूनियन भाषण में हार्ले-डेविडसन बाइकों पर भारत के सीमा शुल्क का मामला उठाया था.
India has long had a field day putting Tariffs on American products. No longer acceptable!
— Donald J. Trump (@realDonaldTrump) July 9, 2019
भारत लंबे समय से अमेरिकी उत्पादों पर मनमाना शुल्क लगाता रहा है. अब ये स्वीकार्य नहीं है.
इस बीच, ट्रंप ने कश्मीर पर रूस के अत्यंत प्रतिकूल बयान को देखा, जिस पर स्पष्टतया रूसी शीर्ष नेतृत्व की सहमति रही होगी. भारत में रूस के पूर्व राजदूत व्याचेस्लाव त्रुब्निकोव, जो अफ़ग़ानिस्तान मामलों के मुख्य रूसी प्रतिनिधि ज़मीर कबुलोफ़ के करीबी हैं, ने कहा था कि ‘अफगानिस्तान का समाधान कश्मीर में निहित है.’ इस पर विरोध जताना तो दूर, भारत ने रूस के साथ एस-400 वायु रक्षा प्रणाली और अकुला श्रेणी की दूसरी पनडुब्बी की खरीद का करीब 9 अरब डॉलर का सौदा कर डाला. इसकी तुलना आप पाकिस्तान से करके देखें. पाकिस्तान ट्रंप को अफ़ग़ानिस्तान मामले में बहुत कम रियायत दे सकता है, पर उसका अमेरिका में ज़रूरत से ज़्यादा राजनीतिक प्रभाव दिखेगा (पाकिस्तान इस बात को अच्छे से समझता है). रूस और ईरान के बिदकने के बाद अफगानिस्तान के लिए एकमात्र आपूर्ति रूट रह गए पाकिस्तान को ट्रंप के पास और कोई विकल्प नहीं होने का अहसास है.
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इन सबसे ट्रंप को क्या संकेत जाता होगा? टैरिफ़ पर ट्वीट करें, आपको कुछ नहीं मिलेगा, हम आपसे और इवांका से मीठी बातें करेंगे. पर आप कश्मीर जैसे हमारे बुनियादी हितों को लेकर हमें निशाना बनाएं जैसा त्रुब्निकोव ने किया, खुल कर भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाएं जैसा काबुलोव ने किया और आपसे 9 अरब डॉलर का सौदा किया जाएगा. साफ है ट्रंप ने इस संदेश को आत्मसात किया है. अंतत: एक ही निष्कर्ष निकलता है कि इस स्थिति में पहुंचने के लिए भारत खुद ही जिम्मेवार है. इसे चेतावनी के संकेतों को पढ़ना चाहिए था. इसने ऐसा नहीं किया. इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्रंप का ताज़ा बयान कीमत वसूलने के उद्देश्य से दिया गया है. कीमत कितनी बड़ी होगी, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि ट्रंप किस पर विश्वास करते हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था की सच्चाई पर या मोदी के बढ़ा-चढ़ा कर किए प्रचार पर. आखिर में, संभव है मोदी को खुद अपने ही सफल मार्केटिंग अभियान का शिकार बनना पड़े.
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval से ट्वीट करते हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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