31 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ बिखर गया और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन का अंत हो गया. पूरी दुनिया में मार्क्सवादी राजनीति अप्रासंगिक होती जा रही थी. कुछ ही समय पहले दिसंबर 1989 में रोमानिया के कम्युनिस्ट शासक चाऊशेस्कू हीरे जड़े जूते पहने पाए गए थे, और एक जनांदोलन ने वहां कम्युनिस्ट शासन और शासक दोनों का अंत कर दिया था. अनेक कम्युनिस्ट सरकारों का अंत होता चला गया.
उदारीकरण और अर्थक्षेत्र में वाम विचार का अंत
दुनिया भर की इन घटनाओं का भारत पर असर पड़ना स्वाभाविक था. भारत के कम्युनिस्ट उदास थे. यही वह दशक था जब कांग्रेस, न केवल मात्रात्मक, बल्कि गुणात्मक, अर्थात वैचारिक स्तर पर भी, निरंतर कमजोर होती चली जा रही थी. 1991 में नरसिंह राव सरकार की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने कांग्रेसी सरकार के समाजवादी तामझाम को एक झटके में खत्म कर दिया. देश की आज़ादी के बाद नेहरू ने जिस समाजवादी ढांचे की सरकारी नीतियों को विकसित किया था, उसकी जगह नयी पूंजीवादी नीतियां आ गयीं.
कम्युनिस्टों का जोर आर्थिक नीतियों पर होता है. वे इसे ही इतिहास की संचालक शक्ति मानते हैं. मार्क्सवादी दर्शन आर्थिक ढांचे को ही समाज की निर्णायक शक्ति स्वीकार करता है. तथाकथित उदार आर्थिक नीतियां कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों की समाजवादी आर्थिक नीतियों के विरुद्ध थीं. कांग्रेस को भी कुल मिला कर समाजवादी पक्ष ही कहा जाता रहा था. इसी कांग्रेस ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ा था. आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से देश की राजनीति में बहस का एक भूचाल आया. लेकिन इसे लेकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हुआ. बहस तक ही बात सिमट गयी. कम्युनिस्ट धीरे-धीरे चुप लगा गए.
सीपीएम के लिए देश चलाने का मौका और चूक
हालांकि, इन्हीं दिनों एक मुकाम पर मुल्क की राजनैतिक स्थिति ऐसी भी हुई कि सीपीएम नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का राजनैतिक न्योता मिला. इसे उनकी पार्टी ने ही ठुकरा दिया. यह वह आखिरी राजनैतिक अवसर था, जो कम्युनिस्टों को मिला और जिसे उन लोगों ने गंवा दिया. इसके ब्योरे और विश्लेषण में जाने का हमारा कोई इरादा नहीं है, क्योंकि यह हमें विषयांतर कर देगा.
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लेकिन, भारत की राजनीति में यह बहस तो अब भी है कि वामपंथी धारा के पतन की मुख्य वजह आखिर क्या है? क्या 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस वह कारण है, जिससे यहां दक्षिणपंथी राजनीति विकसित हुई? या फिर नरसिंह राव सरकार द्वारा नेहरूवादी आर्थिक नीतियों को दरकिनार कर पूंजीवादी उदारवादी आर्थिक नीतियों को अंजाम देना दक्षिणपंथ के विकास का कारण बना?
आर्थिक उदारीकरण के कारण वामपंथ का क्षरण
रूढ़ मार्क्सवादी की तरह ही मैं कहना चाहूंगा कि आर्थिक मोर्चे पर कांग्रेस जब अपनी ही समाजवादी वैचारिकता से पीछे चली गयी, तब फिर सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर वह कितनी टिक सकती थी? भाजपा राव सरकार के प्रति अत्यंत कृपालु बनी रही. लाल कृष्ण आडवाणी ने कभी राव की तुलना सरदार पटेल से की थी. संघ कांग्रेस के जिन नेताओं का आदर करता है, उनमें सरदार पटेल का नाम अग्रणी है. आर्थिक उदारीकरण की नीतियां सामाजिक न्याय के लोकतांत्रिक लगाम से संभाल सकती थीं. लेकिन इसके लिए जिस इच्छा शक्ति की ज़रूरत थी, वह राव सरकार में नहीं थी. बाद में मनमोहन सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में इस इच्छा-शक्ति का थोड़ा-सा ही सही, प्रदर्शन किया था.
राव के शासन काल के बाद कम से कम पांच साल राजनैतिक अस्थिरता के रहे और इस बीच भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता गया. 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन के लिए प्रधानमंत्री बने और 1998 में तेरह महीने के लिए. 1999 में पूरे कार्यकाल के लिए वाजपेयी तीसरी दफा पीएम बने. कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर नहीं था. नरसिम्हा राव का अधूरा काम अटल बिहारी पूरा कर गए.
2004 में भाजपा को समाजवादियों ने रोका
2004 में कई कारणों से बीजेपी पराजित हो गयी. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा में भाजपा की सीटें कांग्रेस से केवल सात ही कम थी. भाजपा की पराजय सुनिश्चित करने में बिहार और उत्तर प्रदेश की उन लोहियावादी-समाजवादी पार्टियों का बड़ा हाथ था, जिन्हें वामपंथी नीची निगाह से देखते थे. वामपंथियों की नज़र में ये लोहियावादी-समाजवादी वैचारिक दरिद्रता के शिकार थे.
2004 में वामपंथी बंगाल, त्रिपुरा और केरल में जीते, जहां भाजपा सीधी लड़ाई में नहीं थी. वहां इन लोगों ने मुख्य रूप से कांग्रेस को पराजित किया था. यह सच्चाई है कि वामपंथी भाजपा के सीधे मुकाबले से बचते रहे. उनसे सीधा मुकाबला करना समाजवादी संततियों के जिम्मे था, जो औने-पौन, आड़े-तिरछे वैचारिक औज़ारों से यह लड़ाई लड़ रहे थे. आर्थिक मुद्दों पर उदार नीतियों के लिए लगभग राष्ट्रीय सहमति बनती जा रही थी, लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे पर भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति से कांग्रेस, सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट दलों का तीखा किन्तु विकल्पहीन मतभेद था.
यह वह समय था, जब वैचारिक स्तर पर एक नयी राजनैतिक गोलबंदी होनी चाहिए थी. लेकिन, इस ज़रूरत को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. अपनी वैचारिकता के लिए ख्यात कम्युनिस्टों ने इस विषय को लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखलाई. नतीजा हुआ इक्कीसवीं सदी की वैचारिक चुनौतियों से जूझते नौजवान, कम्युनिस्ट पार्टियों से उदासीन होने लगे. कम्युनिस्ट दल बूढ़े और बांझ विचारकों का एक थका-मांदा संगठन बन कर रह गया.
फिसलन भरी ढलान पर कम्युनिस्ट पार्टियां
इसी थकान का नतीजा था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उनका ग्राफ अचानक बहुत नीचे आ गया. वह 43 से 16 पर आ गए. अगले पांच साल में 9 पर हुए और इस बार 5 पर. यह कैसे हुआ? बंगाल में इस बार जिस तरह उनका सूपड़ा साफ़ हुआ, वह कोई छू-मंतर का खेल नहीं है. उसके पुख्ता कारण हैं. आखिर क्या हुआ कि जिस बंगाल में तीन दशकों से अधिक तक कम्युनिस्ट सत्ता में रहे, वहां का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश उन्होंने ऐसा कर दिया कि भाजपा अपने बूते इस तरह उभर आयी. ये तत्व कहां छुपे थे? कहा जा रहा है कि सीपीएम के कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ शिफ्ट कर गए. इसमें कुछ सच्चाई है. इसका कारण तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच की शत्रुता ही नहीं है. कुछ और है.
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हमें नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल हिंदुत्व की राजनीति का सब से पुराना अखाड़ा रहा है. वह आर्यवाद, पौर्वात्यवाद (ओरिएन्टलिज़्म) से लेकर वन्दे मातरम की भूमि है, जहां आरएसएस से बहुत पहले उसकी ही तरह का एक हिंदूवादी संघटन अनुशीलन समिति 1907 में बना थी. हालांकि यह समिति अपने आचरण में हिंदुत्ववादी से अधिक ब्रिटिश राज विरोधी था. कम्युनिस्टों ने अपने शासन काल में आर्थिक मोर्चे पर चाहे जो किया हो, सांस्कृतिक मोर्चे पर कमोबेस हिंदुत्ववादी फ्रेम में ही बने रहे. उनकी प्रगतिशीलता सेक्युलरिज्म के मोर्चे पर थोड़ी ज़रूर दिखती थी, लेकिन नयी राजनैतिक चुनौतियों के लिए वह पर्याप्त नहीं थी. बंगाल के लिए बुरा यह नहीं हुआ है कि वहां भाजपा सत्ता के करीब पहुंच चुकी है, बल्कि बुरा यह है कि बांग्ला हिंदुत्व की जगह वहां नागपुर का हिंदुत्व हावी हो गया है. यह बंगाल की सांस्कृतिक पराजय है. और इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार कांग्रेस नहीं, सीपीएम है. इसका विश्लेषण हम आगे करेंगे.
(लेखक साहित्यकार और विचारक हैं. बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं.)
(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)