खालिद अहमद को 81 साल की उम्र में कैंसर ने हम सबसे छीन लिया. यह पाकिस्तान ही नहीं, इस पूरे उप-महादेश के लिए एक बड़ा नुकसान है. वे एक दुर्लभ संपादक, लेखक, भाषाविद, अखबार के दफ्तर के रहनुमा थे. वे तमाम दिखावों से मुक्त एक ऐसे सेकुलर उदारवादी थे, जिन्हें इसके लिए किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं थी और जिसे हमारे इस क्षेत्र की सार्वजनिक बहसों में एक पीढ़ी के अंदर कभी-कभार ही उभरते हुए देखा गया है. मसलन, अगर आप उनसे एक भारतीय बनकर कोई बहस करते या उनसे असहमति ज़ाहिर करते हैं तो वे इस तरह का कोई बयान देकर बहस को खत्म करने की कोशिश नहीं करते कि “लेकिन कश्मीर के बारे में आप क्या कहेंगे?”
खालिद ने जो विशद लेखन किया है — वह चार किताबों और अंग्रेज़ी एवं उर्दू में लिखे उनके हज़ारों कॉलमों के रूप में दुनियाभर को वेब पर उपलब्ध है. उनका यह विपुल लेखन साबित करता है कि उन्हें संकीर्ण सोच वाला या विभाजनकारी तो नहीं ही कहा जा सकता है. उन्हें कभी आप “उसका क्या?” जुमले का इस्तेमाल करते नहीं पा सकते हैं. उनका सबसे मूल्यवान मगर कम चर्चित काम विभिन्न भाषाओं में शब्दों की साझा उत्पत्ति के सूत्रों की खोज है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित उनकी किताब ‘Stories Behind Everyday Words We Use’ में आप शब्दों के बारे में उनकी खोज से रूबरू हो सकते हैं.
एक दोस्त और कभी-कभी बहस करने वाले साथी के रूप में उनका करीबी साथ मेरे लिए एक सम्मान की बात थी. मैं जितने पाकिस्तानियों को जानता हूं उनमें वे सबसे बुद्धिमान शख्स थे. उनके कई फैन भी यह मानेंगे. इसलिए उनका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है.
खालिद से मेरे परिचय को ऐसे संयोगों में गिना जा सकता है जिनका ज़िक्र आप अपने संस्मरण में या गाहे-ब-गाहे के लेखन में करना पसंद करेंगे, जैसा कि मैं अपने कॉलम ‘फर्स्ट पर्सन/सेकंड ड्राफ्ट’ की इस पहली किश्त में कर रहा हूं. खद्दर की सलवार-कमीज़ पहने पठान जैसे इस सांवले शख्स को सबसे पहले मैंने बोस्टन पार्क प्लाज़ा होटल के एलिवेटर में देखा था. हमने एक-दूसरे को अपना परिचय दिया. मैं जिस पाकिस्तानी से सबसे पहले मिला था वह खालिद ही थे. वे काफी बुज़ुर्ग लग रहे थे, आखिर वे विदेश सेवा में काफी अरसे तक रहे थे मगर इस सेवा से वे नफरत करते थे. बाद में जब उन्होंने हमारे लिए एक कॉलम लिखा तो हमें हिदायत दी कि हम इस बात का ज़िक्र न करें कि वे विदेश सेवा में थे और मॉस्को में पाकिस्तानी दूतावास में भी तैनात किए गए थे.
खालिद एक सच्चे, दुर्लभ सेकुलर अनीश्वरवादी और शायद नास्तिक थे और मेरे कई मुस्लिम मित्रों में निश्चित रूप से अकेले ऐसे शख्स थे और, वे कोई वामपंथी भी नहीं थे दूर-दूर तक भी नहीं
जब मैं उनसे मिला था तब वे ‘पाकिस्तान टाइम्स’ में बड़े ओहदे पर काम कर रहे थे. हम दोनों अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़पेपर एडिटर्स (एएसएनई) के छह सप्ताह के एक कार्यक्रम में फेलो थे. शुरू में हम दोनों एक हफ्ते के लिए फ्लेचर स्कूल में फेलोज़ के बहुराष्ट्रीय समूह में साथ-साथ शामिल थे. इसके बाद हम सभी में से हर-एक को चार सप्ताह के लिए अलग-अलग अखबारों के साथ जोड़ दिया गया था. खालिद को ‘क्रिश्चियन साइंस मॉनिटर’ में भेज दिया गया था. मुझे ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ से जोड़ा गया.
सबसे आगे सोचने वाला शख्स
हम दोनों अपने-अपने देश से पिछली शाम बोस्टन पहुंचे थे, ‘जेट लैग’ से ग्रस्त होने के बावजूद हम बोस्टन की सुबह के छह बजे पूरी तरह जगे हुए थे. उन दिनों मैंने सुबह में दौड़ लगाना बड़े उत्साह से शुरू ही किया था इसलिए मैं बड़े पार्क की तरफ जा रहा था. खालिद अनमने ढंग से मेरे साथ वॉक करने आ गए थे. वैसे, वे होटल के लाउंज में कॉफी की चुस्की लेते हुए ‘बोस्टन ग्लोब’ अखबार पढ़ना पसंद करते.
उन दिनों मैं दुनिया को जितना जानता था उससे ज्यादा वे उसे जानते थे. हम अपने-अपने देश में भ्रष्टाचार, कुशासन, नाइंसाफी आदि पर बातें करते थे. मैंने सहज रूप से कहा, “हम क्या करें…हमारे सारे नेता इतने भ्रष्ट हैं!” इस पर उन्होंने जो जवाब दिया उससे ही मुझे पता चल गया कि उनकी सोच कितनी अलग थी.
उन्होंने कहा, “गलत कह रहे हो दोस्त. हमारे आवाम करप्ट हैं, हुक़्मरान नहीं.” उस समय मुझे यह जवाब थोड़ा अजीब लगा था, यहां तक कि मैंने इसे तानाशाही (वह ज़िया-उल-हक का ज़माना था) झेल रहे एक पाकिस्तानी शख्स की हताशा तक मान लिया था. ज़िंदगी में और बहुत कुछ देखने के बाद मुझे समझ में आया कि वे क्या कहना चाहते थे. कई चीज़ों को बतौर पत्रकार मैंने सैकड़ों बार देखा तब मुझे उनके उस जवाब का अर्थ समझ में आता रहा, चाहे वह मुफ्त में मिली सुविधाओं, टैक्स माफी (कुछ इलाकों में ‘टोल प्लाज़ा पर कब्ज़ा’ लोगों का शगल बन गया है) के बदले वोट देने का मामला हो या ‘सुविधा शुल्क’ देकर फायदे उठाने का या उन नेताओं को कोसने का, जो सिस्टम के साथ खिलवाड़ को रोकने की व्यवस्था करते हैं. अगर लोग लेन-देन में विश्वास करते हैं, तब नेता भी बाज़ार की मांग के मुताबिक काम करते हैं.
गलत कह रहे हो दोस्त. हमारे आवाम करप्ट हैं, हुक्मरान नहीं
अगले साल (1985) की गर्मियों में जब मैं पहली बार पाकिस्तान गया तब मेरे पास केवल खालिद का फोन नंबर था. मुझे केवल उन सिख अपहर्ताओं के मुकदमे की खबर भेजने के लिए वीज़ा दिया गया था जो इंडियन एयरलाइन्स के एक विमान का अपहरण करके उसे लाहौर ले गए थे. खालिद और उस समय उनकी पत्नी, कुशल मनोचिकित्सक डॉ. दर्रे समीन अहमद शाम में मुझसे मिलने उस होटल में आए जिसे उस समय अवरी हिल्टन नाम से जाना जाता था. खालिद ने मुझे चेताया कि इस होटल का कमरा रोज़ाना मिलने वाले मेरे भत्ते को खा जाएगा, इसलिए “अपना सामान बांधो दोस्त और हमारे घर चलो.” इसके अलावा, मुझे अपने साथ रखकर उन्हें अच्छा लगेगा. उनकी शादी ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन बाद के दशकों में उन दोनों के साथ मेरी दोस्ती पक्की होती गई.
बतौर रिपोर्टर मैं अक्सर पाकिस्तान जाने लगा था और खालिद भी सम्मेलनों में शरीक होने भारत आते रहे. कितनी पारखी थी उनकी नजर! भारत के अपने पहले दौरे में ही उन्होंने दुर्गा पूजा के जुलूसों और कुछ पंडालों पर गौर किया. उन्होंने कहा, “शेरां वाली माता की पूजा पर गौर करो. तुम्हारा हिंदू धर्म बदल रहा है. इस पर और राजनीतिक रंग चढ़ जाएगा. हमारे उग्र इस्लाम की तरह नहीं, बल्कि ज्यादा राष्ट्रवादी, ज्यादा गुस्सैल, और कम मेहरबान.” खालिद ने 1986 में ही यह देख लिया था कि भारत की राजनीति किस दिशा में जा रही है.
कई वर्षों बाद एक बातचीत के दौरान खालिद ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे भारत में डॉ. ज़ाकिर नायक नामक शख्स के बारे में कुछ मालूम है? उन्हें यह जान कर हैरानी हुई कि मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था. उन्होंने कहा, “गलती कर रहे हो. जाके देखो उसके वीडियो?” उन्होंने कहा कि नायक इस उप-महादेश ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में टीवी पर इस्लाम का सबसे ताकतवर और लोकप्रिय प्रचारक बन गया है. उन्होंने कहा कि जल्दी ही वह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो जाएगा, जो कि खतरनाक होगा. इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि वह अंग्रेज़ी में बोलता है और अपने ज़हरीले विचार हमेशा मुस्कराते हुए मीठी ज़बान से बोलता है.
शेरां वाली माता की पूजा पर गौर करो. तुम्हारा हिंदू धर्म बदल रहा है. इस पर और राजनीतिक रंग चढ़ जाएगा. हमारे उग्र इस्लाम की तरह नहीं, बल्कि ज्यादा राष्ट्रवादी, ज्यादा गुस्सैल और कम मेहरबान
इसका प्रमाण नायक के हाल के पाकिस्तान दौरे में भी मिला, जब उन्हें केवल इस बात के लिए खीजते देखा गया कि पीआईए ने उनके 50 या जितने भी रहे हों, सूटकेसों के लिए पैसे क्यों वसूले. मेरी दिलचस्पी उनमें जागी और मैंने जल्दी ही उन्हें अपने ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में बुलाया. मैं स्वीकार करूंगा कि वे इतने चतुर थे कि उन्हें घेरना मुश्किल था. वे अपने श्रोताओं/दर्शकों के मुताबिक, अपना भाषण देते हैं — भक्तों को खुश करने के लिए भी, बाकी लोगों को भी खुश करने के लिए.
खालिद ने कहा था, “उन पर गहरी निगाह रखना. दुनिया भर के तथा खासकर इस उप-महादेश के मुसलमानों को वे और भी कट्टरपंथी बनाएंगे और उनकी तकलीफ और बढ़ाएंगे और वे उन कई खतरनाक ताकतों को बढ़ावा देंगे जिनके बारे में आज हम सोच भी नहीं सकते.” यह सब उन्होंने तब कहा था जब भारत में किसी ने नायक को उस नज़र से नहीं देखा था. इतने बुद्धिमान थे खालिद.
ज़ाकिर नायक पर निगाह रखना. दुनिया भर के तथा खासकर इस उप-महादेश के मुसलमानों को वे और भी कट्टरपंथी बनाकर उनकी तकलीफ और बढ़ाएंगे और वे उन कई खतरनाक ताकतों को बढ़ावा देंगे जिनके बारे में आज हम सोच भी नहीं सकते
खालिद और पैसे के साथ उनका रिश्ता
खालिद को पैसे का मामला बेशक समझ में नहीं आता था. माजिद खान (पूर्व क्रिकेट कप्तान) और इमरान खान सहित पाकिस्तान के विख्यात तीन चचेरे भाइयों में शुमार खालिद लाहौर में पेड़ों से भरे ज़मान पार्क इलाके में तीन बड़ी कोठियों में से एक के मालिक हैं, लेकिन उनकी इस कोठी की मार्के की बात उसका आकार, किताबें, और अस्तव्यस्तता है. और पैसा?
जब मैंने उनसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में कॉलम लिखने के लिए मनाया था तो उन्होंने शर्त रखी कि उन्हें हर एक कॉलम के लिए 25 हज़ार पाकिस्तानी रुपये दिए जाएं. वे ऐसा कोई काम करने से बचना चाहते थे इसलिए सोचते थे कि इतनी बड़ी रकम सुनकर मैं पीछे हट जाऊंगा. मैंने उनसे कहा कि आप बड़े नादान हैं, पाकिस्तानी रुपया तेज़ी से गिर रहा है. उन्हें तो डॉलर में, प्रति कॉलम 300 डॉलर की मांग (बेशक भारतीय रिजर्व बैंक राज़ी हो तब) करनी चाहिए, जो उस समय 25 हज़ार पाकिस्तानी रुपये के बराबर थे. आज अगर वे 25 हज़ार पाकिस्तानी रुपये पर लिख रहे होते तो उन्हें 100 डॉलर से भी कम मिलते.
पाकिस्तानी सत्तातंत्र उनको लेकर हमेशा उलझन में रहा. अपमानजनक, विवादास्पद, या बागी होना तो दूर, वे किसी भी तरह से थोड़े भी खतरनाक नहीं थे, चाहे वे सामान्य से ऊपर स्तर के ‘आध्यात्मिक’ धरातल पर भी क्यों न रहे हों. अगर आप उनके अभिलेखों को देखें तो पाएंगे कि उन्हें बारीकी की खत्म होती कला में महारत हासिल थी.
खालिद बेहद सख्त संदेश भी ऐसी भाषा में दे सकते थे जिसके कारण पाकिस्तान में उनके खिलाफ कोई एफआइआर नहीं दाखिल कर सकता था. उन्होंने सत्तातंत्र को हतप्रभ कर डाला था. वह उनके विचारों को नापसंद करता था, फिर भी उन्हें अपनी सबसे प्रतिष्ठित अकादमियों में व्याख्यान देने के लिए बुलाया करता था
खालिद ने कई अखबारों का नेतृत्व किया. ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के बाद वे ‘द नेशन’, ‘द फ्रंटियर पोस्ट’, और इसके बाद ‘न्यूज़वीक-पाकिस्तान’ में प्रमुख पदों पर रहे. 2014 में मैं जब लाहौर लिटरेरी फेस्टिवल में व्याख्यान देने गया था तब वे ‘न्यूज़वीक-पाकिस्तान’ में थे और तभी मेरी उनसे अंतिम मुलाकात हुई थी. मैंने देखा था, किस तरह वे पाकिस्तानी पत्रकारों की नई आधुनिक सोच वाली, पेशेवर, जिज्ञासु युवा पीढ़ी को बढ़ावा दे रहे थे, जिसे उनके साथ काम करने में गर्व महसूस हो रहा था. खालिद को चाहने वालों में हमेशा युवा फैन क्लब प्रमुख रहा.
खालिद ने कभी खबर नहीं बनाई या कोई खबर नहीं दी, लेकिन उनके पास हमेशा कोई न कोई सूचना रहा करती थी. उदाहरण के लिए यह तथ्य कि 1993 में मुंबई में जो बम धमाके दाऊद इब्राहिम ने करवाए उसे आईएसआई के एक ब्रिगेडियर (खालिद ने उनका नाम मुझे बताया था) आयोजित करवाया था और हालांकि, यह ऑपरेशन बिना अधिकृत स्वीकृति के नहीं करवाया गया था, लेकिन इसे इस तरह अंजाम दिया गया था कि इसमें सत्तातंत्र की भागीदारी से इनकार किया जा सके. खालिद ने कहा था कि इसके लिए पैसा दुबई में फैशन शो और फिल्म स्टार नाइट करके जुटाया गया था जिनमें डी-गैंग के जरिए भारतीय स्टार भी शामिल हुए थे.
खालिद ने लश्करों, कलाश्निकोव कल्चर, जिहादवाद को अधिकांश लोगों से पहले उभरते देख लिया था. उन्होंने मुझे जमात-ए-इस्लामी के तत्कालीन मुखिया काज़ी हुसैन अहमद और उस समय काफी उग्रवादी तेवर वाले मौलाना ताहिरुल कादरी से मिलने के लिए कहा. वे कहते थे : “उनके इर्दगिर्द जमा कलाश्निकोव को देखो, उनके नारे और उनकी तकरीरें सुनो; तुम्हें पता चल जाएगा कि क्या कुछ हो रहा है.”
मैंने और ‘इंडिया टुडे’ के एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी ने साथ-साथ पाकिस्तान का दो बार दौरा किया. पहली बार, अगस्त 1988 में जब मैं ज़िया-उल-हक के निधन की खबर करने गया था तब अरुण भी मेरे साथ थे. दूसरी बार, 2013 में जब पाकिस्तान में आम चुनाव हुए थे तब हम दोनों ने साथ दौरा करने का फैसला किया था. हालांकि, हम दोनों अलग-अलग प्रकाशनों के लिए काम कर रहे थे. 1988 में, खालिद ने हमें कहा था कि ज़िया तो नहीं रहे मगर ज़ियावाद कायम रहेगा. यह एक राज्यसत्ता के भीतर एक और राज्यसत्ता के रूप में आईएसआई के आकार लेने से ज़ाहिर हो गया. लश्करों आदि ने ज़ियावाद की मशाल को जलाए रखा.
दूसरी बार, 2013 में ‘न्यूज़वीक-पाकिस्तान’ के दफ्तर में खालिद ने वह डरावनी कहानी सुनाई कि लश्कर-ए-तय्यबा उनके लेखन से कितना गुस्से में है. एक “खैरख्वाह और दोनों के दोस्त” ने आकर खालिद से कहा कि वे लश्कर के मुखिया हाफिज़ मुहम्मद सईद से मिलकर उनसे सुलह कर लें. खालिद उससे मिले. हाफिज़ ने उनसे कहा कि वह उनकी अक्लमंदी के कारण उनकी इज्जत करता है, लेकिन उनका कुछ लेखन और भाषण उन्हें कबूल नहीं है. खालिद ने भावशून्य होकर याद करते हुए बताया कि उन्होंने माफी मांगते हुए हाफिज़ के पैर छूए और ज़िंदा वापस लौट आए. उन्होंने ईमानदारी बरती. अरुण पुरी ने भारत लौटकर ‘इंडिया टुडे’ में लेख लिखकर इसका ज़िक्र किया.
लश्कर के मुखिया हाफिज़ ने उनसे कहा कि वह उनकी अक्लमंदी के कारण उनकी इज्जत करता है, लेकिन उनका कुछ लेखन और भाषण उन्हें कबूल नहीं है. खालिद ने भावशून्य होकर याद करते हुए बताया कि उन्होंने माफी मांगते हुए हाफिज़ के पैर छूए और ज़िंदा लौट आए
भविष्यदर्शी, दुर्लभ धर्मनिरपेक्ष नास्तिक
खालिद को देखकर आप यह अंदाज़ा नहीं लगा सकते थे कि उनकी पहुंच कितनी व्यापक है. वे मुड़े-तुड़े ट्रैक-पैंट और शर्ट में दफ्तर आ सकते थे जिन्हें पहनकर शायद वे पिछली रात सोए होंगे. उनके मालिक उनकी निगरानी किया करते थे और मेरे जैसे विजिटर को उनसे मिलने नहीं देते थे ताकि वे अपना शानदार लेख या संपादकीय पूरा कर सकें.
‘फ्रंटियर पोस्ट’ में तो उसके मालिक का भाई खालिद के दफ्तर के दरवाजे पर चपरासी के स्टूल पर बैठा रहता था ताकि खालिद को कोई डिस्टर्ब न करे. उस समय उनके साथ काम कर रहीं बीना सरवर को ऐसी बातें ज़रूर याद होंगी. वे आजकल इस उप-महादेश के जख्मों पर मलहम लगाने वाला संगठन ‘सपन कलेक्टिव’ चलाती हैं. खालिद जब असल में भोजन करने और गपशप के मूड में होते थे तब वे मुझे लाहौर के लक्ष्मी चौक ले जाते थे जहां ‘टकाटक कबाब’ की दुकानों की एक अंतहीन गली सजी हुई है. टकाटक नाम इसलिए पड़ा था कि कबाब बनाने वाले तवे पर बकरे के कई लज़ीज़ अंग पकाया करते हैं, जिसके कारण टक-टक आवाज़ होती रहती है.
1990 में जब खालिद ‘फ्रंटियर पोस्ट’ में थे तब ऐसा लग रहा था कि भारत-पाकिस्तान में कभी भी लड़ाई शुरू हो जाएगी. उसी दौरान बेनज़ीर भुट्टो ने “जग…जग…मो…मो… हन…हन…’ वाला भाषण देते हुए एक हाथ से दूसरी बांह को काटने वाली मुद्रा बनाते हुए जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन को टुकड़े-टुकड़े काट डालने की धमकी दी थी.
तब हमने ‘इंडिया टुडे’ में कवर स्टोरी प्रकाशित की थी, और मैंने महज मज़ाक के लिए सैन्य विश्लेषक रवि रिखी के साथ मिलकर यह अंदाज़ा लगाया था कि एक हज़ार घंटे के युद्ध पर कितना खर्च होगा.
खालिद ने कहा कि सत्ता में बैठे लोग रिटायर्ड सेना अधिकारियों के समुदाय में से ऐसे ही “काम के बेवकूफ़ों” को इस तरह की मानसिकता बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. आप लोग देखिए कि भारत में भी यह सब न फैले. यह होना ही है. क्या वे भविष्यवाणी कर रहे थे? वे इतने बुद्धिमान थे, बहुत ज्ञानी
हज़ार घंटे इसलिए क्योंकि बेनज़ीर ने हिंदुस्तान के साथ हज़ार साल तक लड़ने के अपने अब्बा के दावे को दोहराया था. उस समय भारत के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने संसद में यह कहकर इसका जवाब दिया था कि जो लोग हज़ार साल तक लड़ने की बातें कर रहे हैं वह हज़ार घंटे तक भी नहीं टिक पाएंगे.
फौरी गणना से पता चला कि एक हज़ार घंटे का अर्थ हुआ 42 दिन की लड़ाई, यानी 1965 में 22 दिन और 1971 में 13 दिन की लड़ाइयों को जोड़ दें उससे भी ज्यादा दिनों की लड़ाई. हम यह देखना चाहते थे कि एक हज़ार दिन की लड़ाई जीतने पर कितना खर्च होगा, लेकिन संपादकीय संदेश बेशक ज्यादा जटिल था, कि लड़ाई से किसी समस्या का समाधान नहीं होता, वह भयानक रूप से महंगी साबित होती है और आप उसमें निर्णायक जीत हासिल भी कर लें तब भी समस्या और बुरी ही हो जाती है. इसका प्रमाण 1971 की लड़ाई में भारत की जीत देती है. इसके मात्र दो दशक बाद हम फिर से एक और लड़ाई के लिए तैयार दिख रहे थे. वह कवर स्टोरी एक शांतिवादी नज़रिया पेश करती थी और इसे ढाका में आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर दस्तखत करते ले.जनरल ए.ए.के. नियाजी की चर्चित तस्वीर के साथ प्रस्तुत किया गया था.
मेरे हाथ में ‘इंडिया टुडे’ का वह अंक था. खालिद ने उस नज़रिये को पसंद किया और ‘फ्रंटियर पोस्ट’ ने उस लेख की प्रतिलिपि प्रकाशित की. लेख ने युद्ध की निरर्थकता को तो रेखांकित किया, मगर उस तस्वीर ने आग लगा दी. पाकिस्तानी फौज के मुख्यालय ‘जीएचक्यू’ ने खालिद और उनके अखबार के मालिक को कड़ी से कड़ी धमकी दे डाली. एक पाकिस्तानी अखबार उस तस्वीर को भला कैसे छाप सकता है? खालिद ने स्पष्ट किया कि वह तो ‘इंडिया टुडे’ के एक पन्ने की प्रतिलिपि है, मगर इसे मंजूर नहीं किया गया. अगले दिन अखबार के पहले पन्ने पर माफी मांगी गई, इसके अलावा भी कई बार माफी मांगी गई.
अखबार ने एक दिन बाद अपने संपादकीय पन्ने पर एक रिटायर्ड एअर मार्शल का लेख छापा जिसमें उन्होंने बताया कि अगले युद्ध में क्या-क्या होगा — युद्ध के ‘डी-1’ यानी पहले दिन भारतीय नौसेना को समुद्र में डुबो दिया जाएगा; ‘डी-2’ में उसकी वायुसेना को आसमान से साफ कर दिया जाएगा; ‘डी-4’ में पाकिस्तानी तोपें जयपुर पहुंच जाएंगी और भारत लड़ाई रोकने की मांग कर रहा होगा और उसने इतने टुकड़ों में बंटना कबूल किया है जिन्हें ‘संभाला’ जा सके.
खालिद विदेश सेवा में काफी अरसे तक रहे थे मगर इस सेवा से नफरत करते थे. बाद में जब उन्होंने हमारे लिए एक कॉलम लिखा तो हमें हिदायत दी थी कि हम इस बात का जिक्र न करें कि वे विदेश सेवा में थे और मॉस्को में पाकिस्तानी दूतावास में भी तैनात किए गए थे
मुझे हंसी ही नहीं आई, हैरानी भी हुई और सदमा भी लगा. मैं फिर से खालिद के दफ्तर पहुंच गया. मैंने उनसे पूछा, “इस तरह की बकवास आप कैसे छाप सकते हैं?” उनका जवाब था, “यह सब ऊपर से आता है.” इसके बाद उन्होंने भारी मजे से और विडंबना ज़ाहिर करते हुए बताया कि उस एअर मार्शल को अब तमाम तरह के लोग फोन करके यह कह रहे होंगे कि ‘सर, आज तो आपने कमाल कर दिया, इंडिया को पूरी शिकस्त, चारों खाने चित कर दिया’.
सत्ता में बैठे लोग रिटायर्ड सेना अधिकारियों के समुदाय के ऐसे ही “काम के बेवकूफों” को इस तरह की मानसिकता बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. आप लोग देखिए कि भारत में भी यह सब न फैले. यह होना ही है. क्या वे भविष्यवाणी कर रहे थे? वे इतने बुद्धिमान थे, बहुत ज्ञानी!
और मैं यह सब घबराहट के साथ कहूंगा क्योंकि यह मेरे मित्रों समेत कई लोगों को परेशान और क्षुब्ध कर सकता है, लेकिन खालिद एक सच्चे, दुर्लभ सेकुलर अनीश्वरवादी और शायद नास्तिक थे और मेरे कई मुस्लिम मित्रों में निश्चित रूप से अकेले ऐसे शख्स थे और, वे कोई वामपंथी भी नहीं थे, दूर-दूर तक भी नहीं और कुछ नहीं, तो सोवियत संघ के दौर में उन्होंने मॉस्को में जो समय बिताया उसने उन्हें साम्यवाद की भ्रांतियों और मूढ़ताओं से सावधान कर दिया था. वैसे, वे कहा करते थे कि उर्दू या अरबी में सेकुलर के लिए कोई शब्द नहीं है. उनका मतलब साफ था.
जनरलों के बारे में कहा जाता है कि वे मरते नहीं हैं, गुम हो जाते हैं. पाकिस्तान के जनरलों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, लेकिन उनके पत्रकार आमतौर पर गुमनाम मर जाते हैं, उनमें से जो सर्वश्रेष्ठ होते हैं उनका स्मारक प्रेस क्लब या ऐसी जगहों पर पाया जा सकता है. इसलिए, हमें खालिद अहमद के जीवन और योगदान की याद ज़रूर करनी चाहिए. यही वजह है कि उनकी मौत से पत्रकारिता को और इस उप-महादेश में सार्वजनिक विमर्श को भारी नुकसान पहुंचा है. मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मैं जिस पहले पाकिस्तानी से मिला वे खालिद ही थे और हमारी दोस्ती चार दशकों तक रही, जब तक कि कैंसर ने उन्हें हमसे छीन नहीं लिया.
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