हिमालय क्षेत्र में उत्तर-पश्चिम से लेकर दक्षिण-पूर्वी छोर तक फैला पीर पंजाल रेंज उत्तर में कश्मीर घाटी और दक्षिण में जम्मू के मैदानी इलाकों के बीच भौगोलिक और सांस्कृतिक दीवार के रूप में काम करता है. हाल के दिनों में इस रेंज के दक्षिणी इलाके में आतंकवादी वारदात में चिंताजनक वृद्धि हुई है. राजनीतिक और सैन्य तंत्र हिंदू-बहुल जम्मू क्षेत्र और मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी के बीच की इस दीवार को आतंकवाद के खिलाफ पहली मोर्चेबंदी के रूप में देखता रहा है, लेकिन अब पीर पंजाल रेंज के दक्षिण के क्षेत्र को जिस तरह आतंकवादी वारदात का निशाना बनाया जा रहा है वह क्षेत्रीय स्थिरता, राष्ट्रीय सुरक्षा समेत प्रभावित आंतरिक इलाके के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए गंभीर चुनौतियां पेश कर रहा है.
केंद्रशासित क्षेत्र में सफल विधानसभा चुनाव और लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार के नाटकीय गठन के बाद आतंकवादी घटनाओं में फिर से तेज़ी भी उतनी ही चिंता का विषय है. सोनमर्ग, जैसे शांत इलाकों में हमलों के पीछे एक इरादा तो सामान्य स्थिति की बहाली को झुठलाना है, दूसरे यह जताने की कोशिश भी है कि आतंकवादी गिरोहों की पहुंच कहां तक है. इन कारणों से अलगाववाद तथा आतंकवाद विरोधी (सीआईसीटी) ग्रिड को पुनर्गठित करने की ज़रूरत आन पड़ी है. यह खतरों के बदलते स्वरूप और ज़मीनी हकीकत के मद्देनज़र किया जा रहा क्योंकि सुरक्षाबलों को हर समय हर जगह नहीं तैनात किया जा सकता और उन्हें ऐसे रूप में नहीं पेश किया जा सकता कि वे केवल जवाबी कार्रवाई ही करते हैं.
पीर पंजाल रेंज के दक्षिण के क्षेत्र में आतंकवादी गतिविधियां अलग-अलग रूपों में सामने आ रही हैं. सीमापार से घुसपैठ भी की जा रही है, नये रंगरूट भर्ती किए जा रहे हैं और निशाना बनाकर हमले किए जा रहे हैं. इस क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादी गिरोहों के तार बड़े संगठित नेटवर्कों से जुड़े हैं जो लोगों के कथित असंतोष का फायदा उठाते हैं. सुरक्षा सैनिकों पर हमलों, निशाना बनाकर की गई हत्याओं और नागरिक आबादी पर अत्याचारों के कारण हिंसा बढ़ी है. इन वारदातों ने स्थानीय आबादी में दहशत पैदा की है जिसके कारण अविश्वास का माहौल बना है और हिंसा में और वृद्धि हुई है. आतंकवादी हमलों में वृद्धि ड्रग तस्करों और आतंकवादी गिरोहों की मिलीभगत के कारण भी हुई है जिसे ‘नार्को- टेररिज़्म’ के नाम से जाना जाता है जिसमें किसी नैतिक, सांस्कृतिक या धार्मिक सीमाओं का लिहाज नहीं किया जाता. खासकर युवाओं में भारी बेरोज़गारी, विकास की कमी और अभावग्रस्तता आतंकवादी गिरोहों के लिए नये रंगरूट जुटाती है. अवसरों की कमी के कारण कई युवा इन गिरोहों के झांसे में आ जाते हैं जो उन्हें आसान कमाई के साथ एक कथित मकसद से जुड़ने का एहसास कराते हैं.
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छद्म युद्ध
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जम्मू में 2021 से अब तक 33 आतंकवादी हमले हो चुके हैं. इस साल ऐसे आठ हमलों में 11 सैनिक मारे जा चुके हैं, 18 घायल हो चुके हैं जबकि पहले छह महीने में 12 नागरिक मारे जा चुके थे, जबकि 2023 में इतने लोग एक साल में मारे गए थे. जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के बाद के पहले 15 दिनों में इस पूरे केंद्र-शासित क्षेत्र में 15 हत्याएं हो चुकी हैं, जिनमें मृतकों में कई मजदूर थे और एक स्थानीय डॉक्टर भी हैं. जून में एक बड़े हादसे को टाला गया जब एक चौकन्ने ग्रामीण ने कुछ हथियारबंद लोगों की मौजूदगी पर शोर मचा दिया था, जिसके बाद उन आतंकवादियों का सफाया किया जा सका था. ऐसी खबरें इसी बात को रेखांकित करती हैं कि अमन-चैन बनाए रखने के लिए समाज के सभी तबकों को सजग रहना होगा. आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि के कारण अतिरिक्त सुरक्षाबलों को उनके शांति काल के अड्डों से बुलाकर जम्मू में तैनात किया गया है ताकि सामान्य स्थिति बहाल करने की तात्कालिक ज़रूरत को पूरा किया जाए.
सैन्य स्तर पर किए जा रहे उपायों के बावजूद सीमा पार से घुसपैठ और आतंकवादियों को समर्थन अहम समस्या बनी हुई है. लगभग खुली सीमा और नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पार आतंकवादी ट्रेनिंग अड्डों के कारण हथियारबंद गिरोह भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करते रहते हैं और आतंकवादी गतिविधियां जारी रहती हैं. यह सर्वविदित तथ्य है कि आतंकवादी या बगावती गतिविधियां बाहर से नैतिक तथा भौतिक समर्थन के बिना नहीं चल सकतीं. पाकिस्तान उन्हें केवल नैतिक समर्थन देने का दावा तो कर सकता है लेकिन इसके उलट कई सबूत मौजूद हैं जिनमें आतंकवादी ट्रेनिंग अड्डों, सारे सरंजाम की मौजूदगी तो सहमिल हैं ही भारत में विभिन्न ‘ऑपरेशनों’ में मारे जाने वाले आतंकवादियों में कई पाकिस्तानी नागरिक भी पाए जाते रहे हैं जिनमें वहां की जेलों से छोड़े गए अपराधी भी थे. पाकिस्तान में अड्डा बनाए और खासकर लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे गुटों से जुड़े आतंकवादी गिरोह जम्मू क्षेत्र में काफी समय से घुसपैठ करते रहे हैं. जम्मू में आतंकवाद को छद्म युद्ध के हिस्से के तौर पर देखा जा सकता है, जिसमें बाहरी तत्व इनकार की मुद्रा अपनाते हुए अपने भौगोलिक लक्ष्य हासिल करने के लिए स्थानीय आतंकवादियों का इस्तेमाल करते हैं. इसमें भारत में अराजकता फैलाना और पाकिस्तान की आंतरिक समस्याओं से ध्यान भटकाना शामिल है.
एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, कामयाब बगावत विरोधी ऑपरेशन के तहत कानून का पालन करवाने के लिए प्रति 1,000 की नागरिक आबादी पर 20-25 सुरक्षा सैनिकों की, हल्की लड़ाई में प्रति 1000 नागरिक आबादी पर 100-150 सुरक्षा सैनिकों की ज़रूरत पड़ती है. गणित बताता है जम्मू-कश्मीर की 1.25 करोड़ आबादी के मद्देनज़र इस तरह की तैनाती न तो मुमकिन है, न वांछित है और न व्यावहारिक है. इसलिए, जहां ज़रूरी है वहां सुरक्षाबलों की आवश्यक तैनाती के लिए उस गतिशील ‘सीआईसीटी ग्रिड’ की ज़रूरत है जिसने बहुत काम दिया है.
जितने सुरक्षाबलों की मौजूदगी चाहिए उसे देखते हुए वक्त आ गया है कि हम अपने ‘सीआईसीटी’ ऑपरेशन का विस्तार करें और अपने उन पड़ोसी देशों में अपने संभावित ठिकानों को निशाना बनाएं जो हमारी सुरक्षा और संप्रभुता को सीधा खतरा पहुंचाते हैं. अमेरिका ने 9/11 कांड के बाद आतंकवाद के खिलाफ जो वैश्विक युद्ध छेड़ा और अफगानिस्तान में अपने लिए खतरनाक ठिकानों को निशाना बनाया, या 7 अक्तूबर 2023 के हमले के बाद इज़रायल ने हमास के खिलाफ गाज़ा में जो जवाबी हमला किया उस मुहिम को अब लेबानन, सीरिया और ईरान तक जिस तरह फैलाया गया उसे बताने की ज़रूरत नहीं है. इन सबसे और कई देशों द्वारा ऐसी ही जो एकतरफा कार्रवाई की गई है उन सबसे संकेत लेकर भारत को भी अपने कदमों के बारे में फैसला करना चाहिए. आतंकवाद या छद्म युद्ध को बढ़ावा देने वाले सरकारी या उससे इतर तत्वों को कीमत चुकाने के लिए मजबूर किया ही जाना चाहिए.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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